प्रवासी मजदूर कविता ~ अंकित दुबे

जितना पानी बचा, हिचकियां खा गईं
 कुछ हुकूमत की ख़ामोशियां खा गईं।
 दो बताशे थे वो, चीटियां खा गईं
 फ़िर बची रोटियाँ, पटरियां खा गईं।
 इस सियासत के आरोह -अवरोह में
 हम तो हर पल ही चढ़ते-उतरते रहे। 
 तुमने राशन दिया काग़ज़ों पर हमें
 और हम हैं कि सड़कों पे मरते रहे। 
 एड़ियां घिस गईं अब तो ईमान की 
 कितनी कीमत बची है मेरी जान की।
 हादसों को तो पहले पहचाना नहीं 
 बाद करते हो पहचान सामान की। 
अपनी बातों में इतना जो पूजा हमें
 हमको शायद तुम पत्थर समझते रहे।
 तुमने राशन दिया काग़ज़ों पर हमें
 और हम हैं कि सड़कों पे मरते रहे। 


                                                           -अंकित दुबे, शोधार्थी बीएचयू

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