मार्क्सवादी मनोविश्लेषण आलोचना ~ मेवालाल

              –  मार्क्सवादी मनोविश्लेषण – 

मैंने जेएनयू से परा स्नातक (2018–2020) किया। जब नामवर सिंह की मृत्यु ( 2019) हुई थी तब मैं जेएनयू में था। उनके देहावसान पर हिंदी के प्रोफेसर्स ने दुख व्यक्त किया और उनके साहित्यिक योगदान को सराहा । मुझे लगा कि हां सचमुच वो बड़े आलोचक थे। वे मार्क्सवादी आलोचक थे। मेरा भी मन पढ़ने का बहुत शौकीन था। मैं पुस्तकालय में बैठकर मार्क्सवाद से संबंधित सारी किताब पढ़ डाली। फिर मैंने सोचा जो मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका प्रयोग कहां किया जाय। तो मुझे दलित साहित्य से बेहतर कोई रास्ता न दिखाई दिया। मैं एमए के बाद पीएचडी भी करने का सोच रहा था तो मैंने मार्क्सवाद का दलित साहित्य में प्रयोग करने को सोचा। इसी पर मैंने शोध प्रस्तावना बनाया। इसी बीच करोना ने भी दस्तक दी। विश्वविद्यालय में सीट भी कम आई। और दो तीन जगह कोशिश करने पर भी एडमिशन नहीं हुआ। मैने सोचा मेरा विषय गलत है। फिर मैंने मनोविश्लेषण पढ़ना शुरू किया ताकि अज्ञेय की कहानियों में उसका प्रयोग कर सकूं और नया शोध प्रस्ताव तैयार कर सकूं। तब मुझे दोनो में कुछ समस्या या कहू तो अंतर दिखाई दिया, और इस अंतर को मैंने पूरक के रूप में देखा । इस विचार को मैंने नोट करके रखा ताकि जब कहीं मेरा एडमिशन हो जायेगा तब इस पर समय निकाल कर विस्तार से सोचूंगा और लिखूंगा ।

पढ़ते हुए मैने पाया कि हिंदी साहित्य कुछ नया नहीं हो रहा है। हमारे पास पुराने प्रविधि ही है पढ़ने और पढ़ाने के लिए। हिन्दी साहित्य में ऐसी कोई तकनीकी नही है जो हमारे भाव विचारो और व्यवहार के पीछे आर्थिक कारणों की पहचान कर सके । और उन कारणों को हटाकर जनता को सुख देने की बात कहे। साहित्य में हसिय के समाज के लिए कुछ नया अर्थ खोज सके, तो मैंने इसी दिशा में एक कदम आगे बढ़ाया। मुझे पहले इसी बाते कई अंग्रेजी के विद्वानों ने कही है पर जैसा मैंने सोचा है वैसा उन्होंने नहीं कही है। मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद दोनो का मंथन करके मक्खन निकाला और उसे नया नाम दिया – मार्क्सवादी मनोविश्लेषण।

सिंगमंड फ्रायड मनोविश्लेषण में व्यक्तियों के सामाजिक और नैतिक दमन की बात करते हैं और कार्ल मार्क्स व्यक्तियों के आर्थिक दमन की बात करते हैं। इस प्रकार मनोविश्लेषण में आर्थिक दमन की बात नहीं है और मार्क्सवाद में सामाजिक और नैतिक दमन की बात नहीं है। फिर वह एक दूसरे के पूरक दिखाई देते हैं। इन्हीं दोनों को एक में मिलाने का प्रयास किया गया है। हमारे मन की निर्मिति तथा हमारे भाव, विचार, व्यवहार के पीछे आर्थिक स्थिति को पहचानने की कोशिश की गई है। यद्यपि मार्क्सवाद में विचारधारा अधिरचना है। और उसका आधार अर्थ है। और इसी रचना में सामाजिक नियम और नैतिक नियम भी आ जाते हैं। मार्क्स के आर्थिक आधार को लेकर मनुष्य की चेतन मन की निर्मित और उसके अर्थ चेतन तथा अवचेतन मन की अभिव्यक्ति तथा हमारे भाव विचार व्यवहार को स्पष्ट करने के लिए मार्क्सवादी मनोविश्लेषण तैयार किया गया है। इसका एक उद्देश्य नए शब्दार्थ की खोज है।

