वे दिन ~ रविन्द्र सिंह

 अंधेरे दिल के कमरे में

तुम्हारा अचानक से आना 

जैसे बंजारे को कोई घर मिलना था।

आज भी याद है वे दिन

खी खी सी मुस्कान 

कैसे शून्य पड़े हृदय में

सांसों का ऑक्सीजन बन गई

आज भी याद है वे दिन

तुम्हारा आना जैसे पतझड़ पौधो को

बसंत की चंचल बात से पर्णहरित कर देना।

आज भी याद है वे दिन

लगता उस सुदूर दिखाते किनारे से 

जरूर मेरा कोई नाता है।

शायद सुख इसलिए मेरे पास नहीं आता।

टीले की तरह ठहराव का बनना तुम्हारा

आज भी याद है वे दिन।

गुलाबो को देख उनकी पंखुड़ियों को

किसी के लिए सहेजता 

वह माली

आज भी याद है वे दिन।


                     ~रविन्द सिंह बीएचयू १७/२/२०१९

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