रक्षाबंधन कविता ~ मेवालाल

         रक्षाबंधन

“यह रक्षाबंधन बनाती है

रिश्ता एक भाई बहन की

जोड़ती अनुराग पर चलाती।

निर्मित होती मानवता जन की ।

इस धरा पर पूर्णता नहीं

असक्त असहाय सब पड़ते है

मदद से मदद मिलेगा बंधु

यह बाते धर्म व ईश्वर की ।

सहयोग करें जो संकट में

कमी न होगी मूल्य जीवन की

बहादुर शाह आक्रमण को आ रहा

बहन पुकारती लिए बंधन प्यार की।

कर्मवती पत्नी राणा सांगा, चित्तौड़ की।”


चिट्ठी की बातें सुनते ही

खडग हाथ का डोला।

जैसे पढ़कर बंद हुई

भाई उत्साह से उठकर बोला ।


हुमायु: बहन की रक्षा सम्राट करेगा

       शाह की किस्मत कर रही कुचाल है।

       चित्तौड़ वह नहीं जीत पाएगा

       समझो उसका विजय की काल है।


स्थगित करता बंगाल अभिमान

मदद हैं प्राथमिकता हमारी।

बहन अविलंब मैं आता हूं

छोड़ दे अब संकोच सारी ।


महामंत्री: इतनी जल्दी इतनी हैरानी

दिख रहे हो अजीब भले।

बिना किसी तैयारी के

हे शहंशाह तुम कहां चले।


भूल गए हों तुम शायद

काफिर की रक्षा हेतु जाते हो ।

कुछ पैगंबर का ख्याल करो

शत्रु की ओर क्यों हाथ बढ़ाते हो।


हुमायूं: नहीं महामंत्री आत्मवश होकर भी

हर व्यक्ति स्वयं का ऋणी होता है।

औरो को गले लगाकर भी

आदमियत का ऋण चुकाया जाता है।


महामंत्री: अभी राज्य व्यवस्थित नहीं है

एक सबल मुल्क पर गौर करो।

शेष बचे शत्रुओं को हराकर

आर्यावर्त का ताज सर पर धरो।


फिर बहादुर शाह अपने जैसा

लूट जाने दो चित्तौड़ को ।

मिलेगा तुम्हे कुछ खास नहीं

जो काम दे तुम्हारे जीवन को ।


हुमायूं : भविष्य में सब अनिश्चित है

हाथ तैयार नेक काम को ।

स्वार्थ से ऊपर सोचता हूं

भूल नहीं सकता मानव को।


जीवन अपने आप में अनमोल हैं

मूल्य नहीं कुछ धन वैभव का ।

कर्मवती का भाई बना हूं

फर्ज है चित्तौड़ बचाने का ।


उस्ताद : तुम भूल गए हो शायद

वह राणा सांगा की पत्नी है।

जिसने बाबर को दिल्ली पर आक्रमण को बुलाया ।

पर साथ न दिया, न सेनापति से मदद दिलवाया ।


हुमायूं : हे प्रिय वर्तमान को देखो

बीते कल पर मत पड़ना ।

एक फूल गर सुख जाए

हो भूलवश बाग मत उजाड़ना ।


उस्ताद : मुझे तुम्हारी जीवन प्यारी

ये खत कोई जाल तो नहीं ।

तुम्हे फसाकर दिल्ली विजय की

कहीं दुश्मन की चाल तो नहीं ।


 दिल में रखो जन्नत का ख्याल

पैगंबर अल्लाह को भी याद करो ।

जहां तक हो सके हुमायूं

धन लुटो और जेहाद करो ।


हुमायूं: नहीं पीर वीरों से युद्ध करना

न ही चुनौती देना सरल है।

दुश्मन क्या परास्त करेगा

जब खुदा पर भरोसा और आत्मबल है ।


इस धरा पर ही जन्नत है

यहाँ आदमियत ही सब है।

मदद ही संपत्ति मदद में पैगंबर

मदद में जीवन मदद में रब है।


उस्ताद: मैं तुम्हारे रब का प्रतिनिधि हूं

मैं समाज का मार्गदर्शक ।

सब बेकार है मेरी सुनो

हूं तुम्हारा पीर तुम्हारा हित साधक ।


हुमायूं: इस धरती पर जो जन्म लिया

सब मिलकर एक परिवार है।

सदा रणनीति लाभ नहीं देखा जाता

बंधुत्व की संस्कृति में हिंदुस्तान है।


महामंत्री तुम्हें दिल्ली सौंपता।

सुरक्षित रहे रब की दुआ अपार।

बिना बिलंब किए अब मैं

चित्तौड़ प्रस्थान को हूं तैयार।


उस्ताद : हुमायूं मेरे वचनों को तोड़ कर

चले गए तो होंगे शापित।

दिल्ली पर राज नहीं कर पाओगे

हिंदुस्तान से भी होगे निर्वासित।


हुमायूं: बंधुत्व का फर्ज निभाने को

मैं शासन सत्ता छोड़ दूंगा ?

वह दिन नही आयेगा

मैं भविष्य का मुख मोड़ दूंगा।


मुशीर (सलाहकार) : 