साहित्य मनुष्य के भाव ,विचार तथा व्यवहार का अविधा, लक्षणा, व्यंजना में संगम है। इन्ही भावों विचारों और व्यवहारों के पीछे चाहे वे सकारात्मक हो या नकारात्मक’ आर्थिक पहलुओं को स्पष्ट करने की जरूरत है। साहित्य में व्यक्ति के व्यक्तित्व चाहे वे अच्छे हो या बुरे’ के विकास को स्पष्ट करने के लिए उसके पीछे आर्थिक विश्लेषण की पद्धति हमारे पास नहीं है। इसी कमी को पूरा करने की कोशिश है। पारिवारिक या सामाजिक संबंध भी बहुत कुछ अर्थ पर आधारित होते है। हमारी प्रस्थिति भी अर्थ निर्धारित करती है। इनके साथ छल कपट चोरी बेईमानी लूट जैसे अनैतिक कर्म के पीछे आर्थिक भूमिका को पहचानने की जरूरत है। स्वप्न, पूर्व दीप्त और उत्तर दीप्त जैसे क्रियाएं व्यक्ति को खोलती है। उसके पीछे आर्थिक कारणों की खोज करनी चाहिए। ताकि दमित व्यक्तित्व की पहचान की जा सके जिससे पाठक और समाज को व्यक्तित्व के विकास का एक रास्ता मिल सके। इसमें स्त्रियों की पराधीनता के पीछे उनके वस्तुकरण की प्रक्रिया की पहचान की गई है कि वे किस प्रकार पुरुषों की संपत्ति है। और यह संपत्ति होने से उनके व्यक्तित्व ,विचार अभिव्यक्ति किस प्रकार होंगे’ को स्पष्ट किया गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि इन समस्या को हटाकर उनकी मुक्ति स्थापित हो सकती है।

मानव जीवन का लक्ष्य सुख प्राप्त करना होता है। हर व्यक्ति चाहता है कि वह सुखी रहे पर समाज में व्यक्तियों के विकास में उनकी आर्थिक हीनता के साथ धर्म और सामाजिक नियम प्रमुख बाधा बन कर आते हैं। जहां एक ओर धर्म और सामाजिक नियम व्यक्तियों को यथास्थिति में रखते हैं । वहीं उनकी आर्थिक हीनता उनको उनके स्तर से नीचे ले जाती है। इस प्रकार व्यक्तियों का दमन होता है। इसमें इसी प्रकार के दमन की पहचान की गई है। ताकि नए शब्दार्थ तक पहुंचा जा सके। उनके समस्या को चिन्हित करके समाधान प्रस्तुत किया जा सके । तभी व्यक्ति विकास कर पाएगा और जब विकास कर पाएगा तभी सुख प्राप्त होगा । लोक कल्याणकारी राज्य में जनता को भगवान या भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता । सरकार को पूरा ध्यान चुनाव जीतने या कुर्सी पर बने रहने की तरफ नहीं लगाना चाहिए बल्कि लोगों की अपेक्षा और जरूरत का ख्याल रखना चाहिए । ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए जिससे व्यक्तियों को विकास का पूरा अवसर मिले और वह उसका उपयोग कर सकें । राज्य या सरकार को व्यक्तियों की सुरक्षा के साथ उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए ताकि वे अपनी रूचि और क्षमता के अनुसार खुद का विकास कर सके। जहां ऐसा होगा व्यक्ति सुख प्राप्त करेगा ही ।जहां ऐसा नहीं है वहां इसकी पूरी जिम्मेदारी इस आलोचना की है और रचना की भी है कि वह ऐसे वातावरण को बनाने का मार्गदर्शन करें। साहित्य में इन्हीं समस्याओं को निर्धारित करना है। क्योंकि साहित्य में पाठक स्वयं को महसूस करता है। साहित्य जनसमूह का एक इकाई है । जब पाठक अपनी समस्याओं को स्पष्ट होता पाएगा तो उसे सुख मिलेगा और हल करने की कोशिश करेगा तब समस्या हल होगा। तब उसको अधिक आनंद प्राप्त होगा । आज भी शास्त्रीय रचना और आलोचना व्यक्ति को आनंद देने की उथली बात करते हैं। जब तक व्यक्ति की इच्छा अधूरी है या व्यक्ति का सब नहीं बना है। चारो तरफ से सब व्यवस्थित नहीं है।( इसको एक उदाहरण से स्पष्ट कर सकते है। मान लीजिए कोई व्यक्ति अपने फसल की रखवाली के लिए जा रहा है और उसे रोककर कहा जाय कि यहां हास्य कविता होगी। या यहाँ ईश्वर की मधुरमय कथा होगी। बैठकर सुनो कल्याण होगा अगर व्यक्ति को बैठा दिया जाता है। और बैठकर सुनने लगता है तो वह आनंद नहीं प्राप्त कर सकेगा। उसकी आत्मा साथ नहीं देगी। क्योंकि उसके खेत में फसल का नुकसान होगा। इसके विपरीत जिनका चारों तरफ से सब व्यवस्थित होगा, वही आनंद का उपभोग कर पाएंगे) तब तक शास्त्री रचना और आलोचना व्यक्ति को आनंद नहीं दे सकते हैं। इसी कमी को पूरा करने के लिए मार्क्सवादी मनोविश्लेषण आलोचना गढ़ी गई है। हिंदी आलोचना को इसका समर्थन करना चाहिए।

