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ख्वाब और गुलाब ~ गौतम कुमार

 मुझे एक ख़्वाब आया  ख़्वाब में तुम आये  मुस्कुराये  मेरे एक हाथ में गुलाब था  एक में तुम्हारा हाथ था  वक़्त ख़ूब था  हर क़ैद-ए-नज़र से बाहर  यह कोई दूसरा चमन था  और ये सहर भी नई  गुलाब पे पड़े ओस के बूंदों की मानिंद  चमकती हुई तुम्हारी आँखें थी  उनमें पनप रहा था  इक और नया ख़्वाब  पता नहीं ये ख़्वाब कहाँ से आते हैं  फिर ख़्वाब में गुलाब कहाँ से आते हैं  मुझे बोध है तुम्हारी ऊँची जाति का मैं हूँ सजायाफ्ता मुझे सज़ा दो  ख़्वाब बेक़सूर हैं! गुलाब बेक़सूर हैं! -                        गौतम कुमार शोधार्थी जेएनयू