भाई तुम्हारे खिलाफ दिख रहे

चाहते नहीं सम्राट बनाना

ध्यान रहे खुद का हम सबका

और लौटकर जल्दी आना।


जाने देने के पक्ष में नहीं हूं

मन में संकोच कई सारे।

अगर यहां कुछ अशुभ हुआ

सिंहासन तो जायेगी हम भी जायेंगे मारे।


हुमायूं : नैतिक मूल्य बड़ा सिंहासन से

बात सबको यही बताता हूं

तुम सद्बुद्धि से काम लो

मैं हवा वेग से आता जाता हूं।


मन से सबको समझकर

सरल स्वभाव का दिल खोला।

अपना जैसे तैसे तैयारी करके

हुमायूं ने चलते हुए बोला।


यहां गाय को माता समझना

पराए को भाई बहन कहना।

पिता ने राजा के रूप में सिखलाया है

सबको साथ रखना सबके साथ रहना।


निकल पड़ा इतने में वह

वीरो की एक टुकड़ी लेकर।

बहन का  ऋण चुकाने को

धागे के बदले जान देकर।


इस बात का प्रण करके

मैं रहूंगा या बहादुर शाह रहे ना।

निकल गया इधर से लेकर

छोटी सी प्रतिद्वंदी सेना।


रूढ़ि धर्म विचार क्या टिकेगी

नदिया वन पर्वत क्या रोकेगी।

जिस ओर निकल जाता है

पीछे राह बनता जाता है।


चिट्ठी कानों में गूंज रही थी

सुन रहा था मठवासिनी की पुकार।

मानो मदद में आगे आकर

चल रही हो समान बयार।


यह पवित्र पर्व अदभुत है

स्नेह लीला की बड़ी बड़ाई।

धर्म भगिनी के रास्ते में न थका

न मौसम ने आंखे दिखलाई।


अपनी स्थिति की परवाह न करता

त्यागा है गुरुजन के बातों को।

पश्चाताप नहीं उत्साह लेकर

बढ़ता गया आधी आधी रातों को।


कर्मवती को बंदी बना कर

बहादुर शाह कर रहा शासन।

पहुंचते ही हुमायूं ने आखिर

कर दिया चित्तौड़ पर आक्रमण।


क्षण भर में प्राचीर तोड़ना

हिल गया कुर्सी औ राजा।

लहर उठ उठ के जलने लगी

महलों का प्रमुख दरवाजा।


उसकी भुजाओं का प्रहार

तलवार का वार कोई सहे ना।

जब तक राजा को खबर पहुंचती

मारी गई एक तिहाई सेना।


दो जन लड़ते तन मन से

भीषण युद्ध हुआ रण में।

हुमायूं से मोर्चा लेने

जब सेनापति उतरे प्रांगण में।


दोनो ओर तलवारे चलती थी

दोनो ओर रक्त बहता है।

जमीन और शक्ति के खातिर

दोनों ओर पुत्र धरती का मरता है।


हुमायूं– अपने को सुरक्षित रखकर

पड़ला रखा अंत तक भरी।

जब विरोधी के पैर लगे उखड़ने

बहादुर शाह मैदान से भागा।


रणभूमि छोड़कर उसका जाना

लोगों में भारी उदासी भर दी।

सेना स्वयं को अकेला पाकर

उसने तुरंत समर्पण कर दी।


इस प्रकार युद्ध जीतकर

उसने राखी की लाज रख ली।

कर्मा को कारागार से छुड़ाकर

भरनी चाही सिंहासन खाली।


अनहोनी से बचाने को

