गजल 2 ~ आशीर्वाद त्रिपाठी
हंसते हंसते ढल जाता हूँ मैं किरदारों में ।
मेरा रोना भी उनको ,अदाकारी लगती है।।
रूठ गया हूँ मैं दुनिया की ,हर जिम्मेदारी से।
कुछ न करना भी अब ,जिम्मेदारी लगती है।।
ये कुचक्र , ये राजनीति, ये सैन्य प्रदर्शन।
किसी जंग की ये कोई तैयारी लगती है।।
बैठे बैठे खो जाता हूँ तेरे ख़यालों में।
मुझे इश्क़ की ये कोई बीमारी लगती है।।
अक्सर मुझसे वादे करना, और मुकर जाना।
यार तेरी नीयत भी अब सरकारी लगती है।।
देख आचरण इन शहरातू बालाओं के।
मुझे गांव की हर लड़की संस्कारी लगती है।।
आशीर्वाद त्रिपाठी
Comments
Post a Comment