दलित ब्राह्मण (कहानी) शरणकुमार लिंबाले
मुझे याद आता है, जब मैं प्रायमरी स्कूल जाने की उम्र में था, तब हमारी पाठशाला में गणपति की स्थापना की जाती थी। हम बड़े आनन्द से श्री की प्रतिष्ठापना करते थे। नाचते थे, गुलाल उछालते थे। प्रतिदिन विधिवत् श्री की पूजा हुआ करती थी। दिन बड़े ठाठबाट से गुजर जाते थे। प्रतिमा का विसर्जन भी बड़ी शान से हुआ करता था। जब मैं उन दिनों की याद करता रहता हूँ तब मेरी बेटी मेरे बाहों में उगे सफेद बालों को तोड़ा करती है। पत्नी कहती, 'जाने दो, पूरा सिर ही पक गया है। सफेद बालों को उखाड़ देने से बुढ़ापा छिप तो नहीं जायेगा।' लेकिन बेटी बड़ी लगन से सफेद बालों को ढूंढती रहती है। मिलने पर उखाड़ देती है। मुझे इस बात की खुशी होती है कि बालों को उखाड़ने के लिए ही क्यों न हो, वह मेरे पास तो है। घर के बाहर चौराहे पर गणपति की स्थापना हो चुकी है।
चाहे गणपति हो, देवी हो, राम या कृष्ण हो, महादेव हो, हिन्दुओं के इन देवताओं के हाथों में हथियार अवश्य होता है। वे आक्रामक लगते हैं। मैं उनके हाथोंके हथियारों से डरता हूँ। गणपति के हाथ में भी शस्त्र है। वह हैं तो विघ्नहर्ता किन्तु जब आते हैं तो विघ्नों को लेकर ही आते हैं। मेरे सफेद बालों को उखाड़ते हुए बेटी कहती है, 'पपा, गणपति का शरीर तो मनुष्य का है लेकिन मुख हाथी का है। उसके माँ-बाप का कैसा था?' मैं उसका प्रश्न सुनकर सफेद पड़ जाता हूँ। 'बेटी, ऐसे सवाल नहीं पूछते।' इससे धार्मिक भावना को ठेस पहुँच जाती है। धार्मिक भावना को ठेस पहुँच जाने पर किसी धर्म की कोई हानि नहीं होती लेकिन राष्ट्र की सम्पत्ति की हानि हो जाती है। आगजनी होती है। शहर जलने लगते हैं। तिलक जी ने राष्ट्रीय भावों को जगाने के लिए शिव जन्मोत्सव और गणेशोत्सव का आरम्भ किया था, लेकिन अब इन उत्सवों में धार्मिक भावना को ही भड़काया जाता है। बेटी सफेद बालों के बदले अब काले बालों को उखाड़ने लगी है। मेरी पत्नी चिल्लाने लगती है, 'अरी, बस कर बालों को उखाड़ना। पहले ही चाँद क्या कम है!
