गजल ~ गौतम कुमार
ज़िद तो टूटने की थी, पर बिखर गया है कोई
लम्हे में कई मौत एक साथ मर गया है कोई
अब के फिर नहीं टूटा सिलसिला-ए-उम्मीद
कि फिर अपने वादे से मुकर गया है कोई
कुछ खोये-खोये, कुछ मुरझाए से रहते हैं
जबसे चमन की बात गुलों से कर गया है कोई
तुम भी आज़ाद हो और हम भी आज़ाद हैं
ये फ़िज़ूल की बातें हैं, बस कर गया है कोई
अब जफ़ाओं में भी करते हैं वफ़ा की उम्मीद
उल्फ़त की राहों में इतना संवर गया है कोई
इक तेरे ज़ुल्म हैं, इक तेरा ख़्वाब-ए-इंक़लाब
क़त्ल होकर लौटा, जिधर-जिधर गया है कोई
ये हुक्म है कि हम उनकी हदों में हों दाख़िल
उनके मोहल्ले में कहीं सूअर मर गया है कोई
~ गौतम कुमार शोधार्थी जेएनयू
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