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तुम किताब हो (कविता) ~ नंदलाल भारती

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प्यास नहीं बुझती  मुहब्बत मेरी तुम हो तुम हो  बार हजार बार तुम्हें बांचूं  आस नहीं भरती, प्यास नहीं बुझती प्राण तुम बंजर की आस हो.... सीमित दिमाग में, तुम असीमित  असीम चाह तुमसे प्रिये दिग्दर्शनीय तुम्हारी अथाहता को,निहारता हूं  अपने घर में समा ना सका तुम्हें  तुम कितनी सुन्दर हो,धवल मन रोके भी नहीं रुक पाता बांचता रहता हूं तुम्हें  पहली मुहब्बत मेरी तुम हो तुम हो प्यास नहीं बुझती, बांचते,निहारते आस नहीं भरती तुमसे ......आस नहीं भरती. प्यासा रहता हूं तुम्हें बांचने को  जी भर बांचने की कोशिश करता हूं  जी भर जाता है जैसे कई बार  खाली रह जाता है हर बार  कभी नहीं भरती प्यास  खाली रहता है उर का कोना  लगता है जीवन भर नहीं भरेगा कोना-कोना  लगता है लेना होगा जन्म हजार रह जाती है अधूरी प्यास कब होगी बुझेगी अपनी प्यास  चाह नहीं बुझती हर बार.... सांस हर सांस में ज्योति हर्षित  अपनी जहां की चाह तू हो तू हो बिन तुम मेरा जीवन कैसा ? तुम हो तो सब कुछ है प्रिये ज्ञान -विज्ञान तू स्वाभिमान मेरे प्यास नहीं बुझती प्रिये चाह नह...