महामना मदनमोहन मालवीय और बाबा साहेब आंबेडकर के बीच का संवाद ~ सं. मेवालाल
हिन्दू संहिता विधेयक पर 14 दिसंबर, 1950 से खंडवार चर्चा प्रारंभ हुई थी। काफी लंबी चर्चा के बाद कुछ खंडों का स्पष्टीकरण हुआ। कुछ सदस्यों के असहमति को प्रकट करते और हिन्दू संहिता विधेयक का सकारात्मक असर न देख बाबा साहेब ने 27 अक्टूबर, 1951 को इस्तीफा दे दिया था। इसी चर्चा के सिलसिले में महामना मदनमोहन मालवीय और बाबा साहेब आंबेडकर के बीच हुई संवाद को प्रस्तुत किया गया है।
हिन्दू संहिता विधेयक में 6 खंड थे। हिन्दू धार्मिक कानून के तहत नहीं बल्कि एक समान संवैधानिक कानून से शासित होंगे। यह उस समय का सुधारवाद और भारत को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया थी।
भाग एक में यह बताया गया कि किसे हिंदू माना जाएगा और जाति व्यवस्था को खत्म कर दिया गया। गौरतलब है कि यह निर्धारित करता है कि हिंदू संहिता किसी भी व्यक्ति पर लागू होगी जो मुस्लिम, पारसी , ईसाई या यहूदी नहीं है, और जोर देकर कहा कि सभी हिंदुओं पर एक समान कानून के तहत शासन किया जाएगा। बिल का भाग दो विवाह से संबंधित था; भाग तीन दत्तक ग्रहण; भाग चार, संरक्षकता ; भाग पांच संयुक्त परिवार की संपत्ति पर नीति, [ 21 ] तलाक की अनुमति इसने क्षेत्रीय नियमों को खत्म करके "सभी हिंदुओं के लिए संपत्ति के स्वामित्व की एक संयुक्त परिवार प्रणाली की स्थापना की"। अंत में, इसने बेटियों को विरासत के हिस्से आवंटित किए, जबकि विधवाओं को पूर्ण संपत्ति अधिकार दिए, जहां उन्हें पहले प्रतिबंधित किया गया था
पंडित मालवीय – जहां तक हिन्दू कोड बिल का संबंध है इस पर बहस के किसी चरण में मैंने अब तक कोई विचार नहीं रखा है। अब तक मैं आशा करता था कि ऐसा दुर्दिन कभी नहीं आएगा। जब हमे इस तरह के किसी प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार विमर्श करने की जरूरत होगी। इस सदन के और इस सदन के बाहर के कुछेक लोगों की इस कोड को अधिनियमित कराने की आकांक्षा और उत्सुकता को मैं जानता था और हम लोगों में से कई लोग भी जानते थे; पता नहीं क्यों; हमने महसूस किया था कि देश भर में इस बारे में परन्तु जागृत प्रबल जनमत को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा और जब ऐसा विचार किया जा रहा था। तब महसूस हुआ था कि कानून की किताबों में इतने अव्यवस्थित तरीके से, जैसा अब किया जा रहा है, ऐसा कोई विधेयक शामिल करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं। किया जाएगा, जो इस देश के लोगों के समाजिक आधार और समाज के ताने-बाने।को प्रभावित करता हो। इसके विविध आयामों पर इस देश के लोग आंदोलन कर रहे हैं और कई ऐसे लोग जो इस प्रकार का कोई कानून बनाए जाने की संभावना से क्षुब्ध हैं वे इसके विरुद्ध व्याप्त व्यापक आक्रोष और असंतोष की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए जो भी संभव है वह उपाय कर रहे हैं। लेकिन इस आशा और आस्था के साथ कि ऐसी कोई बात जो सिद्धांततः गलत हो, इतनी नृशंस और सामयिक दृष्टि से इतनी बेमतलब की हो, इस सदन के सामने कभी नहीं आएगी. मैं स्वयं कभी किसी सार्वजनिक मंच पर एक बार भी खड़ा नहीं हुआ हूँ और न ही ऐसे किसी आन्दोलन में मैंने भाग लिया है। लेकिन व्यक्ति अपने जीवन में आगे बढ़ता और सीखता है और अब इस बात से मेरा सामना हुआ है कि 300 मिलियन लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले एक विवादास्पद उपाय पर इस सदन में जो अपनी यात्रा के अंतिम चरण में है, विचार किया जाएगा और इतना प्रबल विरोध होने के बावजूद इसे पारित कराने और कानून की किताबों में इसे शामिल कराने का प्रयास किया जाएगा। मैं यह नहीं कहता कि इस विधेयक के सिद्धांत का इस देश में कोई भी व्यक्ति समर्थन नहीं करता है (पंडित मैत्रा केवल कुछेक लोग)। मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि ऐसे कोई लोग नहीं हैं जिनका ईमानदारी से यह अभिमत है कि ऐसा कानून पारित करना समाज के हित में नहीं है। मेरा ऐसे लोगों से कोई विरोध नहीं है। मैं हिन्दू हूँ और बौद्धिक या वैचारिक किसी भी प्रकार की असहिष्णुता मेरे भीतर नहीं है। इसलिए, यदि इस देश के लोग महसूस करते हैं कि इस प्रकार का कोई उपाय या इससे भी अधिक क्रांतिकारी कोई उपाय समाज पर लागू किया जाना चाहिए तो चाहे मैं उनसे सहमत नहीं हूँ या उनकी राय को मैं दुर्भाग्यपूर्ण कहूँ परन्तु मैं उनसे विवाद कदापि नहीं कर सकता हूँ। अतः मैं यह वैचारिक स्थिति नहीं बनाऊंगा कि इस देश में ऐसा कोई नहीं है जो यह विधेयक चाहता हो। लेकिन यह बात जाहिर है कि कुछ लोग हैं जो इस बात को समझना ही नहीं चाहते हैं कि अब तक की स्थिति में अधिकांश लोग न केवल इस विधेयक के पक्ष में नहीं हैं...
पंडित मालवीय – मैं जो उल्लेख करना चाहता हूं वह यह है कि बात चाहे जैसी हो हम एक व्यक्ति से एक बात की और दूसरे व्यक्ति से दूसरी बात की उम्मीद कर सकते हैं अगर आज कोई दुरूह कानूनी बात उठती है तो इसके सभी पहलुओं पर रोशनी डालने के लिए हम अपने विद्वान विधि मंत्री जीसे सहज और कानूनी तौर पर अनुरोध कर सकते हैं आप ऐसीजानकारीऔर ऐसी रोशनी मुझ जैसे अज्ञानी व्यक्ति से हासिल नहीं कर सकते हैं। (एक माननीय सदस्य नहीं नहीं) (दूसरे माननीय सदस्य – यह तो विनम्रता है) इसी प्रकार से और भीकोई विषय हो सकता है परंतु जिसके बारे में मेरे प्रिय और विद्वान मित्र श्री भारती अज्ञानी सिद्ध हो सकते है। इस समाज में लोगों का ऐसा भी वर्ग है, जिनके लिए जीवन का वास्तविक उत्साह , अस्तित्व का वास्तविक उत्साह घंटे दर घंटे, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह उनके सम्पूर्ण अस्तित्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। उन्हीं के लिए सरलता और आसान उपलब्धता के उद्देश्य से। आज के विवाह और विवाह-विच्छेद कानून निर्धारित किए गए हैं। आज एक पुरुष या आज एक स्त्री वैवाहिक संबंध को समाप्त कर सकती है और पलक झपकते ही। और दूसरा शुरू कर सकती है। इस विधेयक के प्रावधानों के अन्तर्गत ऐसा करने के लिए उन्हें महीनों इंतजार करना पड़ेगा, उन्हें न्यायालय जाना पड़ेगा और एक पूरी -दोषों पर मैं अपनी कोई राय नहीं दे प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। इस मामले के रहा हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर खुश होना चाहिए और इस सुधार पर विचार करने के लिए विधि मंत्री जी को बधाई देनी चाहिए, लेकिन मैं व्यवहारिक प्रभावों की बात कर रहा हूँ। व्यावहारिक प्रभाव यह होगा कि गांव-गांव में हत्याएं होने लगेंगी।
डॉ अम्बेडकर : हमारे पास पर्याप्त पुलिस बल है।
पंडित मालवीय : उस व्यक्ति के लिए जो अब भी कमोबेश पशु अवस्था में
श्रीमती रेणुका राय : प्रश्न ।
पंडित मालवीय : मैं किसी का अपमान करने की भावना से यह सब नहीं कह रहा हूँ। मैं तो केवल एक समाजशास्त्री होने के नाते ऐसा कह रहा हूँ। यदि वे पुरूष अपने रास्ते में नई रुकावटें देखते हैं, जिनके वे आदी नहीं हैं, जिनकी उन्हें आदत नहीं है और यदि वे अपने आपको नाकामयाब पाते हैं, यदि उनमें इतना संयम नहीं है उनमें इतनी प्रगति और नियंत्रण नहीं है कि वे कानून बनने तक इंतजार करें, और समाज को, जिसके अस्सी प्रतिशत के बारे में इतना कुछ कहा जा चुका है, ऐसी उथल-पुथल का सामना करना पड़ेगा जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जाती है। इसीलिए मैंने कहा कि इस विधेयक का स्वागत वे लोग नहीं करेंगे जो मेरी तरह चाहते हैं कि युगों-युगों से चली आ रही परम्पराओं का ससम्मान किया जाए और उनका अनुसरण किया जाए, बल्कि इसका स्वागत वे लोग भी नहीं करेंगे, जो इससे बड़े पैमाने पर और तुरन्त प्रभावित होने जा रहे हैं। अतः मैं ससम्मान निवेदन करना चाहता हूँ कि इस सदन के कुछ सदस्यों में भी, जो इस विधेयक के प्रावधानों के बारे में इतने मुखर और उत्साहित रहे हैं, उक्त लोगों की तुलना शायद ही कोई अन्तर है।
डॉ अम्बेडकर : मैं भी नहीं ।
पंडित मालवीय : माननीय विधि मंत्री तो कदापि नहीं ! माननीय विधि मंत्री जी की तुलना मनु जैसे ऋषि से की जाती है और मुझे एक श्लोक स्मरण हो आता है (व्यवधान) किसी ने मुझसे पूछा है कि मुझे ईर्ष्या क्यों है ? दुर्भाग्य से या सौभाग्य से का बना ही नहीं हैं कि मुझे माननीय विधि मंत्री जी से ईर्ष्या करने मैं ऐसी मिट्टी का सौभाग्य प्राप्त हो।
डॉ. अम्बेडकर; एक ब्राह्मण को एक अछूत से भला ईर्ष्या कैसे हो सकती है?
पंडित मालवीय : बेहतर होगा कि आप उन्हें बताएं ! मुझे एक श्लोक याद जाता है जिसमें कुम्भकर्ण रावण से पूछता है (व्यवधान)। यदि माननीय सदस्य सुनें कि श्लोक में क्या कहा गया है तो वे स्वयं को एक बेहतर मनुष्य महसूस करेंगे। कम्मकर्ण रावण से पूछता है कि सीता के मन को जीतने के प्रयास में उसके सामने जाते हुए अपना रूप परिवर्तित करने की समस्त मायावी शक्तियों से वह राम का ही रूप क्यों नहीं घर लेता और इस पर रावण कहता है समस्या यह है कि जब श्री मैं राम का रूप ले लेता हूँ, या उसका स्मरण करता हूँ तो कोई कलुषित विचार मेरे मन में आना ही असंभव सा हो जाता है ! (सुनिए, सुनिए) (माननीय सदस्य : कृपया श्लोक दोहराएं) मैं अनेक श्लोक दोहराऊंगा यदि माननीय सदस्य इसके लिए मुझे समय दें। इसी प्रकार मनु के बारे में- मैं कह रहा था कि यदि हम इस सदन के सदस्यों से किसी बात की उम्मीद कर सकते हैं- निःसंदेह, कुछ ही मिनटों में उनके विवाह विच्छेद पर बहस कर लेने की कोई संभावना नहीं हो सकती है- हम उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वे 80 प्रतिशत लोग भी यही करेंगे। अतः इस मामले में हमें सावधानी बरतनी चाहिए। यदि कोई उस पहलू का खण्डन करता है तो मैं उसके विचार सुनना चाहूँगा। इसलिए मैं अपनी बात दुहराता हूँ कि इस विधेयक को न केवल लोगों के पुरातनपंथी वर्ग ने अस्वीकार कर दिया है, बल्कि इस देश के निवासियों के एक बढ़े तबके ने भी अस्वीकार कर दिया है (कुछ माननीय सदस्यः नहीं, नहीं) कोई कहता है कि 'जो कारण आपने बताए हैं उनसे इतर कारणों से। यह हो सकता है, परन्तु बात वही है कि कारण चाहे जो कुछ भी हो, लोगों के एक बड़े तबके ने इसे स्वीकार नहीं किया है। अब मैं इस विधेयक की बात करूंगा। यह कहा गया है कि चूँकि इस विधेयक के केवल भाग II पर विचार किया जाना है अतः अब यह जरूरी नहीं कि इसे हिन्दू कोड बिल कहा जाना चाहिए। चाहे इसमें दूसरे अंश अपवर्जित किए गए हों अथवा न किए गए हों, यदि इसे हिन्दू कोड बिल नहीं कहा गया होता तो मुझे आपत्ति नहीं थी। हमने अपने संविधान में अपने देश को 'इण्डिया अर्थात् भारत' कहा है। इस विधेयक को 'भारतीय कोड क्यों नहीं कहा गया? मैं यह सवाल नहीं उठा रहा हूँ कि यह सभी पर लागू होना चाहिए। मेरा इससे कोई संबंध नहीं है। मैं यह उस आधार पर नहीं कह रहा हूँ। परन्तु इस देश को "भारत" कहा जाता तो इसका अर्थ और मंतव्य भिन्न होता। जब हम "हिन्दू कोड" कहते हैं तो उस शब्द से जो अभिप्राय है। उसकी तस्वीर सामने आती है। अतः हमें समझना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि "हिन्दू" शब्द से क्या अभिप्राय है। इस शब्द को एक वाक्य में स्पष्ट करना बहुत ही कठिन है। परन्तु हिन्दू धर्म की एक विशेषता है जिसे उसकी विशिष्टता कहा जा सकता है तो वह है इसके तंत्र की अपार सहिष्णुता और उदारता। खुद हमारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी हिन्दू धर्म की बात करते हुए कहा था कि इसके बारे में कहा जा सकता है कि यह 'जियो और जीने दो' के सिद्धांत पर आधारित है। हम हिन्दुओं के बीच परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं। हमारे पास उन्नत पौराणिक साहित्य और छह दार्शनिक शाखाएं हैं, जिनमें से एक मैं जैमिनी, शंकर और कुमारिल जैसे दार्शनिकों की कुशाग्र बुद्धिमत्ता एवं विदग्धता हैं- मैं इन मनीषियों की प्रशंसा में कोई विशेषता प्रयुक्त नहीं कर रहा हूँ क्योंकि उनके लिए उपयुक्त शब्द ढूँढ पाना दुष्कर होगा- तो दूसरी ओर इसमें एक दूसरी प्रणाली है जो इतनी कुंठित है, इतनी अपरिष्कृत हैं जो अपनी आंखों से देखे बिना किसी बात को देखने और समझने से भी इंकार करती है। बेचारा चार्वाक मुंह के सामने हथेली रखे है और इस बात से इंकार करता है कि उसका पृष्ठभाग भी अस्तित्व में है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष नहीं...
डॉ. एम. एम. दास : यह व्यवस्था का प्रश्न है। यहां हम हिन्दू दर्शन और प्राचीन ऋषियों पर कोई भाषण सुनने नहीं आए हैं।
उपाध्यक्ष महोदय : आर्डर, आर्डर। मैं देख रहा हूँ कि माननीय सदस्य बहुत अधीर हैं। विरोधी दृष्टिकोण पर भी उन्हें विचार करना चाहिए। मैंने उम्मीद नहीं की थी कि माननीय सदस्य टोकाटाकी करते रहेंगे। मैंने बार-बार कहा है कि यह एक विवादास्पद विषय है और हम पर्याप्त समय दे रहे हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि अनेक माननीय सदस्य बोल चुके हैं। मैं अभी बहस का समापन नहीं कर रहा हूँ। टोकाटाकी जितनी कम होगी उतनी ही जल्दी वे अपनी बात पूरी करेंगे। अन्यथा वे और समय मांगेंगे।
पंडित मालवीय : मैं तो केवल हिन्दुओं के बीच व्याप्त व्यापक विविधता और दार्शनिक एवं तात्विक उदारता का उल्लेख कर रहा था। मैं समझता हूँ कि किसी को भी किसी बात के दार्शनिक पहलू के बारे में बात करने की आवश्यकता नहीं है। काश, सब यह महसूस कर पाते कि यह सब अनावश्यक है। लेकिन ऐसी टिप्पणियों से प्रतीत होता है कि दुर्भाग्यवश यह अत्यंत आवश्यक हैं। मैं उल्लेख कर रहा था। कि एक ओर जहां शुद्ध वेदांत है तो दूसरी ओर दार्शनिक चार्वाक हैं जो पांच मकारों में लिप्त हैं। मैं इन पांच मकारों का वर्णन नहीं करूंगा.......कुछ
माननीय सदस्य : बोलिए, बोलिए।
पंडित मालवीय : क्योंकि शालीनता के अपने कारणों के अलावा, मैं समझता हूँ कि संभवतः वे सदस्य जो दार्शनिक विचारों में गहरी दिलचस्पी न रखते हों, परन्तु उससे अवगत जरूर होंगे।
उपाध्यक्ष महोदय : वह सब इस विषय पर हो रही चर्चा में उपयोगी किस प्रकार
पंडित मालवीय : मैं यह बताने का प्रयास कर रहा था कि
डॉ. अम्बेडकर : मैं कहता हूँ कि 'मकार' उपयोगी हैं।...
उपाध्यक्ष महोदय : क्या यह किसी भी प्रकार से 'मकार' के खिलाफ हैं।
पंडित मालवीय : यह वैविध्य तो हमारे प्रमुख दर्शनों में भी है। इनमें आस्तिक दर्शन भी है और नास्तिक दर्शन भी । हमारे कुछ दर्शनों में परब्रह्म एवं ब्रह्म तथा जीव के एकेष्वरवादी सिद्धांत की बात कही गई है और कुछ में अब्रह्म एवं अवेद तथा निरीश्वर रूपी नास्तिक दर्शन की बात की गई है। हमारे यहां पर अन्य क्षेत्रों में भी इसी प्रकार की मतभिन्नता और विविधता मौजूद है। आज कुछ लोगों के लिए हमें यह स्मरण कराना फैशन बन गया है कि कुछ ऋषि एवं अन्य कुछ लोग गौमांस का भक्षण भी करते थे। इसके साथ ही हिन्दू धर्म में गाय सार्वभौमिक रूप से आदरणीय है। हिन्दू समाज में विवाह समारोह उत्साहपूर्वक संपन्न किया जाता है; तो हमारे हिन्दू समाज में युवा संन्यासी भी हैं। हिन्दू समाज में अतिसंयमी एवंकल्पनातीत ढंग से कठिन तपस्या भी है; तो हिन्दू समाज में अत्यंत विलासप्रियता एवं अत्यधिक इन्द्रिय विषय सुख भी हैं। हिन्दू समाज में ब्राह्मण भी है और चाण्डालभी; वह चाण्डाल नहीं जिसके लिए केवल निषेध और प्रतिबंध हैं बल्कि वह चाण्डाल जिसके लिए अधिकार एवं विशेषाधिकार भी निर्धारित हैं, ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मणों के लिए हैं (व्यवधान)।
उपाध्यक्ष महोदय : किसी व्यक्ति को अब चाण्डाल या अछूत कहना संविधान के अन्तर्गत अपराध है।
पंडित मालवीय : महोदय, कई वक्ता यहाँ एक साथ बोल रहे हैं इसलिए मैं आपको सुन नहीं पा रहा हूँ।
उपाध्यक्ष महोदय : किसी संवैधानिक पहलू को छोड़कर चाण्डाल का उल्लेख करना अब उचित नहीं है। इसे संविधान के अंतर्गत अपराध करार दिया गया है।
डॉ. देशमुख : वह तो केवल इतिहास का संदर्भ दे रहे हैं।
उपाध्यक्ष महोदय : कुछ इतिहास हो सकता है परन्तु समस्त इतिहास उल्लेख योग्य नहीं होता। बेहतर होगा कि कुछ इतिहास हम भुला दें।
पंडित मालवीय : मैं इसका उल्लेख व्यक्ति के लिए नहीं परन्तु अतीत में प्रचलित प्रणाली के तौर पर कर रहा था। बहरहाल, आपने जो कुछ भी कहा है मैं उसका अनुपालन करूंगा।
डॉ. अम्बेडकर : आप क्यों करेंगे ?
पंडित मालवीय : माननीय विधि मंत्री जी पूछते हैं कि मैं क्यों करूंगा। क्योंकि मैं कानून का पालन करने वाला सदस्य हूँ, न कि वह जिसका उल्लेख मैंने किया था।
मैं निवेदन कर रहा था कि अनेक प्रकार की व्यवस्थाएं हिन्दू समाज में एक साथ सम्मान और शांतिपूर्वक चल रही थीं। यह हिन्दू धर्म की महती विशेषता रहती आई है। परन्तु वह उदारता और वह सहिष्णुता संभव थी क्योंकि इन समस्त बातों का आधार कुछ मूल सिद्धांत और आधारभूत तत्व थे जिनका सबसे पहले निर्धारण एवं संविधान किया गया था और जिनका पालन किसी प्रश्न या विवाद के बिना युगों-युगों से किया जाता रहा था; जो कोई संकीर्ण साम्प्रदायिक सिद्धांत अथवा रस्में नहीं थी; न ही कोई विवादास्पद बातें या नियम; बल्कि वे कतिपय आधारभूतथे, जिन्हें समाज के निरन्तर, स्थिर और सुचारू अस्तित्व की अनिवार्य शर्त माना जाता था। इन सिद्धांतों को किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है परन्तु यही एक चिरस्थायी आधारशिला है जिस पर एक स्वस्थ समाज टिका होना चाहिए। इस देश में इन सिद्धांतों को 'सनातन' नाम दिया गया था। सनातन से सदैव परिवर्तनशील और नित्य नूतन अभिप्रेत नहीं है जैसा कि एक विद्वान वक्ता ने कल कहा था; बल्कि इससे वह अभिप्रेत है जो सदैव अस्तित्व में रहा है। इसलिए यदि हम हिन्दू समाज की संरचना में कोई भी परिवर्तन लाने का कार्य शुरू करते हैं, तो हमें सावधानी बरतनी होगी कि हम चाहे इसके बाह्य रूप और तामझाम से, पत्तियों और शाखाओं से चाहे जितनी छेड़छाड़ कर लें लेकिन वृक्ष की जड़ पर ही कुल्हाड़ी न चला दें; उसे झिंझोड़ न दें; हम उन आधारभूत तत्वों और मूल सिद्धांतों को उखाड़ न दें, जिन पर समाज आधारित है और जिन्होंने समय के झंझावातों से इसकी रक्षा की है क्योंकि विश्व में मनुष्य को ज्ञात किसी अन्य समाज की रक्षा किसी और ने नहीं की है। इसलिए हमें सर्वप्रथम वे मूलभूत सिद्धांतों को समझना होगा।
पंडित मालवीय : इस बात को देखते हुए कि यह विधेयक राज्यों में प्रकाशित नहीं किया गया है और संभवतः उन पर अब लागू होने जा रहा है, इस घोर अन्याय का निवारण करने के लिए कुछ किया जाना चाहिए। इसे कैसे किया जा सकता है, शायद इसकी समुचित सलाह विधि मंत्री जी दे सकते हैं। जैसा कि मैंने कहा इस समय कोई अव्यावहारिक सैद्धांतिक सुझाव देने का कोई उपयोग नहीं है। इसलिए अब मैं यह नहीं कहता कि यह विधेयक सूचनार्थ परिचालित या प्रकाशित किया जाना चाहिए। लेकिन, शायद हम कोई रास्ता ढूँढ सकते हैं जिससे कम से कम कुछ सीमा तक यह कठिनाई दूर हो। और मैं विधि मंत्री जी के विचारार्थ एक सुझाव दूँगा - एक ऐसे व्यक्ति के रूप में नहीं जो इस विधेयक के विरोध में है, बल्कि ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसे मेरे विचार से इस मुद्दे पर अपने साथ खड़ा पाएंगे कि इस देश के एक विशाल भाग के लोगों को किसी प्रकार की स्पष्ट और कानूनी शिकायत नहीं होनी चाहिए। मैं उन्हें सुझाव देना चाहूँगा कि वे शेष राज्यों के लिए न सही, कम से कम उन राज्यों के संबंध में ही इस प्रस्ताव पर विचार करें। जिस संशोधन की सूचना मैंने दी है और जिसे मैंने प्रस्तुत किया है उसमें कहा गया है कि यह विधेयक उस पर लागू किया जाना चाहिए जिसके राज्य में जनमत संग्रह कराया गया है और उस जनमत संग्रह के परिणाम के अनुसार उस राज्य की विधानसभा ने निर्णय लिया हो कि यह विधेयक उन पर लागू होना चाहिए। मैं उस पर यथासमय बात करूंगा। लेकिन अब मेरा सुझाव यह है कि – चाहे मेरा संशोधन पूर्णतः स्वीकार किया जाए अथवा न किया जाए, विधि मंत्री जी विधेयक में यह प्रावधान करने के औचित्य पर विचार करेंगे कि देश के उन भागों के संबंध में जिन्हें तब भारतीय राज्य कहा जाता था, जहां यह विधेयक प्रकाशित नहीं किया गया था, यह विधेयक प्रवृत्त नहीं होना चाहिए जब तक कि विधिवत प्रकाशन और परिचालन के बाद उन भागों के विधान मण्डलों में इस पर विचार न कर लिया जाए और विधानमंडलों ने निर्णय लिया हो कि यह उन पर लागू होना चाहिए। इससे कम से कम उस गंभीर चूक, गंभीर गलती का निवारण हो जाएगा। जो आज हमारे सम्मुख है।
श्री मती रेणुका रे : और हम आने वाले हजार वर्षों के लिए ब्राह्मणवादी समाज की नादिरशाही को बनाए रखे रहे।
पंडित मालवीय : मेरी सम्मानीय बहन कहती है कि "आइये, हम आने वाले हजारवर्षों के लिए ब्राह्मणवादी समाज की नादिरशाही को बनाए रखे रहें।" मैं केवल यही कामना और प्रार्थना कर सकता हूँ कि हजार वर्षों के लिए ही नहीं अपितु चिरकाल तक केवल मेरी प्यारी बहन ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व का उत्कर्ष ब्राह्मण सिद्धांत की अवधारणा के स्तर तक हो यह वह सिद्धांत है जो सबके लिए निष्पक्षता और न्याय का पक्षधर है, जो स्वयं के अधिकारों और विशेषाधिकारों पर जोर देने के बजाए दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्यों और कर्मों के निष्पादन का पक्षधर है, जो विवर्धन के जीवन का नहीं, आत्महित के जीवन का नहीं, निम्न विचारों और निम्न जीवन का नहीं बल्कि उदात्त एवं उच्च सिद्दांतों और व्यावहारिक निःस्वार्थता का आदेश देता है, जहां समाज के किसी और सदस्य के बजाए स्वयं ब्राह्मण और सचमुच न केवल ब्राह्मण, बल्कि समाज का प्रत्येक सदस्य आत्मत्याग करता है आत्म उपेक्षा करता है, दुःखों का वरण करता है ताकि अन्य लोग आगे बढ़ें, समृद्धि प्राप्त करें और जीते रहें। मैं जानता हूँ कि मेरे माननीय मित्रों में से कुछेक इस अवधारणा के सौन्दर्य और उदात्तता से अनभिज्ञ हैं (सुनिए, सुनिए) मैं आशा और प्रार्थना करता हूँ समाज और मानवता का अभी भी नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और वैचारिक उत्कर्ष होगा जहाँ ब्राह्मण एक सच्चा ब्राह्मण होगा और समाज के सभी सदस्यों का उत्कर्ष उस के स्तर तक होगा। मैं इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर रहा हूँ कि और दूसरे लोगों की तरह ब्राह्मण की अवनति हुई है...... युग
श्रीमती दुर्गाबाई : कथनी और करनी दोनों में।
श्री आर. के. चौधरी : महिला सदस्य टोकाटाकी क्यों कर रही हैं ?
