प्रेमालाप ~ राहुल कुमार सहाय

 पढ़ने बैठा हूँ जब से, याद तुम्हारी आती है

एक प्यारी कोमल मुस्कान, मन बह जाती है

लगाव हुआ है क्या या , प्रेम आमंत्रण मानूँ

जितना डाँटू मन को, उतनी ज्यादा उलझन पाऊँ

पा कर स्नेह संसर्ग तुम्हारा, प्रेम विजेता कहलाऊँ

या फिर मन को कोस कोस अपना हिय जलाऊं

देर रात तक नींद न आवे, दिन में पीड़ा पाऊँ

अगर चली आओ मुझ तक तो ही कृपा पाऊँ

जब से देखा बातें की तुमसे, हुई सुखद अनुभूति

फिर अकेला रहा तड़पने, हिय को कैसे समझाऊं

न तो भावत भात व्यंजन, न ही मिष्ठी ठंडाई

दिन रात चले है मनवा, नही ठौर कोउ पाऊँ

तुम तो जानत सब भली भाँतिन फिर का तुमे सुझाऊँ

मेरो मनवा भागत जाबे, कैसे इसे ठीक ठहराऊँ

तुम जो हँसके बतिया जाती हो, मन ही मन मुस्काऊं

अपनो भेद न प्रकट करोंगो, चाहे मिलो न मिलाऊ 

जग में होगी खूब हंसाई, फिर कैसे किसको मुँह दिखाऊ

परवाह नहीं आलोचना का , स्वागत है यौवन का 

        

    – राहुल कुमार सहाय शोधार्थी बीएचयू 

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