गांव की धरोहर कविता ~ नंदलाल भारती

 

गांव में कभी विशाल बरगद

और महुआ के पेड़ 

हुआ करते थे,

बरगद तो बारादरी जैसे

बारात समा जाती थी

छांव में

एक जमाना था जब

बरगद की छांव

रहट चला करती थी

रहट से सींचती थी फसलें

बरगद की छांव सुस्ताया करते थे

भेड़ बकरियां चुगा करती थी

हरी हरी नन्ही -नन्ही चाहे

खेतो में काम करने वालों के लिए

बरगद के पेड़ हुआ करते थे

जन्नत

खैर रहट क्या पुराने संसाधन

कबाड़ में बिक गए

बरगद महुआ के पेड़ों के

कोई सबूत नहीं है अब

कुओं के अवशेष तो बचे हैं

अबैध कब्जे में हैं किसी न किसी

दबंग के

जमीन गांव समाज की 

हुआ करती थी,

रहट,पुर और कोलाहाड़ की

कुछ नहीं बचा है अब

सरकारी कागजों में निशान हो

शायद

वास्तव में सब अतिक्रमण की

भेंट चढ़ चढ़े हैं

गांव की पहचान खो रहे है

पोखरी तालाब अतिक्रमण के

शिकार हो गये हैं

सार्वजनिक मिल्कियत अब

निजी हो चुकी है या

हो रही है,

कब्रिस्तान तक अतिक्रमण की चपेट में हैं

सोचो क्या बचेगा ?

अब गांव में

बरगद के पेड़ की तरह

गांव समाज की मिल्कियत के,

पोखरी, तालाब,कुये सब 

चोरी हो जायेंगे एक दिन

गांव की लूट जायेगी पहचान

सरकारी नक्शे में शायद

शेष रहे निशान

गांव के जिम्मेदारों से

विनय हमारी

बचा लो गांव की धरोहरें

वरना

प्राकृतिक धरोहरों के सुख से

वंचित रह जायेगी

आगामी पीढ़ी तुम्हारी ।


                             ~ नन्दलाल भारती

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