साधारण स्वास्थ्य जीवन में व्यक्ति का दमन मात्र सामाजिक और नैतिक दबाव के कारण नहीं होता बल्कि आर्थिक दबाव के कारण भी होता है। जो सामाजिक संरचना हमें दिखाई देती है। उसे स्वामी वर्ग ने बनाया है तथा उसे अपनी रूचि और आवश्यकतानुसार विकसित किया है। उसे बनाए रखने के लिए अनुचित कोशिश भी करता है। यहाँ तक कि समाज की संस्कृति, नैतिक मूल्य, सामाजिक नियम, कायदे सहित पूरा ढांचा स्वामी वर्ग द्वारा विकसित समाज की देन है। इस तरह साहित्य में जो अर्थ प्राप्त है वह सत्ता वर्ग का है। इसलिए नए अर्थ को खोजकर निकालना है। अर्थ चेतन मन ( हमारे बहुत सारे भाव और विचार हमारे आर्थिक पहलुओं द्वारा संचालित होते हैं। जैसे अगर किसी के पास चार सौ रुपया है और वह कमीज (शर्ट) खरीदने जाता है। तो वह चार सौ या उससे कम कीमत वाला कमीज खरीदने की सोचेगा या खरीदेगा। वह पांच सौ रुपया वाला या अधिक कीमत वाला कमीज शायद ही खरीदें क्योंकि उसे अपनी स्थिति का भाव रहता है। इस प्रकार हमारे भाव और विचार आर्थिक पहलुओं द्वारा संचालित होते हैं। यही अर्थ चेतन मन है।) व्यक्ति को संस्कृति उसका रहन-सहन, पहनावा, खानपान के सामान ही उसकी सोच, विचार और व्यवहार आर्थिक पहलुओं द्वारा प्रभावित एवं संचालित होते हैं। आर्थिक हीनता के कारण व्यक्ति अपनी इच्छा और रुचि को स्वाभाविक रूप से दबाता है । सामाजिक संस्कृति के द्वारा नैतिकता में त्याग की जरूरत समझाई जाती है। वास्तव में जो अभिव्यक्ति और उपभोग चाहती है पर दमन में व्यक्ति का सोच विचार और व्यवहार विकृत हो जाता है। दास चित्तवृत्ति, चित्तवृत्ति का विकास इसी प्रकार के दमन से होता है। आगे चलकर आर्थिक हीनता और असुरक्षा इसे मजबूत बनाते है। इसी विकसित अर्थ चेतन मन को खोजने की जरूरत है। जैसे गोदान में होरी का कथन ‘ जब दूसरो के पैरो तले गर्दन दबी हो तो उन पावों को सहलाने में ही अच्छाई है’ इस प्रकार के कथन के पीछे उसकी आर्थिक विपन्नता है। जहाँ आर्थिक विपन्नता होगी वहाँ ऐसे ही अधीन चित्तवृत्ति वाला अभिव्यक्ति (विचार या कहावत आदि) ही पैदा होगा। जो शोषण को मजबूत बनाते है।

