गंतव्य कविता ~ राहुल कुमार सहाय
जाना था मुझे
उस पार वहां,
स्मृति विहीन सृष्टि जहां
ताकती है मुझे,
लालायित, आतुर और निर्भय
आत्मचेतस हूँ मैं?
अपनी यात्रा में!
नदियाँ, पहाड़, निर्झर, ग्राम,नगर
कूल किनारा और समंदर
अखिल विश्व और बृह्मांड
हो गए मेरे चलित मार्ग
देखता
क्या केवल मैं?
झरोखा, ताला और दरवाजा
सिमट गया हूँ मैं
हाँ, ठिठक गया हूँ मैं!
— राहुल कुमार सहाय शोधार्थी बीएचयू
Comments
Post a Comment