पंडित मालवीय : वे मेरी बहन है और हम चाहे अलग-अलग माता-पिता से उत्पन्न हुए हों, परन्तु वे मेरे लिए सगी बहन के समान हैं क्योंकि हम एक ही संस्था से उत्पन्न हुए हैं। मेरी बहन कहती है कि ब्राह्मण को कथनी और करनी दोनों में ऊँचा उठना चाहिए। मैं पूरे हृदय से और मेरा रोम-रोम प्रार्थना करता है कि ऐसा ही हो और इसके साथ दो अन्य लोगों के साथ भी ऐसा ही हो।
डॉ. अम्बेडकर : इस बीच आइये, हम हिन्दू कोड पर बात करें।
पंडित मालवीय : यदि हम उस शुद्ध और उदात्त ब्राह्मणीय आदर्श तक ऊंचा उठ सकें तो हिन्दू समाज की समस्त पीड़ा और दुःख न केवल समाप्त हो जाएंगे बल्कि वह फिर से मानवता में अग्रणी बन जाएगा जैसा कि एक समय वह था; उस समय नहीं जब समाज के किसी वर्ग द्वारा दूसरे पर अन्याय और क्रूरता की जाती थी बल्कि उस समय जब प्रत्येक सदस्य....
पंडित मालवीय : मुझे नहीं लगता है कि यह संभव होगा। महोदय मैं आपको बताना चाहता हूँ कि यहां मेरे सामने कागजों और पुस्तकों का ढेर पड़ा है, जिन्हें मैं अब तक छू भी नहीं सका हैं। मैं बड़ी ईमानदारी से कह रहा हूँ कि मैं अपने विचारों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बातों तक ही सीमित रखने का प्रयास कर रहा हूँ। यदि मैं हर एक मुद्दे को विस्तार से उठाना चाहता, तो बात दूसरी थी। मैं सबसे महत्वपूर्ण बातों तक ही सीमित रहने का प्रयास करूंगा। मैं इस मामले को बड़ी गहराई और बड़ी शिद्दत से महसूस करता हूँ और यह विषय इतना महत्वपूर्ण और व्यापक है कि इसे आज समाप्त कर पाना मेरे लिए संभव नहीं है। लेकिन महोदय, सब कुछ आपके ही हाथ में है।...
उपाध्यक्ष महोदय : माननीय सदस्य और कितना समय लेना चाहते हैं?
डॉ. अम्बेडकर : पाँच दिन ।
पंडित मालवीय : विधि मंत्री जी कहते हैं पांच दिन - मुझे पांच दिन में कोई आपत्ति नहीं है।
श्री सोंधी (पंजाब) : चुनौती स्वीकार है।
श्रीमती दुर्गाबाई : सदस्य बंधु को मेरा सुझाव है कि उनकी थीसिस छपवाई और बांटी जाएगी और समझा जाएगा कि वह पढ़ ली गई है।
माननीय सदस्यगण : नहीं, नहीं।
पंडित मालवीय : जब मेरी माननीय बहन इस देश का संविधान बनाती हैं और संसद के नियम भी बनाती हैं तब शायद हम यह प्रक्रिया भी अपना लेंगे। सरदार बी. एस. मान : वह दिन भी दूर नहीं है।
पंडित मालवीय : मैं अनावश्यक समय नहीं लूँगा, लेकिन मैं अपनी बात आज समाप्त नहीं कर पाऊंगा।
उपाध्यक्ष महोदय : मुझे बताएं कि अब से लेकर कितना समय लेंगे।
डॉ. अम्बेडकर : पांच दिन न सही, पांच घंटे।
पंडित मालवीय : मुझे बहुत कुछ कहना है, वह सब मैं आपके मार्गदर्शन में कहूँगा। यदि मुझे इजाजत दें तो यह मामला आपके सामने खुला रखूँगा। मैं आपके पास आने और अपनी सामग्री आपको दिखाने के लिए तैयार हूँ और आप इस सदन के सभी सदस्यों के विशेषाधिकारों के अभिरक्षक होने के नाते यह बात आप पर छोड़ता हूँ कि मुझे बताएं कि मुझे कितना समय लेना चाहिए।
उपाध्यक्ष महोदय : किसी मुद्दे पर चल रही बहस पर अंकुश लगाने या उसे घटाने का मेरा कोई मंतव्य नहीं है। माननीय सदस्य ने दो घंटे पहले ही ले लिए हैं और छह दिनों तक हम बहस भी कर चुके हैं। जहाँ तक पुस्तकों और सन्दर्भ साहित्य का संबंध है, उल्लेख माननीय सदस्य ने किया था, वह सब विस्तृत विचार-विमर्श के लिए है और वह अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देंगे। दूसरे और खण्ड भी हैं। जिन पर वे अपना ज्ञान कोश हमसे साझा कर सकते हैं। जहां तक इस अवसर का संबंध है आधा घंटा और माननीय सदस्य के लिए पर्याप्त होना चाहिए।
पंडित मालवीय : मेरा विचार है कि यह पर्याप्त नहीं होगा। यदि आप इजाजत दें तो मैं दूसरे तरीके से कहता हूँ, मैं यथासंभव संक्षेप में कहने का प्रयास करूँगा। यदि आप चाहते हैं कि मैं संक्षेप में बात करूँ तो कल मैं केवल दो मुद्दों अर्थात् विवाह और विवाह-विच्छेद तक ही सीमित रहूँगा और जितनी जल्दी हो सके, अपनी बात समाप्त करूंगा। हो सकता है कि मुझे...
डॉ. अम्बेडकर : पांच घंटे लगें।
पंडित मालवीय : वे पांच दिन से पांच घंटे पर आ गए हैं। महोदय क्या आपका विचार है कि यह अनुचित है ? मैं अपनी बात संक्षेप में कहने का प्रयास करूँगा। मैं मजाक में नहीं कह रहा हूँ। मैं यथासंभव संक्षेप में अपनी बात कहूँगा, शायद दो या ढाई घंटे में |
पंडित मालवीय (उत्तर प्रदेश) : कल जब मैंने अपनी बात बंद की थी तब आपने कृपापूर्वक पूछा था कि मुझे और कितना समय चाहिए। मैंने कोई समय-सीमा बताने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी और मैंने आपसे मुझे इस आधार पर अपनी बात जारी रखने का अनुरोध किया था कि मैं यथासंभव कम से कम समय में अपनी बात समाप्त करूँगा। आपने कृपापूर्वक एक सीमा निश्चित की थी कि मुझे लगभग ढाई घंटे या उससे ज्यादा नहीं लेना चाहिए।
श्री सिद्धवा (मध्यप्रदेश) : महोदय, आपने आधा घंटा कहा था।
पंडित मालवीय : मैंने अभी सुना ....
उपाध्यक्ष महोदय : मैं केवल एक टिप्पणी कर सकता हूँ। कल माननीय विधि मंत्री जी ने परिहास में दिए गए एक सुझाव में माननीय सदस्य को पांच दिन मांगने के लिए प्रोत्साहित किया था।
विधि मंत्री (डॉ. अम्बेडकर) : वे पांच दिन चाहते थे- मैंने पांच घंटे का सुझाव दिया था।
उपाध्यक्ष महोदय : जब मैंने पूछा कि माननीय सदस्य लगभग कितना समय और लेंगे, तो विधि मंत्री जी ने मजाक में कहा था कि पाँच दिन । मैं आधे घंटे का सुझाव दे रहा था और माननीय सदस्य और ज्यादा समय चाहते थे। अब मैं करना यह चाहता हूँ कि........
पंडित मालवीय : क्या मैं..
उपाध्यक्ष महोदय : मैं माननीय सदस्य के साथ पर्याप्त न्याय करूंगा। क्या मैं अब जान सकता हूँ कि माननीय विधि मंत्री जी उत्तर देने में तकरीबन कितना समय लेंगे?
(नए पृष्ट से)
पंडित मालवीय : आपके मुखारविन्द से निकली टिप्पणियों से मैं पूर्णतः सहमत हूँ और में कोई शिकायत नहीं कर रहा था। में केवल उल्लेख कर रहा था कि जो कारण आपने बताए हैं उन्हें छोड़कर जितना समय मुझे लेना चाहिए उससे अधिक समय नहीं लूँगा। यही निवेदन में करना चाहता हूँ। इससे इस सदन के अन्य अनेक सदस्यों को भी कुछ कहने का अवसर मिलेगा, क्योंकि कल मैंने देखा कि वे कुछ कहने का अवसर प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं। मैं यह बात शिकायत के तौर पर नहीं कह रहा हूँ, लेकिन में निवेदन कर रहा था कि मुझे दरअसल जो सब कहना था उसे छोड़ रहा हूँ और अब में सीधे एक या दो मुद्दों पर आना चाहता हूँ।
कल जब बैठक विसर्जित हुई थी, में नए संविधान में कृषि भूमि को समवर्ती सूची में शामिल करके इस विधेयक का दायरा बढ़ाए जाने के बारे में जो बात मैं कर रहा था उसे छोड़ देता हूँ। मैं केवल दूसरे महत्वपूर्ण पहलू की बात सरसरी तौर पर करूंगा अर्थात् जो विधेयक हमारे समक्ष अभी है इसमें इतना बदलाव किया गया है कि जब इसे पहली बार प्रस्तुत किया गया था, उसके मुकाबले इसे पहचाना ही नहीं जा सकता। यह नियम है कि चयन समितियों को अपनी रिपोर्टों के अन्त में उल्लेख करना चाहिए कि उन्होंने विधेयक में इतना ही परिवर्तन किया है कि उसका वास्तविक स्वरूप परिवर्तित नहीं हुआ है और यह कि संशोधित विधेयक का पुनः परिचालन अथवा पुनः प्रकाशन जरूरी नहीं है। इससे यह सिद्धांत सिद्ध होता है कि यदि चयन समिति विधेयक में पर्याप्त परिवर्तन करती है तो इसे पुनः प्रकाशित और पुनः परिचालित किया जाना चाहिए। मेरा निवेदन है कि कानून तैयार करने संबंधी मामलों में हमें नियमों की पुनीतता का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि नियम शांतिपूर्ण क्षणों में और निष्पक्षतापूर्वक विचार करके तैयार किए जाते हैं, न कि किसी घटना, विषय या किसी दृष्टिकोण के बरक्स, और कानून बनाते समय विधिवत सावधानी, विचार और चौकसी बरतने की बुनियादी जरूरत भी सुनिश्चित की जाती है। अतः ऐसे नियम अत्यन्त बहुमूल्य होते हैं और किसी भी देश की स्वस्थ संसदीय परम्पराओं और संस्थाओं के लिए वह दुर्दिन ही होगा यदि हम किसी विशेष मुद्दे या विशेष घटना को अपने अभिमत की सुविधानुरूप उन्हें आसान बनाने लगेंगे। अतः मैं अब यह महसूस करता हूँ कि इस विधेयक में इतना बदलाव कर दिया गया है कि अब संवैधानिक तौर पर इस पर या इसके किसी भाग पर आगे बढ़ने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि इसे उस प्रक्रिया का अनुपालन किए बिना तैयार कर दिया गया है। उस मुद्दे को भी मैं यहीं छोड़ता हूँ। मैं अब केवल एक या दो बातों का उल्लेख और करूंगा, और अपना स्थान ग्रहण करूँगा। अनेक मित्रों ने, जो इस विधेयक के समर्थक हैं, कहा था कि यह विधेयक स्मृतियों और धर्मशास्त्रों के सिद्धांतों के अनुसार तैयार किया गया है। यदि मेरे पास समय होता तो इस दावे का खोखलापन सिद्ध करने के लिए मैं विभिन्न स्मृतियों और धर्मशास्त्रों के अंश उद्धृत करता। अब मैं यह नहीं कर सकता हूँ। इसलिए अब मैं सीधे इस में शामिल दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर आता हूँ - एक तो सपिण्ड प्रतिबंधों के स्तर का प्रश्न और दूसरा प्रश्न कि क्या हिन्दुओं में विवाहित महिला का पुनर्विवाह हो सकता है। इन दोनों मुद्दों पर कुछ स्मृतियों को उद्धृत किया जा चुका है। जहां तक सपिण्ड संबंध का प्रश्न है, यह तर्क प्रस्तुत किया गया है कि समय-समय पर स्मृतियों में विभिन्न सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं, कि एक स्मृति में एक बात कही गई है तो दूसरी स्मृति में दूसरी बात कही गई है और इससे यह निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया गया है कि यह इतना महत्वपूर्ण मामला नहीं था कि इसे बदला नहीं जा सकता था. लेकिन यह कि समय-समय पर उस युग के अभिमत और पद्धति के अनुसार विभिन्न स्मृतियों में विभिन्न उद्धरण दिए गए हैं। कल ही मैंने उल्लेख किया था कि धर्मशास्त्रों के मामले में उनकी व्याख्या के कुछ नियम हैं उनके सिद्धांतों और विधियों का स्पष्ट रूप से निर्धारण किया गया है। यह निर्धारण किया गया है कि धर्मशास्त्र का निर्वाचन मीमांसा के नियमों को प्रयुक्त करके ही किया जा सकता है। उनके निर्धारण के लिए चौदह स्रोतों का उपयोग करना पड़ता है। इन सबका उल्लेख किया गया है और इसलिए यदि कोई प्रामाणिक रूप से इन बातों को समझना चाहता है तो उसे उस मामले की गहराई तक जाना चाहिए। लगभग प्रत्येक स्मृति और धर्मशास्त्र में पितृकुल की सात पीढ़ियों और मातृकुल की पांच पीढ़ियों को सपिण्ड उन्हें छोड़ने का विधान है। किसी ने इसका खण्डन नहीं किया है। यह कहा गया है कि कुछ स्मृतियों में सात और पांच के स्थान पर पांच और तीन का उल्लेख है। मेरा अनुमान है कि इस प्रयोजनार्थ पैथीनसी स्मृति का अध्ययन किया गया है। यह मानते हुए कि सदन के सदस्य इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहते हैं कि क्या स्मृति में पांच और तीन का विधान है, मैं इस मुद्दे को स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा। पैथीनसी स्मृति........
उपाध्यक्ष महोदय : मुझे नहीं लगता कि माननीय विधि मंत्री जी इस मामले के बारे में मताग्रही हैं।
डॉ. अम्बेडकर : जब समय आएगा, हम इस पर विचार करेंगे ।
पंडित मालवीय : मैं यह सिद्ध करने के लिए केवल एक उदाहरण दे रहा हूँ कि किस प्रकार इस विधेयक के समस्त प्रावधान पूर्णतः भ्रान्त धारणा पर आधारित हैं। पैथीनसी स्मृति में कहा गया है कि
पंचमीं मातृतः परिहरेत् सप्तमीं पितृतः
अब तक यह स्पष्ट है- कि मातृकुल से पांच पीढ़ियां और पितृकुल से सात पीढियाँ। पैथीनसी स्मृति में भी अब तक यही कहा गया है। आगे इसमें कहा गया है कि:
त्रीन् मातृतः पंचपितृतो वा ।
इसमें दूसरा विचार दिया गया है और कहा गया है कि मातृकुल से तीन और पितृकुल से पाँच। यदि मेरे पास समय होता तो मैं अन्य सभी स्मृतियों को उद्धृत करके अपने कुछ मित्रों के इस वक्तव्य का खण्डन कर देता कि स्मृतियों में अलग-अलग नियम निर्धारित हैं- किसी में सात और पांच तो किसी में पांच और तीन; और इनमें से चयन हमें करना है। मीमांसा में इन पुस्तकों की व्याख्या करने की विधि निर्धारित की गई है। हिन्दू कानून का आधार ही इस तथ्य पर टिका है कि नियम श्रुति से आता है। श्रुतियां स्वतः प्रमाण हैं। श्रुतियों में जो कुछ लिखा है वह स्वयंसिद्ध है और आगे और कोई तर्क-वितर्क आवश्यक नहीं है। स्मृतियां परतः प्रमाण हैं। उनके पास वह प्राधिकार नहीं है क्योंकि वे श्रुतिमूल हैं। वह उस श्रेणी में आती हैं, जिसका प्राधिकार श्रुतियों से व्युत्पन्न है। अब यह स्पष्ट है कि यदि सभी स्मृतियों में एक ही स्रोत प्रयुक्त किया गया है तो आपत्ति भी यही होगी- और मेरे विचार से यह स्वाभाविक आपत्ति भी है- कि यदि आपका दावा है कि उन सभी के उद्गम का स्रोत एक ही है तो उनमें परस्पर विरोधी बातें कैसे हो सकती हैं। हम इस आपत्ति का अनुमान कर सकते हैं। मीमांसा में आगे कहा गया है कि कुछ मामलों में ऐसा भी हो सकता है कि स्वयंश्रुति ही अविकल्प हो अर्थात् श्रुति में दो विकल्प निर्धारित किए गए हों, कि कोई बात यह हो सकती है या अन्य । श्रुतियों में भी इस स्वरूप के अनेक दृष्टांत हैं
पंडित मालवीय : यह स्पष्ट है कि यह पत्यौ नहीं हो सकता है। मेरा निवेदन यह था कि जिस आधार पर यह इमारत खड़ी की गई है उस आधार का अस्तित्व ही नहीं है और प्रयुक्त शब्द का अर्थ पति नहीं है; यह पत्यौ नहीं है बल्कि वह व्यक्ति है जो पति बनने वाला है, अर्थात् पतौ । इस प्रकार शास्त्रों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे ज्ञात होता है कि एक विवाहित हिन्दू स्त्री पुनः विवाह कर सकती है।
(नए पृष्ट से)
मैं सदन का अधिक समय नहीं लेना चाहता हूँ। मैं कई बातें कहना चाहता था। परन्तु मैंने जो उल्लेख किया, उसे ध्यान में रखते हुए मैं उन लोगों की इच्छा के विरुद्ध नहीं जाना चाहता, जिनकी आकांक्षाएं और शब्द ही हमारे लिए कानून हैं। इसलिए मैं और अधिक समय नहीं लेना चाहता, हालांकि मैं और कई बातें कहना चाहता था। इन दोनों उदाहरणों के माध्यम से मैंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि जिस पर हिन्दू कोड आगे बढ़ रहा है वह आधार ही पूर्णतः भ्रामक है।