जब से समाज में मुद्रा का चलन हुआ है तब से उसका मूल्य लगातार बढ़ रहा है। मानव का उद्भव मुद्रा के जन्म की बहुत पहले हुआ है पर वर्तमान में मुद्रा का मूल्य मानव के मूल्य से अधिक है। जबकि मुद्रा का महत्व मानव जीवन में होना चाहिए जीवन से परे नहीं होना चाहिए। उसका महत्व जीवन से परे है तो सरकार का कर्तव्य है कि उस पर अंकुश लगाए। क्योंकि मानव कल्याण और उसका अस्तित्व सर्वोपरि है। आज मुद्रा मूल्य और मानव मूल्य दोनों को एक साथ परखने की जरूरत है। औद्योगिकीकरण से पुनर्जागरण की शुरुआत हुई। नगरों की स्थापना हुई। बाजार लगा और व्यापार बढ़ने लगा। उपनिवेश का दौर भी आया । और अब पूंजीवाद। इन सभी स्थितियों से गुजरते हुए मुद्रा का मूल्य अधिक बढ़ा है और अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति भी। ऐसे पूंजीवादी और बाजारी युग में पूंजी, लाभ ,उत्पादन और उपभोग का ही महत्व है। पूंजी के स्थान पर व्यक्ति ,लाभ के स्थान पर कल्याण और उत्पादन और उपभोग के स्थान पर प्रकृति और मानव के स्वास्थ्य का महत्व नहीं है। बड़ी बात यह है कि यह सब हो रहा है और जनतंत्र दर्शक बना देख रहा है । समाज में दो वर्ग विशेष रूप से दिखाई देते हैं । एक गरीब और दूसरा अमीर। पूंजीवादी युग में गरीब और अमीर के बीच अंतर लगातार बढ़ता जाता है। गरीब लोगों के पास जो आय है। वह उनके लिए पर्याप्त नहीं होता है। वह खाना पीने, पहने और स्वास्थ्य पर खर्च करने भर का ही होता है। जब तक उनके आय या आय के स्रोत में वृद्धि होती है। या उनके घर में नई पीढ़ी पैसा कमाने को तैयार होती है। तब तक वस्तु मूल्य बढ़ जाता है और मुद्रा मूल्य घट जाता है। वे पुना प्राथमिक आवश्यकता ( भोजन, आवास, स्वास्थ्य, वस्त्र ( आदि) अधिकारों का उपयोग ) पूरा नहीं कर पाते है। या कहे कि राज्य में प्राथमिक आवश्यकता को पूरा करने और पूरा करने के बाद विकास करने का अवसर ही नहीं रहता ऐसे में मौजूद पीढ़ी और तैयार अगली पीढ़ी भी गरीबी में रहने को बाध्य होती है। दूसरी ओर साधन संपन्न लोग अधिक से अधिक धन अपने पास रखना चाहते हैं और उसका संचय भी करते हैं। ऐसे में पूंजी लगातार एक जगह केंद्रित होती जाती है और दूसरे लोग निर्धन होते जाते है। ऐसे में निर्धन व्यक्तियों के चेतन मन का विकास नहीं हो पाता है और व्यक्ति अपना मूल व्यक्तित्व खो देता है। इसके अभाव में विवाद ,लड़ाई , छल कपट चोरी बेईमानी, संप्रदायिकता, रूढ़िवाद, पाखंड, उग्र धार्मिकता आदि पैदा होते हैं। यहाँ तक कि आत्महत्या का कारण व्यक्तित्व न समझ पाने के कारण होती है। व्यक्ति को अपने हृदय दिमाग आत्म और देह को समझना चाहिए । व्यक्ति जब हर जगह व्यक्ति अपना व्यक्तित्व खोज सकेगा तभी सुखी समाज का निर्माण हो। जब व्यक्ति को अपना निजी व्यक्तित्व मिलेगा तो वह अपनी बात कह पाएगा। और जब वह अपने विचारों को संस्थागत बनाएगा तो देश के विकास में चार चाँद लग जायेगा। इसी समस्या को साहित्य में स्पष्ट करने की जरूरत है और यह मार्क्सवादी मनोविश्लेषण इसे स्पष्ट करने की तकनीक है।