'श्री की मूर्ति के सामने सत्यनारायण चल रहा है। जोर-शोर से श्री की पूजा सुनाई दे रही है। उधर दूसरी तरफ से मुल्ला की अजान उतनी ही जोर से कानों में घुसी जा रही है। दरवाजे पर किसी की दस्तक सुनाई देती है। में दरवाजा खोल देता हूँ। आठ-दस जवान लड़के हैं। गणपति का चंदा माँगने आये हैं। इस झुंड को अगर मैं चंदा न दूँ तो ये मेरी बेटी को छेड़ेंगे या और भी कोई तकलीफ दे देंगे। इससे अच्छा है कि सबके साथ चंदा दे ही दें। महीने के हिसाब में इक्कीस रुपये कम हो जायेंगे। इस हफ्ते मटन खाने के ऐवज में गणपति का चंदा ही दिया जाय।
गणपति उत्सव और मुहर्रम एक साथ आ गये हैं। शहर में तनाव की स्थिति पैदा न हो, इसलिए पुलिस तैनात है। अमन कमिटी की स्थापना हो चुकी है। भाईचारा और मित्रता बरकरार रहे, इसलिए प्रचार भी हो रहा है। गणपति विसर्जन का मार्ग दूसरी दिशा से सुरक्षित निश्चित किया जा चुका है। गणपति विसर्जन का मार्ग पुलिस ने ही निश्चित किया हुआ है। गणपति के साथ पुलिस के कर्मचारी भी आसपास विराजमान हैं। गणपति हों चाहे शिवाजी, इन उत्सवों का स्वागत करने में खुशी से ज्यादा डर ही महसूस होता है। अब दस दिन तक जोर-शोर से रिकार्ड बजेंगे। रात देर तक शोर मचता रहेगा। और यह हल्लागुल्ला धूल की तरह खिड़कियों-दरवाज़ों से आता हुआ पूरे घर में जम जायेगा। इनसे कौन कह सकेगा कि जरा शोर कम करो। कौन झगड़ा मोल लेगा? कान बंद कर के दस दिन इस तकलीफ को झेलना होगा। कुछ कहने जाऊँ तो कहेंगे कि यह हिन्दू धर्म से द्वेष रखता है। यह नास्तिक है। आखिर रहना तो इसी मुहल्ले में है। मैं अपने आप को समझाता हूँ। समझौते करता हूँ। इसलिए तो मेरे सम्बन्ध सबके साथ अच्छे हैं। मैं व्यवहार देखता हूँ। प्रेम की बात नहीं है। लेकिन दिनेश काम्बले नहीं मानता। वह मुझे हिकारत से देखता है।
दलित आन्दोलन में हिन्दुत्ववादियों की तादाद बढ़ रही है। आम्बेडकर जी की तुलना हेडगेवार जी के साथ की जा रही है। हमारे दलित लेखक हिन्दुत्ववादियों के मंच पर प्रस्तुत हो रहे हैं। इन्हें जाति का गर्व नहीं है। दिनेश काम्बले की यह टिप्पणी मुझे सही नहीं लगती। जली कटी सुनाने जैसी बातें हैं। इस 'हिन्दुस्थान' में हिन्दू बहुसंख्या में हैं। हिन्दुओं का हज़ारों वर्षों का इतिहास है। हम उनके साथ लड़ नहीं सकते। लड़ाई की बात करके हम समाज को दिग्भ्रमित कर देते हैं और अल्पसंख्यको के नेता बन जाते हैं। इससे समस्याओं का समाधान नहीं निकल सकता। हमें हिन्दुओं की मानसिकता को समझना होगा। मैं जब सहजीवन में ही संघर्ष का विचार सामने रखता हूँ तो मुझ पर टिप्पणी की जाती है। अब यह जो समीर जोशी है, वह मेरे घर आ जाता है। मैं भी उसके घर जाता हूँ। हम साथ-साथ खाते हैं, पीते हैं। इस बदलाव को क्या आप नजरअंदाज कर देंगे? लेकिन मेरी समीर जोशी से मित्रता दिनेश को मंजूर नहीं।
हम सवर्णों की बस्ती में रहते हैं। आसपास के किरायेदार ब्राह्मण हैं। उनके घरों में भाजपा के बारे में बातें चलती हैं। हम आम्बेडकर जी के बारे में बोलते रहते हैं। फिर भी हम पड़ोसी हैं। मेरी पत्नी उनकी स्त्रियों के उत्सवों में शामिल होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह आम्बेडकरवादी नहीं है। मैं भी तीर्थ प्रसाद लेने जाता हूँ। दरअसल हम इस हिन्दू परिवेश से अलग रह नहीं सकते। संघर्षों और संकटों के बीच संस्कृति बनती जाती है। अब हमने गणपति का चंदा दे दिया। देना ही पड़ता है। दिनेश काम्बले ने चंदा नहीं दिया। लेकिन उसके सारे घरवाले दस दिनों के लिए दूसरे गाँव चले गये हैं। वह इस परिवेश में रह नहीं सकता। कल हो न हो, कुछ हो गया तो दिनेश काम्बले का घर पहले जलाया जायेगा। और ऐसे वक्त में कोई किसी को रोक नहीं सकता। पुलिस तमाशा देखती रहती है। गणपति उत्सव और शिव जयन्ती के दिनों में दिनेश दूसरे गाँव चला जाता है। उसे हिन्दुओं का हो-हल्ला मचाना पसंद नहीं। वह हिन्दुओं की आक्रामकता से डरता है। वह हमेशा हिन्दुओं की देवी-देवताओं को गालियाँ देता रहता है। लेकिन इससे परिवर्तन की अपेक्षा वैमनस्य ही बढ़ जाता है। अपनी समझौते वाली भूमिका के कारण मैं इनमें घुलमिल जाता हूँ। कभी-कभी खून खौला देने वाले कमेन्ट्स सुनने को मिल जाते हैं। मूड खराब हो जाता है। लेकिन मन को मजबूत करना पड़ता है।
मैं समीर जोशी के सारे व्यवहारों को देख लेता हूँ। वह भी मेरे घर की देखरेख करता रहता है। हमारे सम्बन्धों में जाति कभी बाधा नहीं बनती। पिछले हफ्ते मैं और समीर जोशी बीयर पीने के लिए गये थे। बहुत पी ली। देर रात बाहर से चले आये। रास्ते में गुण्डों ने हमें रोक लिया। रुपयों की माँग की। छीना-झपटी हो गयी। समीर के हाथ पर चाकू का गहरा घाव लगा। गुण्डे भाग गये। लेकिन इस घटना का बहुत बुरा असर हुआ।
समीर को बताया गया, “महार की संगत में तुम भी महार हो गये। अरे, हजारों बरसों से महार और ब्राह्मणों के बीच दुश्मनी है। हो सकता है यह साजिश लिम्बाले की ही रची हुई हो। गुण्डों ने उसे चाकू क्यों नहीं मारा? तुम्हें ही कैसे मारा? अरे, तुम ब्राह्मण हो, इसलिए उन लोगों ने इस तरह बदला लिया होगा।” समीर के परिवार में इस तरह की बातें होने लगीं। ऐसा ही होता है। बुरे मोड़ पर सबको मेरी निचली जात दिखाई देती है। मैं भी चिढ़ जाता हूँ। गुस्सा होता हूँ। लेकिन जात को बदला तो नहीं जा सकता ना?
दिनेश को भी मेरी जात ही दिखाई देती है। हालाँकि वह मेरी ही जाति का है, लेकिन मुझे हिन्दुवादी कह कर ताने मारता है। तमीर जोशी मेरे साथ होता है, इसलिए पूरी ब्राह्ममण बस्ती उसे 'जयभीमवाला' सम्बोधित कहती है। मैं फिर भी स्थितप्रज्ञ की तरह रहता हूँ। गणपति का चंदा ले लो, आम्बेडकरजी का चंदा ले लो, लेकिन मुझे परेशान मत करो। दलित कार्यकर्त्ता इस बात को पसंद नहीं करते। दिनेश की ज़बानदराजी चलती रहती है कि मैं सिर्फ लिखता हूँ। समाज में नहीं जाता। समाज के साथ नहीं रहता। आम्बेडकर जी पर पुस्तक लिखकर नाम और रुपया कमाता हूँ। मैं गद्दार हूँ, वगैरा-वगैरा। मैं सबको तो खुश नहीं रख सकता। समीर जोशी ब्राह्मण है, इसके बावजूद वह मेरा मित्र है। मुझे उसकी दोस्ती पसंद है। मैं सभी महारों के साथ दोस्ती तोड़ देता हूँ और बम्मन बस्ती में दलित ब्राह्मण के रूप में रहता हूँ। एक घोंघे की तरह।
हिन्दू-मुस्लिम के बीच दंगा भड़क उठा। मुझे मुस्लिम जवानों ने घेर लिया। मैंने यह कहकर अपने आप को छुड़ा लिया कि मैं हिन्दू नहीं हूँ, मैं तो बौद्ध हूँ। अगले चौराहे पर हिन्दुओं के झुण्ड ने मुझे पकड़ लिया। मैंने कहा, 'मैं मुस्लिम नहीं हूँ, मैं तो बौद्ध हूँ।' और मुझे छोड़ दिया गया। जब हिन्दू-दलितों के बीच दंगे होते हैं तब याकूब भी इसी तरह के जवाब देकर अपने को छुड़ा लिया करता है। दिनेश के लिए कोई समस्या नहीं, क्योंकि वह गाँव छोड़कर बाहर चला जाता है।
गणपति बाप्पा मोरया
अगले बरस जल्दी आना ।
आते समय
अपने हाथ के हथियार छोड़ के आना ।
कई बार मुहल्ले के लड़कों ने मेरे घर पर पत्थर फेंके हैं। मैंने खिड़की में से कई बार देखा भी है। लेकिन किसके साथ झगड़ा मोल लूँगा। बम्मनों की बस्ती में रहता हूँ। झोंपड़पट्टी में रहना असुविधाजनक है। बच्चों में बुरे संस्कार पनपते हैं। तो फिर रहो बम्मनों की बस्ती में। किसी सवर्ण लड़के ने पत्थर फेंक ही दिया तो समझना कि इतनी कीमत तो चुकानी ही होगी। उसके बिना अच्छी बस्ती, अच्छा घर, अच्छे पड़ोसी कैसे मिल सकेंगे?
किसी प्रसंग से आँखों में आँसू आ गये तो कहना होता है कि आँख में कुछ चला गया था। अपने आँसुओं को छिपाने के लिए। लेकिन दिनेश और याकूब तेज़ हैं। वे कह सकते हैं। मैं जोशी की संगत में 'वर्ण नहीं तो गुण ही सही' सोचकर रहने लगा हूँ। जो बाघ था, वह भेड़-बकरी बन गया। पिछले वर्ष याकूब के बदन पर गणपति उत्सव में गुलाल पड़ गया तो उसने चार लड़को को नीचे गिरा दिया था। दिनेश ने चंदा देने से इनकार किया तो लड़के गुस्से में आ गये थे। तब चाकू निकालकर वह उन पर टूट पड़ा। मुझसे यह कैसे हो सकेगा?
मेरी बेटी रोती हुई आ गयी। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। उसे गणपति मण्डली के कार्यकर्त्ताओं ने छेड़ दिया था। मैं कहानी लिख रहा था। बेटी रो रही थी। मैंने कहा, “जाने दे। किस किस के मुँह लगें? सारी बस्ती उनकी है। कुछ बोलेंगे तो बस्ती को छोड़ना पड़ेगा। तू ही बचकर रहना।" लेकिन मेरी पत्नी को यह सहन नहीं हुआ। इतने में मेरा बेटा आ गया। उसने बहन की तरफ से झगड़ा शुरू किया था। एक-दो को पीटा था। फिर सबने मिलकर उसे पीटा था। उसका सर फूट गया था। बाद में लड़के घर आकर उधम मचा गये। गणपति उत्सव के दिन थे। बेकार ही माहौल गर्म हो जाता। इसलिए मैं खामोश रहा। लेकिन मेरे बच्चे खामोश नहीं रह सकते थे। कहने लगे, “यहाँ रहने की अपेक्षा महारों की बस्ती में जाकर रह लेंगे। यह यातना नहीं चाहिए।"
"देश के किसी भी हिस्से में रहने जाओ, दलित होने से तुम्हें यातनाओं का सामना तो करना ही पड़ेगा। तो क्या तुम इस देश को छोड़कर चले जाओगे?” मेरा सवाल ठीक ही था, लेकिन किसी को वह ठीक नहीं लगा। हम अपने लोगों के बीच जाकर रह लेंगे। वे लोग सहायता के लिए आ जायेंगे। इतनी रामायण हो गई, लेकिन जोशी अंकल के घर से कोई नहीं आया। दिनेश अंकल होते तो...तो ऐसे चुपचाप नहीं बैठ जाते। यहाँ अपने खून के लोग चाहिएँ। मेरा बेटा पक्का जातिवादी था।अवसर ने उसे जातिवाद स्वीकारने के लिए मजबूर किया था। मैं फिर भी खामोश था।
समीर जोशी आ गया। मैंने उसे सारा वाकया बता दिया। उसकी भी आँखोंमें पानी आ गया। उसने सबको बहुत गालियाँ दीं। मुझे बहुत अच्छा लगा। जोशी को अन्याय से चिढ़ थी। जोशी की बातें सुनकर मेरा मन भी उबल पड़ा। “जोशी, हम उन लड़कों के पास जायेंगे। उनके साथ बैठक करेंगे। तुम उस बैठक में बोलोगे। आज तुमने जो कहा वह सब बोलना। ऐसा ही लावे जैसा बोलना। उन पर असर होगा।” जोशी का चेहरा उतर गया। समीर जोशी सिर झुकाकर बैठ गया। “मैं स्वभाव से खुद्दार नहीं हूँ। मुझे झगड़ा करना नहीं आता। मैं नहीं आ सकूँगा। तुम अपना देख लो। बाघ की तरह रहो। मत डरो। इन प्रवृत्तियों को कुचलना ही होगा। लेकिन मुझे इसमें मत उलझाओ। मैं अपनी सीमाएँ जानता हूँ। मैं नहीं बोल सकता। तुम बाघ हो, जाओ।"
समीर जोशी की बातें सुनकर मुझे बुरा लगा। मैं किसी महार से दोस्ती करता तो वह जान कुर्बान कर देता। अपना चुनाव ठीक नहीं था। समीर जोशी चला गया।“मैं बाघ की तरह उनसे झगड़ा करूँगा। अन्याय सहन नहीं करूँगा। सबको कुचल डालूँगा।” कहते हुए मैं उठ गया। बाहर 'गणपति बाप्पा मोरया' का शोर जारी था। डंडे और लेज़म की आवाज़ें कानों के पर्दे फाड़ रही थीं। मेरा खून उबल पड़ा। मेरी “अजी, सहन शक्ति समाप्त हो गयी थी। मैं जल उठा। पत्नी ने मुझे रोकते हुए कहा,ब्राह्मण उकसाने का ही काम करते आये हैं। जोशी ने आपको उकसाया है। पागल जैसा बर्ताव मत कीजिए।”
मेरी समझ में नहीं आया। मुसीबत के समय ही हमें एक दूसरे की जाति याद आती है। और हम जाति को दोष दे देते हैं। हकीकत क्या है? आम्बेडकर जयन्ती में शामिल होने वाला जोशी, जोशी भाभी के साथ स्त्रियों के उत्सव में जाने वाली मेरी पत्नी, हमारे घर आकर मटन चाँपने वाले जोशी के बच्चे, जोशी की बेटी के साथ मन्दिर जाने वाला मेरा बेटा, यह सारा माहौल पल भर में कैसे सड़ सकता है। सुबह' आम्बेडकर जयन्ती कार्यक्रम में भाषण करनेवाला जोशी शाम को पूजा बाँचने जाताहै तो वह मुझे पाखंडी लगने लगता है। अन्यथा तो वह मेरा जानी दोस्त है। लाइफ को और सॉफ्ट होना चाहिए, ऐसे अवसर ही जिंदगी में न आयें, जिसमें आदमी 'स्मूथ की परीक्षा लेने की नौबत आ जाये। फिर सब लोग देवता आदमी जैसे लगने लगेंगे1
घर पर दो-एक पत्थर आकर गिरे। मेरा सिर चकरा गया। जोशी गणपति के सामने पूजा-पाठ कर रहा था। मैं सीधे मण्डप में चला गया। माइक को खींच लिया। गली के सारे लड़के इकट्ठा हो गये। हड़बड़ी मच गयी। सब मेरा अपमान करने लगे। समीर जोशी चुपचाप बैठ गया। द्रौपदी वस्त्रहरण के अवसर पर भीष्म और द्रोण इसी तरह मौन धारण कर चुप बैठे होंगे। सौ लोगों की गालियों से ज्यादा जोशी का मौन मुझे बेचैन कर रहा था। यह उसकी सीमा है। दिनेश काम्बले आ गया। चाकू खोलकर खड़ा हो गया। सब भाग गये। मैंने दिनेश के पैर पकड़ लिये।
“दिनेश, तुम मेरे घर रहो। गणपति-विसर्जन होने तक तो तुम्हें मेरे घर रहना ही होगा।"
~ दलित ब्राह्मण, शरणकुमार लिंबाले, वाणी प्रकाशन, पृष्ट 15–21
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