"हाथ तो उग ही आते है ” (कहानी संग्रह) की पुस्तक समीक्षा – मेवालाल
“हाथ तो उग ही आते हैं” नामक कहानी संग्रह के लेखक श्योराज सिंह बेचैन जी हैं। वे इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष है। वर्तमान में वे दलित साहित्य के सुपरिचित हस्ताक्षर है। उनकी यह पुस्तक 2020 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इसमें संग्रहित सभी कहानियाँ पहले अलग-अलग पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी लेकिन सभी को व्यवस्थित रूप देने के लिए एक पुस्तक का रूप दे दिया गया है। शीर्षक बहुत ही रोचक और प्रासंगिक है। इतिहास में कारीगरों के हाथ काटे गए । महाभारत में एकलव्य का अंगूठा काट लिया गया। रामायण में शंबूक का सर काटा गया तथा हानूश नाटक में हानूश की आंखें फोड़ दी गई और हाथ काट लिया गया पर वर्तमान में भी हाथों पर और रचनात्मकता पर हमला हो रहा है । भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के युग में हाथ उगाए नहीं जा रहे। ना ही लगवाए जा रहे हैं। दुख की बात है कि भारत में योग्यता के विकास के लिए पर्याप्त अवसर और संसाधन नहीं है और हमारी शिक्षा व्यवस्था भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं इसलिए हाथ उगाने का उपागम यहाँ नहीं है जबकि अमेरिका में उगाए जा रहे हैं।
हिटलर के कारण ही द्वितीय विश्व युद्ध हुआ। उसके नस्ल वादी विचार ने यहूदियों का नरसंहार किया पर आज भी जर्मनी उसका निसंकोच लिखित माफी मांग रहा है। अमेरिका में गोरे लोगों ने काले लोगों पर अत्याचार किया । उसका वे माफी मांग रहे हैं । वे अपने किए पर पश्चाताप कर रहे हैं ताकि भविष्य में इसे दोहराया ना जा सके। हेलो गीत में गायिका स्वयं अभिनेत्री देश की उन्नति के लिए अश्वेत लोगो को श्वेत लोगो से जोड़ना चाहती है।हेलो गीत अडेले ने गया है। यह 2019 में सॉन्ग ऑफ द ईयर रह चुका है। जिसमे वे एक श्वेत पर्सन है और इतिहास में अपने किए पर पश्चाताप कर रही है और माफी मांग रही है। ऐसा सह अस्तित्व का भाव यहाँ नहीं दिखाई पड़ रहा है। पर भारत में तथाकथित उच्च जातियों ने शूद्रातिशुद्र पर जो अत्याचार किए। उसकी माफी भी नहीं मांग रहे हैं ना पश्चाताप कर रहे हैं। उन्हें साफ साफ इंकार कर रहे कि ऐसा हुआ ही नहीं। लेखक द्वारा भूमिका में उठाया गया यह मुद्दा विमर्श करने और आगे बढ़ाने के योग्य है। इस प्रकार अतीत के दर्द को भुला देना चाहते है। लेखक में राष्ट्र की उन्नति के लिए साथ-साथ काम करने ( वर्क टुगेदर ) की भावना लिए हुए दिखाई देता है।
लेखक के लिए राष्ट्र उन्नति प्रधान है उसमें भी शोषित व्यक्ति प्रधान । लेखक स्त्रियों और दलितों के मुद्दों को उठाया है। हर कहानी में दलितों और स्त्रियों की पीड़ा और टीस को व्यक्त किया गया है। पर पात्रों में बदले की भावना नहीं दिखाई देती है। यही दलित साहित्य का मानवतावाद है । दलितों के लिए आजादी का मतलब क्या है ? क्या अज्ञानता,गरीबी, और गृह कलेश से मुक्त राष्ट्र बनाया जा सकता है या नहीं ? आखिर दलित भी तो इसी देश के नागरिक हैं। आज नागरिक बोध के विचारों से युक्त लेखक सर्वत्र दिखाई देता है।
घुंघट हटा था क्या ? कहानी में पितृसत्ता के शोषणकारी रूप को दिखाया गया है। वह सिर्फ शोषणकारी नहीं जानलेवा भी है। लाडो नामक 16 साल की लड़की का विवाह 50 वर्षीय चौधरी बलाधीश से हो जाता है। उसे सदैव घर में घूंघट में रहने को कहा जाता है। वह रहती भी है। अंत में वह बच्चा पैदा करते समय मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। इसमें बंधुआ मजदूरी और बाल विवाह जैसे आज की समस्या को उभारा गया है। मुख्य समस्या है घूंघट में घुटन की। स्त्रियों को घूंघट में रखना पुरुषों को पसंद है पर जो घूंघट में रहता है उसे यह नहीं पूछा जाता कि तुम्हें क्या पसंद है। तुम्हारी इच्छा क्या है। एक इच्छा दूसरी इच्छा को दबाएं हुए है। यह पुरुष संस्कृति है और इसी संस्कृति का परिणाम है उसकी मृत्यु। बच्चू एक छोटी जाति का बालक है। वह पिता का कर्ज पूरा करने के लिए दो साल के लिए बलाधीश के यहां आता है। उसे लाडो की सेवा में लगाया जाता है और वह उसका चेहरा देखने के लिए उत्सुक तथा प्रयासरत रहता है। इस प्रकार इसमें पितृसत्ता के साथ आंबेडकरवाद की अच्छी अभिव्यक्ति दिखाई देता हैं।
हमशक्ल द्वितीय कहानी है। इसमें मालिक प्रेमराय अपनी नौकरानी धर्मों से अवैध संबंध रखता है। उससे उत्पन्न पुत्री भोरवती का प्रेमराय के पुत्र प्रकेश अपने साथियों फरमान अली, स्वयं हित शर्मा , बुद्धा खटीक के साथ मिलकर बलात्कार करता है। फिर मार कर जिंदा जला देता है। अंत में उसे पता चलता है कि उसने तो यह अन्य अपनी बहन के साथ किया । दुख की बात है जितना बलात्कार दलित स्त्रियों का आजाद भारत में हुआ उतना अंग्रेजी राज्य में नहीं । यह स्वतंत्र भारत का महत्वपूर्ण सवाल है। इस कहानी मदना चमार एक कामरेड है पर वह शोषितो के साथ नही शोषकों के साथ रहता है। परिवर्तन कैसे आएगा यह सवाल भी यह कहानी हमारे सामने छोड़ती है। उच्च जातियों के प्रभुत्व को देखने के लिए यह कहानी अनमोल है। ऐसे ही आग और फूस कहानी में सरस्वती का बलात्कार करते है।
तीसरी कहानी आग और फूस है। यह दमित इच्छा की अभिव्यक्ति की कहानी है। अछूत दाताराम अपने पुत्र की मृत्यु होने पर विधवा बहू सरस्वती ( शर्मा ) दोनों एक दूसरे को स्वीकार कर एक साथ रहने लगते हैं। यहां आंतरिक जरूरत के सामने बाह्य आरोपित संस्कृति टूटती हुई दिखाई देती है । जिस प्रकार एक बच्चा जब पैदा होता है।तो मिठाई बांटी जाती हैं। गीत गाए जाते है। नृत्य होते है। अन्य कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं।पर बच्चे को उसे कुछ लेना देना नहीं होता है। उसे मात्र दूध की जरूरत होती है । उसी प्रकार शारीरिक और मानसिक जरूरत होती है। उसे सामाजिक नियम और नैतिकता की परवाह नहीं होती है। जो आरोपित होता है। वही टूट जाता हैं। इसमें लेखक स्वयं भी उपस्थित है। इसकी प्रमाणिकता स्वयं सिद्ध है। ‘हाथ तो उग ही आते है ’ कहानी में मेडिकल के क्षेत्र में हाथ के कट जाने पर उगाने की व्यवस्था ना होने पर व्यंग्य किया ।गया है। यह कहानी सामने तो कहती ही है साथ ही बगल में बहुत कुछ कहती है। जैसे रूखो भंगिन का पावरो के मकान में किराए पर भी रहने के कारण पीटा जाता है। क्योंकि वह निम्न जाति से रहती है और तथाकथित निम्न जाति को कमरा किराए पर नहीं दिया जाता है। और सांप्रदायिक दंगों में रुखो के पति की मौत हो जाती है। वह दिहाड़ी की मजदूर बन जाती है। सारी जिम्मेदारी उस पर है। काम नहीं करेगी तो खाएगी क्या। इसलिए अपनी शिशु की देखभाल के लिए छुट्टी भी नहीं लेती है। अपने बच्चे को साथ लेकर काम करने आती है। उसके शिशु की हाथ कुचल जाती है। अस्पताल जाने पर डॉक्टर को हाथ कटना पड़ता है। साथ ही हाथ उगाने की झूठी सुविधा बताई जाती है। यहाँ लेखक मेडिकल के क्षेत्र के लिए विचार दे रहा है। जिस पर प्रयोग ,परीक्षण और शोध होना चाहिए। लेखक इतना दूरदर्शी है कि वह समय रहते समाज का मार्गदर्शन कर रहा है। "कार्ड नंबर 2118" में बुलंदशहर की कहानी है। इसका प्रमुख पात्र अशोक है जो चमार जाति से हैं। इस कहानी से लेखक स्वयं भी जुड़ा हुआ है। इसमें सुस्त शासन व्यवस्था का चित्र खींचा गया है। वह चमड़े का काम छोड़कर स्कूटर बनाने का काम करता है। फिर भी पर्याप्त नहीं रहता है। वह अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए दौड़ता भागता बहुत है। ताकि उसे अच्छी जीविका मिल सके। सरकारी नल उसके द्वार पर लग जाता है तो उसी के जाति के लोग झगड़ा करते हैं कि इसे सार्वजनिक जगह पर लगना चाहिए और पीटते भी हैं। अपने ही लोगों के द्वारा मारे जाने के कारण वह सदमे में आ जाता है और उसकी मौत हो जाती है। इसमें यह दिखाया गया है कि जाति एक समाज विरोधी भावना है और हर रूप में नुकसानदेह और जानलेवा है।
"अस्थियों का अक्षर" आत्मकथात्मक कहानी है। लेखक स्वयं इसका पात्र है। यह कहानी वाल्मीकि परंपरा से जोड़ती है। जहां वे रामायण के लेखक भी हैं और उसके पात्र भी बनते हैं।यही परंपरा यहां आकर जीवन और साहित्य कर दिया है। सौराज दलित पात्र है। शिक्षा के प्रति उसका असीम लगाव है। बचपन से सौराज भले अंबेडकर के विचार से उनके नाम से परिचित न हो पर नई जिंदगी की तलाश के लिए शिक्षा का महत्व उसके अवचेतन में है । यह अंबेडकर का ही प्रभाव दिखाई देता है। इस प्रकार से सौराज़ का दलित समाज के हर व्यक्ति के साथ साधारणीकरण होता है ।घर में झगड़ा होता है। पिताजी उसका किताब जला देते हैं। फिर भी उसका पढ़ने का जुनून कम नहीं होता यह दलित साहित्य का नवजागरण है। जो दूसरे दलितों के लिए प्रेरणा है। यह उनके मेहनत और योग्यता का ही परिणाम है कि वे आज दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष है।