एक और बात का उल्लेख करते हुए मैं अपने शब्दों को विराम दूँगा। हिन्दू समाज में अनादि काल से राज्य के प्राधिकार के बिना, पुलिस के प्राधिकार के बिना किसी भी विधानमंडल के प्राधिकार के बिना कानून चला आ रहा है। जो कानून चले आ रहे हैं उनके पीछे कोई सरकारी संस्वीकृति नहीं रही है। ये कानून उन व्यक्तियों ने बनाए थे जिन्होंने, कोई व्यक्ति जितनी पूर्णता प्राप्त कर सकता है वह प्राप्त कर ली थी, जो सार्वभौमिक आदर के पात्र थे, जिन्होंने लोगों की भलाई के लिए कार्य किया था और इस पर शास्त्रों में जिसे अपूर्व कहा गया है उसकी स्वीकृति थी, कि जो कतिपय परिस्थितियों के अंतर्गत घटित होगा, यह विचार कि कोई आज जो कुछ कर रहा है उसका प्रभाव भविष्य में होगा; कि मनुष्य की आत्मा का, जीव का केवल एक जीवन नहीं होता, अपितु वह अनेक जन्म लेता है, कि एक जीवन के कर्म पिछले और भावी जीवन के कर्मों और परिणाम से आपस में जुड़े होते हैं; कि सद्गुणों और धर्मपरायणता और न्यायप्रियता का पुरस्कार व्यक्ति के इस जीवन की सुख-सुविधाओं से वास्तव वृहत्तर होता है। वस्तु की क्षणभंगुरता ही नहीं बल्कि उसके वास्तविक मूल्य की स्पष्ट अवधारणा का भी सदैव सदैव ध्यान रखा जाता था, और बनाए गए कानूनों का अनुपालन सदैव इसी स्वीकृति और इसी आस्था के आधार पर किया जाता रहा है इस पूरे देश में, इसके कोने-कोने में हिन्दुओं के कानून का अनुपालन किया जाता रहा है, इसलिए नहीं कि किसी ने उदाहरण के लिए मेरे सम्माननीय मित्र काका साहब गाडगिल, जो सदन में आते हैं और जिन्होंने एक वयोवृद्ध जिम्मेदार व्यक्ति की तरह नहीं, जैसा कि हम सब उन्हें जानते हैं बल्कि एक जिन्दादिल नौजवान की तरह, जो उस क्षण जो मन में आए बोलता चला जाता है, उसकी तरह ही हिन्दू कोड पर अपनी बात रखी या और किसी ने उसे अपने लिए अनुकूल पाया या नहीं पाया, उसे जीवंत या उबाऊ पाया, बल्कि इसलिए कि काका साहब और गोविन्द मालवीय दोनों और उनके जैसे तीस करोड़ दूसरे लोग, जिनमें एक अटूट आस्था और विश्वास है कि वे जो कुछ आज कर रहे हैं उसके परिणाम कल होंगे और जो कुछ अभी भुगत रहे हैं इसका पुरस्कार उन्हें मिलेगा। वे इस विश्वास के साथ बड़े हुए हैं कि जीवन में केवल प्रेय ही सब कुछ नहीं है, बल्कि सभी बातों के श्रेय पर भी मनोयोगपूर्वक विचार किया जाना चाहिए। इस देश और इस समाज की यही विचारधारा रहती आई है। सरकार को हम बिना विचार किए और जल्दबाजी करते हुए तानाबाना ही ध्वस्त करने की गलती न करने दें जिस पर कानून के प्रति आदर और उसके अनुपालन का भाव टिका हुआ है। यदि विधि-निर्माताओं का एक समूह, विद्वज्जनों या ज्ञान-दंभियों का एक समूह, एक विशेष तरीके का कानून बनाता है जिसे वह उचित समझता है तो लोग 'अपूर्व' की चिन्ता करना ही छोड़ देंगे। लोग यह जान जाएंगे कि अगले ही दिन एक ऐसा कानून बना लेना भी उनके लिए संभव है जो उन्हें पसन्द और सुविधाजनक हो। ऐसे तो नैतिक तानाबाना ही मिट जाएगा और मनुष्य आदिम युग में लौट जाएगा जब विवाह की कोई विधि या पद्धति ही नहीं थी, जहां ऐसी स्थिति आ जाएगी, जो सभ्य समाज में संभवतः उल्लेख योग्य भी नहीं होगी। यही प्रतिष्ठा है जो दांव पर लगी हुई है।
मैं विवाह-विच्छेद के प्रश्न पर बोलना चाहता था; मैं विधवा पुनर्विवाह के प्रश्न पर बोलना चाहता था; मैं अन्तर्जातीय विवाह के प्रश्न पर बोलना चाहता था; मैं एक विवाह के प्रश्न पर बोलना चाहता था। मुझे आशा है कि जब उचित समय पर इस प्रत्येक विषय से संबंधित खण्डों पर विचार किया जाएगा, तब मुझे भी अवसर मिलेगा। हमें इन समस्याओं पर समाज के समग्र हित और भलाई के दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए। मैंने कहा समाज । समाज से अभिप्राय लोगों के समस्त समूह सभी निवासियों से है। यह इकाईयों से, व्यक्तियों से मिलकर बनता है। परन्तु इकाई और समग्र, चाहे वह अभिन्न परस्पर आश्रित हों, उनका पृथक अस्तित्व भी होता है शरीर सभी अंगों से मिलकर बनता है। परन्तु हाथ का अपना अस्तित्व होता है; सिर का अपना। हाथ, पैर सिर के बिना शरीर नहीं हो सकता ।
(i) खण्ड 2 के उप-खण्ड (1) के भाग (क) में "सहित' के बाद 'बौद्ध, जैन तथा सिख" को अन्तःस्थापित किया जाए।
(ii) खण्ड 2 के उप-खण्ड (1) के भाग (ख) का लोप किया जाए।
पहले संशोधन के बाद यह खण्ड निम्नानुसार पढ़ा जाएगा :--
"सभी हिन्दुओं पर अर्थात बौद्ध, जैन, सिक्ख, वीरशैव अथवा लिंगायत और ब्रह्म, प्रार्थना इत्यादि सहित हिन्दू धर्म के किसी भी स्वरूप को मानने वाले व्यक्तियों पर। एक सरल कारणवश यह संशोधन मैंने प्रस्तुत किया है। मुझे उम्मीद है और प्रार्थना है कि मैं एक धर्मपरायण हिन्दू हूँ - मैं नहीं जानता कि क्या मैं यह दावा कर सकता हूँ -और.......
डॉ. अम्बेडकर : ऐसे भाषण के बाद ऐसा दावा और कौन कर सकता है?
पंडित मालवीय : और जो संकल्प हम हर अवसर पर लेते हैं, हम कहते हैं बुद्धावतारे। यदि मेरे पास समय होता तो मैंने यह बताने का प्रयास किया होता कि बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिक्ख धर्म का स्वतंत्र स्थान और स्थिति होने के बावजूद उन्हें किसी भी तरह हिन्दू धर्म के दायरे से बाहर नहीं माना जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हिन्दू धर्म उन पर कोई दावा करता है या उनकी पूर्ण स्वतंत्रता और उनके पृथक अस्तित्व पर किसी भी तरह का कोई प्रतिबंध लगाना चाहता है। ऐसा नहीं है मैं ऐतिहासिक धर्म की बात कर रहा हूँ। वे इसी में से निकले हैं और सदैव इसका अंग भी रहे हैं। उनके धर्म ग्रन्थों और धार्मिक क्रियाविधियों में, उनकी दैनंदिन पद्धतियों और दैनिक जीवन कई बातें है जो एक हैं। इसलिए इस भूमि पर उन्हें अलग दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है मेरे संशोधन से परिणाम में कोई अन्तर नहीं आएगा। यह खण्ड एक पृथक खण्ड में आने के बजाए पूर्ववर्ती खण्ड के भीतर ही आता है।
मैं अब इस सदन के सदस्यों से केवल यही अपील करना चाहता हूँ कि वे इस मामले पर तटस्थता से विचार करें। जैसा कि मैंने कहा कि मुझे इस बात से इंकार नहीं है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका विचार है कि यदि ऐसा कानून बनाया जाता है तो यह समाज के हित में होगा। मैं उनसे अपील करता हूँ कि इस बारे में वे सही तरीके से आगे बढ़ें। कुछ समय पहले अन्तर्जातीय विवाह अधिनियम पारित किया गया था जिसमें आर्य समाजियों में अन्तर्जातीय विवाह वैध बनाया गया था। उसी समय एक विद्वान और मनु के भक्त डॉ भगवान दास जी ने तत्कालीन केन्द्रीय एसेम्बली के समक्ष उस खण्ड को सभी हिन्दुओं पर लागू करने के लिए एक बिल पेश किया था। बिल पर कार्यवाही नहीं की गई और उस पर विस्तृत और व्यापक विचार-विमर्श के बाद उसे पारित नहीं किया गया। पिछले कुछ दशकों से आर्य समाजियों के बीच अन्तर्जातीय विवाह होते रहे हैं और जब यह आम बात हो गई तब उन्होंने लम्बे समय तक आन्दोलन भी चलाया और समय आने पर उपाय अपना लिया गया। आइए इसका अनुकरण हम भी करें। यदि समाज सुधार किया जाना है तो इस पर कोई आपत्ति नहीं कर सकता है यदि उससे जुड़े सभी लोगों की भी यही आकांक्षा हो। इसलिए हम भी वही रास्ता अपनाएं ताकि जो कुछ आपने किया है वह बेअसर रहते हुए केवल कागजों तक सीमित न रह जाए।
यह भी उल्लेख किया गया है कि चूँकि हम इस कोड में अभी केवल विवाहऔर विवाह-विच्छेद से जुड़े भाग पर ही बहस कर रहे हैं, तो इस प्रयोजनार्थ हमें एक अखिल भारतीय अखिल सामुदायिक कोड तैयार करने की व्यवहार्यता पर भी विचार करना चाहिए। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जिनका यह कहना है कि यदि एक पत्नी विवाह अच्छा है और हिन्दुओं के लिए अनिवार्य किया जाना है तो इसे सभी पर लागू किया जाए। मेरा यह कहना नहीं है यदि कल विवाह अच्छा है तो मैं इसे हिन्दुओं के लिए चाहता हूँ चाहे किसी और पर लागू किया जाता है अथवा नहीं किया जाता। यह निर्णय दूसरों को करना है और यदि वे इसे नहीं चाहते हैं तो न सही लेकिन यदि हिन्दुओं के लिए यह हित में है तो यह उन पर लागू होना चाहिए (एक माननीय सदस्यः क्या यह हित में है?) यह अच्छा है और मेरा विचार है कि इसमें यही एक अच्छी बात है; परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि हम अच्छी बात की आवश्यकता से आंखें मूँद लें या हम अन्य संबंधित तथ्यों और पहलुओं पर विचार न करें। जहां तक कल विवाह के सिद्धांत का संबंध है मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है, इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए और मुझे दुःख होगा यदि कहीं पर भी कल विवाह पद्धति के सिवाय व्यवहार में और कुछ पाया जाता है
ज्ञानी जी. एस. मुसाफिर (पंजाब) : जो बात अच्छी है उसे अपना लेने में कोई नुकसान नहीं है।
पंडित मालवीय : मैं यह नहीं कहता कि यह हर किसी पर लागू नहीं होना चाहिए; दूसरों के बारे में विचार करना सरकार और अन्य लोगों का काम है। उन्होंने सीमित उपाय प्रस्तुत किया है जो केवल विवाह और विवाह-विच्छेद से संबंधित है और यदि वे समझते हैं कि इसे पूरे देश पर लागू किया जाना उचित है तो क्यों न उन्हें ऐसा करने दें। यह एक अलग बात है जिस पर सरकार को विचार अवश्य एक करना चाहिए।
श्री भट्ट (बम्बई): लेकिन क्या हम सदस्य सरकार से यह मांग नहीं कर सकतें हैं कि इसे सभी पर लागू किया जाना चाहिए।
पंडित मालवीय : निःसंदेह। कई लोगों ने ऐसा कहा है।
ज्ञानी जी. एस. मुसाफिर : मेरा विचार है कि इसकी मांग करना हम सबका कर्त्तव्य है।
पंडित मालवीय : यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और मुझे आशा है कि सरकार इस पर विचार करेगी।
अध्यक्ष : मैं माननीय सदस्य से पूछती हूँ कि क्या उन्हें यह नहीं लगता कि हम और लोगों को जो उपदेश देते हैं उस पर पहले खुद भी अमल करें, तभी न हमारे पास एक बेहतर और मजबूत मामला बनेगा?
