जूते पर जीभ कविता विवेक कुमार तिवारी

 जूते पर जीभ

करबद्ध

नतग्रीव

रीढ़हीन

तुम क्या करने आये हो?


हर बात में हाँ

विचारशून्य

क्षुद्रबुद्धि

तर्कहीन

तुम क्या बनने आये हो?


किसी अकेली रात में

हांथ को माथे पर रख

कोई मुक़म्मल ख़्वाब नही देखा क्या?


हरी-भरी रंग-बिरंगी वादियों में

बाहों को फैलाकर 

कभी उड़ना नहीं चाहा क्या?


तब तो यार तुम सब

बहुत बड़े चमर चट्टू हो

बेवकूफ वजीरों के 

भाड़े के टट्टू हो।


फिर तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता

कितना भी सहलाओ

यार तुम्हारा जी नहीं भर सकता


तुम सब के सब सार्वजनिक स्थल का

वह कोना हो

जहाँ कोई थूक जाए

बिना पेनी के दोना हो

जो कहीं लुढ़क जाए


देखो यार फिर मेरी बात मानो

भले बुरा लग रहा हो

तुम्हारा अस्तित्व 

किसी वेश्या की बेडशीट

और शौचालय की सीट से

ज्यादा नहीं है।


खैर तुम सब एक हीं प्रजाति के लकड़बग्घे हो

अपना दुःख-सुख बांटते रहो

वो थूकते रहें तुम चाटते रहो।


विवेक कुमार तिवारी

शोध छात्र, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

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