इसमें स्त्री विमर्श का भी पक्ष है। देवर डालचंद एक रुपए की चोरी के संदेह में सौराज की मां को बहुत पीटता है । परिवार में पुरुष स्वामी और स्त्री दास होती है। भले उन्हें लक्ष्मी कहा जाए पर उनको संपति रखने का अधिकार नहीं है। उसका उल्लंघन करती है तो उसका दंड उन्हें मिलता है। सिस्टर कहानी में मैं पात्र दलित समुदाय से हैं। वह मंदिर जाता है तो उसे पीटा जाता है उसकी जाति को गाली दी जाती है। स्कूल में शिक्षक उसे पीटता है। जाति के आधार पर गाली देता है। छुआछूत का अभ्यास करता है। तो मैं पात्र स्कूल छोड़ देता है। वह सन्यास लेने जाता है । वहां भी उसकी जाति पूछी जाती है। एक विदेशी महिला के पीछे करते हुए शहर चला जाता है। इसमें यह दिखाया गया है कि व्यक्ति किस प्रकार मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से पीड़ित होकर अपना धर्म बदलता है ।इस कहानी में भी अस्थियों के अक्षर के समान साहित्य और जीवन एक होता दिखाई देता है।
"वह अम्मा जैसी थी" कहानी में मैं पात्र जूतों की मरम्मत करता है तथा टायर सिलाई का काम करता है। मैं पात्र एक वृद्ध महिला की मदद करता है। पर उसके मन में उस महिला के हित के खिलाफ नकारात्मक विचार चलते रहते हैं। यह अभावग्रस्त जिंदगी के कारण उसके अंदर नकारात्मक या अपराधात्मक विचार आना स्वाभाविक है। ऐसा पैसे की कमी के कारण दिखाई देता इसकी स्थापना यह है कि गरीब उपेक्षित लोगों का भी आय बढ़ना चाहिए । वह वृद्ध महिला मैं की जाति भले जानना चाहती है पर नुकसान नहीं पहुंचना चाहती है। यह दिखाता है कि अच्छे आदमी मात्र ऊंची जाति में नहीं मिलते हैं । और बुरे आदमी मात्र निम्न जाति में नहीं मिलते है । अच्छे बुरे लोग दोनों जगह हो सकते है। यह कहानी स्वास्थ समाज के निर्माण राष्ट्रीय आय के वितरण पर ध्यान केंद्रित करने का संदेश देती है । "छोटूू" कहानी में एक किशोर लड़के की कहानी है।साथ की भिक्षा के ठेकेदारी प्रथा का पर्दाफाश किया गया है। भिखारियों की जिंदगी जानवरो से भी बदतर होती है। उनके पास खाने को अच्छा भोजन नहीं है। पीने को स्वच्छ पानी नहीं है। रहने को घर नहीं है ।पहनने को कपड़ा नहीं है। सरकार उनसे वोट लेती है पर उनकी जीविका की व्यवस्था नहीं कर पाती है और न ही उनके श्रम का उपयोग कर पा रही है। एनजीओ द्वारा पहुंचाया गया मदद ठेकेदार लोग हजम कर जाते है । लेखक की यह स्थापना दिखाई देती है कि हर मानव पूंजी का उपयोग होना चाहिए तभी देश विकसित हो पायेगा।
सारी कहानियां लेखक के अनुभवों की जमा पूंजी है। अधिकतम कहानियों का भोगता स्वयं लेखक है। पूरा समाज जातिवाद से ग्रस्त दिखाई देता है। लेखक दलित और स्त्रियों के अधिकारों के प्रति समान रूप से पक्षधर है। कहानी में जो गीत प्रयोग किए गए हैं। उससे लोगों की संस्कृति रहन-सहन विचार व्यवहार का परिचय मिलता है। वह कहानी को यथार्थ बनाती है।आज भी दलित पात्र दीन हीन अवस्था में है । कहीं सशक्त नहीं दिखाई देते है। इसमें उल्लखित कहानियों का यह दोष है कि कथानक अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर समाप्त नहीं होता वरन कहानी अनावश्यक आगे बढ़ती दिखाई देती है।
– मेवालाल शोधार्थी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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