पंडित मालवीय : महोदया, मैं अध्यक्ष से बहस करने की धृष्टता नहीं कर सकता। मैं यह दोहराते हुए अपनी बात समाप्त करूंगा कि इस सदन के सदस्य जिम्मेवारी के जिस पद पर बैठे हैं, उसकी जरूरत को समझेंगे और इस उपाय पर गंभीरता से विचार करेंगे ताकि हिन्दू समाज की प्राचीन और पुरातन परम्पराओं और जीवन की बुनियाद से कोई हलके और निरादरपूर्ण तरीके से छेड़छाड़ न करें और उसेनष्ट न कर सकें।
श्री जाजू (मध्य भारत) : महोदया, अब प्रश्न प्रस्तुत किया जाए। (अवरोध)
बाबू रामनारायण सिंह (बिहार) : महोदया, मैं कुछ कहना चाहता हूँ।
अध्यक्ष : इस मुद्दे का निर्णय मैं खुद नहीं कर रही हूँ। मैं इसे सदन पर छोड़ती हूँ। क्या पूछ सकती हूँ कि माननीय कानून मंत्री इसका उत्तर देने में कितना समय लेंगे?
डॉ अम्बेडकर : जो लम्बे भाषण और विभिन्न प्रकार के तर्क दिए गए हैं उन्हें मैं लगभग सवा घंटा लूँगा; संभव है कि इससे ज्यादा समय भी लगे, मैं देखते हुए नहीं जानता ।...
डॉ. अम्बेडकर : सरकार छोड़ने और विपक्ष के सदस्य बनने, बल्कि विपक्ष में अग्रिम पंक्ति के सदस्य बनने के बाद से ही मैं डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की कार्यशैली देखता आ रहा हूँ और मेरा ध्यान इस बात पर गया है कि उन्होंने वह दुर्भाग्यपूर्ण मानसिकता विकसित कर ली है जिसे कभी-कभी नेता, प्रतिपक्ष विकसित कर लेते हैं, यानी सरकार के प्रत्येक कदम का विरोध करना। इसे देखते हुए जब कोई व्यक्ति मामले पर उसके गुणदोषों के आधार पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं रहता बल्कि केवल विरोध करने के उद्देश्य से उसका विरोध करना चाहता है तो मुझे लगता है कि उसकी बहस का उत्तर देने के लिए किसी को अपना समय और ऊर्जा खर्च करना शायद ही जरूरी है। यही कारण है कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जो कुछ कहा उसे मैं बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहता ।
इसलिए मैं केवल सामान्य मुद्दों पर अपनी बात कहना चाहता हूँ, जिन्हें विभिन्न वक्ताओं ने खण्ड 2 के और इस विधेयक के बारे में सामान्यतः उठाया है। पहलीबात, जो शायद नई बात है, वह यह है कि जिस प्रकार का विधेयक चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया है, वास्तव में उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं है। यह कहा गया है कि हिन्दू समाज एक अत्यंत प्राचीन समाज है जो रोमन और ग्रीक समाज से भीअधिक प्राचीन और संभवतः मिस्र के समाज जितना ही प्राचीन है। यह तर्क प्रस्तुत किया गया है कि आज हम रोमन समाज या ग्रीक समाज या मिस्र के समाज के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह उनका इतिहास है। ये समाज अब अस्तित्व में नहीं हैं और ये विलुप्त हो चुके हैं। केवल हिन्दू समाज ही एकमात्र प्राचीन समाज है जो आज भी जीवित है और यदि हिन्दू समाज आज जीवित है जबकि अन्य सभी।। प्राचीन समाज लुप्त हो चुके हैं तो इसके नियम, इसकी सामाजिक संरचना इसके सिद्धांत भी अवश्य अच्छे होने चाहिए: अन्यथा यह जीवित नहीं रहता।
ऐसा नहीं है कि यह तर्क मैंने पहली बार सुना है। यह बात मैं लम्बे समय से सुनता आया हूँ और इसे मैंने न केवल आम आदमी के मुंह से सुना है बल्कि विशिष्ट स्थान रखने वाले लोगों से भी सुना है जिन्हें भारत का इतिहासकार कहा जाता है। यह तर्क हर समय उन लोगों ने प्रस्तुत किया जिन्हें इस समाज की प्राचीन संरचना की पुनीतता में आस्था है। मैं निःसंकोच कहता हूँ कि मैं भी भारतीय इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ, हालांकि मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैं हमारे विश्वविद्यालयों में इतिहास का अध्यापन करने वाले कई लोगों जितना अच्छा विद्यार्थी हूँ। मुझे विश्वास है कि मुझे भी भारतीय इतिहास की पर्याप्त समझ है और जो बात मैं कहना चाहता हूँ वह इस प्रकार है। क्या केवल जीवित रहना पर्याप्त है या हमें यह विचार करना ज्यादा जरूरी है कि हम किस स्तर पर जीवित रहे? कोई व्यक्ति युद्ध में अपने विरोधी से जाकर मिल जाता है और उसका खात्मा करके विजयी हो जाता है वह भी जीवित रहता है। एक व्यक्ति जो विरोधी को सामने देखकर कायरों की तरह भाग निकलता है वह भी जीवित रहता है। क्या विजेता के जीवित रहने का मूल्य और सम्मान कायर के जीवित रहने के समान है? मैं समझता हूँ कि हमें यह विचार जरूर करना चाहिए कि हिन्दू समाज किस स्तर पर जीवित रहा है। (एक माननीय सदस्यः योग्यतम की जीवंतता) जी हां, परंतु परिस्थितियों के आधार पर। अपने मित्रों से मैं यह कहने के लिए माफी चाहता हूँ कि जब मैं भारत का इतिहास देखता हूँ तो मैं देखता हूँ कि हम उन लोगों के रूप में जीवित रहे हैं जिन्हें अधीनता में रखा गया, पराजित किया गया और गुलाम बना लिया गया था। (एक माननीय सदस्य : किसके साथ ऐसा नहीं किया गया?) जी, हां। मेरे माननीय मित्र ने यह प्रश्न पूछा है। कि "किसके साथ ऐसा नहीं किया गया?" अनेक देश और अनेक समुदाय हैं जिन्हें युद्ध में पराजय का मुंह देखना पड़ा था और गुलाम बना लिया गया था, लेकिन मैं अपने माननीय मित्र को स्मरण कराना चाहूँगा कि यदि वे युद्धों में परास्त लोगों का इतिहास पढ़ें तो वे महसूस करेंगे कि विश्व के दूसरे भागों में पराजित लोगों ने कभी न कभी उठकर संघर्ष किया और स्वतंत्रता प्राप्त की। मैंने इस देश में ऐसा कुछ होते हुए नहीं देखा। इसलिए यह कहना कि अन्य देश जहां लुप्त होकर इतिहास के पन्नों में समा गए हैं, वहीं हम हैं जो आज भी जीवित हैं। यह बात जिस सामाजिक ढांचे में हम रह रहे हैं उसकी अच्छाई या सुदृढ़ता के प्रति मुझे संतुष्ट नहीं करती। यह कहा जाता है कि हिन्दू समाज अत्यंत प्रगतिशील समाज है। यह एक ऐसा तर्क है जिसका मेरे माननीय मित्र डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने विस्तार से विवेचन किया और उन्होंने उल्लेख किया कि हिन्दू समाज द्वारा बुद्ध जैसे आत्यंतिक सुधारवादी को एक महान व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया गया और न केवल एक महान व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया, वरन् उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों में से कुछेक को अपनाया और स्वीकार भी किया।
अपने विरोधियों की कुछ बातों को ग्रहण कर लेना भी निःसंदेह हिन्दू समाज का एक महान गुण है। लेकिन जो बात में कहना चाहता हूँ वह इस प्रकार है। अपने विरोधियों के मतों- सिद्धांतों को ग्रहण करने के बाद क्या हिन्दू समाज ने अपने सामाजिक ढांचे को कभी बदला? बुद्ध का उदाहरण देकर मैं अपनी स्थिति स्पष्ट हूँ। उन्होंने क्या उपदेश दिया? उन्होंने समानता का उपदेश दिया। वे चतुर्वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी थे। वे वेदों में आस्था के घोर विराधी थे, क्योंकि वे तर्क में विश्वास रखते थे न कि किसी पुस्तक के अचूक होने में। अहिंसा में उनका विश्वास था; ब्राह्मणवादी समाज ने कुछ बातों को स्वीकार कर लिया। उसने क्या स्वीकार किया? उसने अहिंसा के सबसे हानिरहित मत का वरण कर लिया। समानता के उनके सिद्धांत का वरण करने के लिए कोई तैयार नहीं था और न किसी ने किया; बल्कि उसका विरोध किया। यह जरूर है कि कुछेक हानिरहित छोटी-मोटी बातों को अपना लिया परन्तु इसके बाबजूद उन्होंने उस मुख्य बात को छुआ तक नहीं जिस पर सभी एकजुट थे अर्थात् चतुर्वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना। यही कारण है कि समाहित कर लेने और अपना लेने के गुण के बावजूद वह वही हैं जहाँ रहते आए हैं। हमने अनेकानेक वर्षों तक प्रतीक्षा की है कि हिन्दू समाज इस देश में जन्मे और इस देश से बाहर जन्मे महान व्यक्तियों के द्वारा दिए गए उपदेशों में निहित सिद्धांतों को आत्मसात करने के परिणामस्वरूप अपना सामाजिक ढांचा बदलेगा। हम लोगों में से अधिकांश लोग, मैं तो अपनी बात करता हूँ, पूरी तरह से निराश हैं। हिन्दू समाज चाहे जो कुछ अपना ले परन्तु वह शूद्रों को गुलाम बनाकर रखने और स्त्रियों को अधीन रखने के अपने सामाजिक ढांचे का त्याग कभी नहीं करेगा। यही कारण है कि अब उनके लिए कानून को आगे आना होगा ताकि समाज प्रगति कर सके।
पंडित मालवीय : वह बताइए जो बुद्ध नहीं कर सके।
डॉ. अम्बेडकर : लोग कहते आ रहे हैं कि हिन्दू समाज बदलता रहा है। मैं जो प्रश्न करना चाहता हूँ वह इस प्रकार है। क्या यह परिवर्तन प्रगति की दिशा में है। या यह परिवर्तन दूसरी दिशा में है? जिस किसी ने भी आर्य समाज का शुरूआत से लेकर आज तक का इतिहास पढ़ा है और यदि वह इतिहास का निष्पक्ष विद्यार्थी है। तो उसे स्वीकार करना पड़ेगा कि जो कुछ भी परिवर्तन हुआ है, तो उसमें गिरावट आई है। जैसा कि सब जानते है, आर्यों में कोई जाति-व्यवस्था नहीं थी। किसी प्रकार की वर्ण व्यवस्था जरूर रही परन्तु वर्ण-व्यवस्था अन्तर्जातीय विवाह के आड़े कभी नहीं आई। आपको ब्राह्मणों द्वारा अस्पृश्य स्त्रियों से, क्षत्रियों को शूद्रों से और शूद्रों द्वारा उच्च जाति की स्त्रियों से विवाह के अनेक उदाहरण मिलेंगे।
पंडित मालवीय : कौन-कौन से उदाहरण हैं?
डॉ. अम्बेडकर : मैं आपको कई उदाहरण बता सकता हूँ यदि आप मेरे कक्ष में
आएं। मेरे पास उपलब्ध हैं।
पंडित मालवीय : अभी क्यों नहीं?
डॉ. अम्बेडकर : परन्तु आर्यों में वर्ग विभाजन की इतनी कठोर सामाजिक व्यवस्था कभी नहीं थी, जो बाद में लागू की गई। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि यह परिवर्तन बाद में हुआ है।
आप हिन्दू महिलाओं की स्थिति को देखें। हमारे माननीय मित्र डॉ. मैत्रा ने, जो मेरा ख्याल है कि राव समिति के भी सदस्य थे, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट डिग्री की थीसिस के लिए 'हिन्दू शास्त्रों में महिलाओं की स्थिति' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है। जो कोई यह पुस्तक पढ़ता है उसे ज्ञात होगा कि सम्पत्ति में स्त्रियों का हिस्सा पुरुषों के बराबर था। उसे सम्पत्ति का मालिकाना हक भी था। यहां तक कि मनुस्मृति में भी ऐसा कहा गया है। हिन्दू समाज में आए परिवर्तनों के परिणामस्वरूप आज हम क्या देख रहे हैं? महिलाएं सम्पत्ति से पूर्णतः वंचित हैं। आप इस परिवर्तन को प्रगति कहेंगे या इस परिवर्तन को गिरावट कहेंगे? इसलिए मेरे विचार से अब समय आ गया है कि हम इस सवाल पर अलग तरीके से विचार करें। जिस मुद्दे की ओर मैं बढ़ना चाहता हूँ वह यह है कि जब तक कानून समाज को नहीं बढ़ाता, यह समाज आगे नहीं बढ़ेगा।
दूसरी बात जो इस सदन के समक्ष रखी गई थी वह इस प्रकार थी कि हमारी कोई नीति नहीं है; हमारा कोई सिद्धांत नहीं है; जिस एक बात पर हम आगे बढ़ रहे हैं वह एक प्रकार से पश्चिमी राष्ट्रों की नकल है। ऐसा कहा जाता है कि क्योंकि पश्चिमी राष्ट्रों में एक पत्नी विवाह है, क्योंकि पश्चिमी राष्ट्रों में तलाक है अथवा क्योंकि चीन के लोग उस दिशा में कुछ करने का प्रयास कर रहे हैं इसलिए दुनिया की नजरों में अच्छे बने रहने के लिए हम भी उन्हीं की तर्ज पर कुछ का प्रयत्न कर रहे हैं। उन्होंने कहा है कि हमारा आदर्श क्या होना चाहिए? किसी ने कहा राम; किसी ने कहा दशरथ: किसी ने कहा कृष्ण; किसी ने कहा यह और किसी ने कहा वह। इस सदन के समक्ष प्रस्तुत आदर्शों पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता और मैं नहीं चाहता कि
श्री श्यामानंदन सहाय : आप टिप्पणी न करें तो ही अच्छा है।
अध्यक्ष महोदय : ऑर्डर, ऑर्डर।
डॉ. अम्बेडकर : मेरे आदर्श तो संविधान जनित हैं, जो हमने निर्धारित किए हैं। संविधान की उद्देशिका में स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की बात कही गई है। अतः इस देश में मौजूद प्रत्येक संस्था की जांच करने के लिए हम बाध्य हैं क्या वह संविधान में निर्धारित सिद्धांतों का पालन करती है। अब जहां तक आपके सांस्कारिक विवाहका संबंध है, मैं माफी चाहूँगा कि मेरे मन में यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है कि विवाह संस्था की निष्पक्ष, ईमानदार और स्वतंत्र भावना से जांच करने वाला कोई भी व्यक्ति इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेगा कि हमारा सांस्कारिक विवाह न तो स्वतंत्रता के आदर्श पर खरा उतरता है और न ही समानता के । विवाह का सांस्कारिक आदर्श क्या है? विवाह के सांस्कारिक आदर्श का यथासंभव कम से कम शब्दों में वर्णन किया जाए तो यह पुरुष के लिए बहुविवाह और स्त्री के लिए निरंतर गुलामी है।
एक माननीय सदस्य : अत्युत्तम वर्णन है।
डॉ. अम्बेडकर : ऐसा इसलिए कि स्त्री किसी भी स्थिति में पुरुष से स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकती, चाहे वह कितना ही निष्ठुर हो, चाहे कितना ही अवांछित । एक प्रश्न मैं इस सदन के सामने रखना चाहता हूँ। हम दासता के पक्ष में हैं या हम स्वतंत्र श्रम के पक्ष में हैं? हम किसके पक्ष में हैं? अब देखिए, कि सभी आर्थिक मामलों में हम हमेशा इस बात पर जोर देते आए हैं कि श्रम स्वतंत्र होना चाहिए। गुलामी हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।
एक माननीय सदस्य : क्या यह गुलामी है?
डॉ. अम्बेडकर : गुलामी और मुक्त श्रम के बीच क्या अंतर है? मेरा ख्याल है कि यदि आप गहराई से विचार करें तो आप इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि मुक्त श्रम का अर्थ है करार को तोड़ने की आवश्यकता उत्पन्न होने पर करार को तोड़ने की योग्यता और क्षमता रखना ।
श्री आर. के. चौधरी (असम) : क्या यह एक करार है?
डॉ. अम्बेडकर : जी, हां। मैं इसी बात पर अभी आऊंगा।
इसलिए यदि सांस्कारिक विवाह के अंतर्गत किसी स्त्री को उसकी स्वतंत्रता चाहिए तो उसको स्वतंत्रता प्राप्त करने की शर्तों के लिए आप चाहे जो सीमा रेखा खींचें, तो यह विधेयक जिस रूप में है, इसमें विवाह-विच्छेद के लिए निर्धारित शर्तों को सीमित करने के लिए इस सदन के किसी भी पक्ष के किसी भी सदस्य द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव पर मैं विचार करने के लिए तैयार हूँ। परन्तु यदि आपका आशय स्वतंत्रता प्रदान करने से है और आप उसे उस स्वतंत्रता से वंचित नहीं कर सकते, क्योंकि आपने इसे संविधान में शामिल किया है और प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता और समानता की गारंटी देने वाले संविधान की सराहना की है तो आप इस संस्था को वैसा नहीं रख सकते जैसी कि यह अभी है। यही कारण है कि हम यह विधेयक लेकर आए हैं और इसलिए नहीं कि हम किसी और देश के लोगों का अनुकरण करना चाहते हैं या हम अपने प्राचीन आदर्शों का अनुसरण करना चाहते है जो मेरे मतानुसार पुरातनपंथी हैं और किसी के लिए भी उन्हें व्यवहार में लाना असंभव है।
~ सं. मेवालाल, अंबेडकर वाङ्मय 32, पृष्ट 332 से 404
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