व्यक्तित्व हीनता की अभिव्यक्ति प्रेमचंद के गोदान उपन्यास तथा श्योराज सिंह बेचैन की कहानी अस्थियों का अक्षर में दिखाई देता है। गोदान में होरी चौधरी को बांस बेचना चाहता है। वह चौधरी से मिलकर बीस रुपए प्रति सैकड़ा के हिसाब से पचास बांस बेचने का सौदा करता है। पर वह चौधरी से मिलकर पंद्रह रुपए प्रति सैकड़ा के हिसाब से भाइयों में दिखाना चाहता है। ताकि भाइयों संग कपटकर अधिक पैसा अपने पास रख सके पर अंत में उसकी बेईमानी उजागर हो जाती है। सवाल यह उठता है कि वह ऐसा अनैतिक कार्य क्यों करता है। वह भी अपने भाइयों के साथ ? उत्तर है – उसकी आर्थिक हीनता उसे ऐसा करने की इजाजत देती है। समाज की संरचना ही ऐसी है कि वह भाइयों से अलग होकर बेईमानी कर सकता है। पर अपने भाइयों के साथ मिलकर समाज की संरचना को चुनौती नहीं दे सकता है। अस्थियों का अक्षर कहानी में डालचंद सौराज की मां को एक रुपए की चोरी के आरोप में पीटता है। जो उसके रिश्ते में भाभी है। उसके पीटने का एक कारण यह दिखाई देता है कि डालचंद के पास जितना पैसा है वह उसकी इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। दूसरा डालचंद के पास पैसे का जो स्रोत है। उसमें श्रम और जोखिम अधिक है। बदले में प्राप्त धन बहुत कम है। इसलिए वह उसे पीटता है। दूसरी ओर से देखें तो स्पष्ट होता है कि स्त्रियों के पास धन-संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है। डालचंद की निगाह में वह अपने इस सीमा का उल्लंघन करती है। इसलिए पीटी जाती है। पर वह पीटने का विरोध नहीं करती है। उसकी यही चेतनहीनता उसकी देह को पुरुषों की संपत्ति बनाता है। इसलिए संपत्ति को संपत्ति रखने की क्या जरूरत है। दोनों के यहां विचार और व्यवहार आर्थिकहीनता के कारण विकृत है। इसलिए एक तरफ अर्थाभाव के कारण सगे भाइयों से छल है। दूसरी ओर अर्थाभाव के कारण सौराज की मां का दमन है। दोनों तरफ टूटी व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति आर्थिक हीनता की उपज है । होरी और डालचंद का व्यवहार व्यक्ति विरोधी तथा प्राकृतिक है। यही मार्क्सवादी मनोविश्लेषण है।

आर्थिकहीनता और समाज की संरचना ऐसी होती है कि वह लोगों को अपने अनुसार अभ्यस्त बना लेती है। यदि किसी कारणों वश किसी में चेतना आती है और आर्थिक दमन के खिलाफ आवाज उठाते हैं या विद्रोह करते हैं तो उससे स्थिति नहीं बदलती । इसी प्रकार की दीनहीनता तथा अभ्यस्तता में मानव की बहुत सारी इच्छाएं अवचेतन मन में चली जाती है। इच्छाएं जिसकी पूर्ति अर्थ से भी हो सकती थी पर नहीं हो पाती है। क्योंकि प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में व्यक्ति की जिंदगी बीत जाती है । यही इच्छाएं व्यक्तियों के स्वप्न में चलती हैं। जो व्यक्ति को पूर्णता खोल कर रख देती हैं। जैसे स्वप्न में व्यक्ति गाड़ी पर बैठकर यात्रा करता है । अच्छी-अच्छी जगह अकेले घूमते है और आनंद लेते है। कभी-कभी व्यक्ति सपने में अच्छा अच्छा भोजन करता है । कभी-कभी व्यक्ति को स्वप्न में पैसे बिखरे मिलते हैं। वह चुन चुन कर इकट्ठा करता जाता है। (यहां तक ऐसा भी होता है वह पैसा हाथ में लेकर मुट्ठी बंद कर लेता है और जब जागता है तब मुट्ठी खोल कर देखता है तो कुछ नहीं रहता है ।) (कहीं न कहीं व्यक्ति को भयभीत करने वाले स्वप्न या खुद की दैवीय अभियक्ति इच्छा पूर्ति न होने के कारण होती है।) व्यक्ति के पास गाड़ी नहीं रहता है । अगर किराए पर घूमना चाहे तो भी उसके पास तीव्र आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही पैसे खर्च करने की क्षमता होती है। ना की यात्रा के लिए। उसके पास सामंती काम ही रहते है जिसमें उसके दिन बीतते जाते है। ( सामंती काम ