आधुनिक आस्था ~ रविन्द्र सिंह

 आधुनिक दौर में

आज भी

आस्था के दीप को जलाते देखा है।

अंशों के चौखट पर

अंश के सुख के लिए

किसी नवविवाहित दंपत्ति को

सिर पीटते देखा है।

आस्था 

आशाओं को बांधती है।

उस संस्कृति को 

सैलाबो में ढलते देखा है।

कुंभ में स्नान करते

कांपते नर को देखा है।

उन पाषाण की मूर्तियों में

प्राण प्रतिष्ठित करने वाली

जनता को देखा है

आधुनिकता के दौर में

आज भी

आस्था के दीप जलते देखा है।

हां इसलिए

मजहबों के नाम पर

उस आराध्य को

तिरपालो के नीचे

कांपते देखा है

वोटो के लालच ने

भगवान को  उनके घर से

बेबस बाहर रहते देखा है।

आधुनिकता के दौर में

आज भी आस्था के दीप जलते देखा है।

                   ~ रविन्द्र सिंह बीएचयू 


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