सुरक्षा की भावना थी जी में।

बहादुर के आक्रमण के पहले

उदय को भेजा गया था बूंदी में।


परंपरा में ओ बात नहीं थी

कर्मा कैसे बैठे सिंहासन पर।

पुरोहित तो विद्रोह करते

शासन क्या करती जन पर।


परिस्थितियां समझ के बाहर

किसे छोड़ दे किसे जोड़ दे।

दुश्मन तो भागा हुआ था

बहन का काम कैसे अधूरा छोड़ दे।


दिल्ली की मोह था अंदर

ठहर गया थाम कर कलेजा।

बूंदी से उदय को लाने

तुरंत उसने सेनानायक भेजा।


पता नहीं क्यों चिंतित होकर

मन ही मन कुछ सोच रहा था ।

सब कुछ खुदा पर छोड़कर

खुद के पैरो पर खड़ा किए था।


अंतरात्मा की आवाज सदा

जगमग रंग लाती है।

मधुमक्खी के जूठा करने से

सुमन सूख नहीं जाती है।


परिवर्तन तो हर चीज में है।

समय किसका एक सा चला।

बुद्धि भले विपरीत होवे

करोगे भला तो होगा भला।


जो दूसरो की भलाई सोचता

होंगे न कांटे उसके डगर में।

यह मिलन सदैव अमर रहेगा

धरती से लेकर अंबर में।


यह समय बीत जाने के बाद

होने न लगे तेरा मेरा मेरा तेरा।

कैसी होगी इनकी पीढ़ी

कैसा होगा भविष्य हमारा।


जब हमे भुला दिया जायेगा

क्या इतिहास का शान होगा।

अतीत में कोई झांकेगा नहीं

आगामी समय धर्म प्रधान होगा।


धर्म से सब पहचाना जायेगा

नाम से सब कुछ जाना जाएगा।

जो होगा वर्चस्वशाली

दूसरे का पहचान छीनना चाहेगा।


समुद्र तेज सुनामी लाकर

समता का दीप बुझाएगा ?

इस सुंदर पवन बंधन को

इतिहास संजोकर रख पाएगा।


समय छीन नहीं सकता

किस्मत जिसका विधाता ने रचा।

चिंतित नजरे खिलने लगी

जब महलों में उदयसिंह पहुंचा।


कर्मवती का मन प्रसन्न हुआ।

जैसे घटाएं देख कर मोर।

हुमायूं राजतिलक कराके

चल दिया दिल्ली की ओर ।


कर्मवती: जीवन भी बचा साम्राज्य भी बचा

चलेगी हमारी पीढ़ी अब।

पुरखो का विरासत बचा

कृतज्ञता एहसानमंद सब।


हृदय दुआ की उपहार लिए

राजाधिराज रहो शतायु हो।

सर्वजन सुखी रहे शासन में

आपके पुत्र सम्राट महान हो।


बंधन का फर्ज निभाकर

उसने बड़ी भूमिका अदा की।

जन सेवा का वचन भेंट कर

कर्मवती ने भाई विदा की।


वैमनस्य जब पैदा होगा

वर्चस्व बढ़ेगा धर्म का ।

इतिहास याद रखेगा सदा

आदर्श आत्मीयता बंधन का।


न कोई ईर्ष्या रखे न रक्त बहाए

यदि अतीत से कुछ सीख पाता।

उपयोग करें देश को धनी बनाए

सामासिक संस्कृति धर्मनिरपेक्षता।

                                           मेवालाल शोधार्थी का.हि.वि.


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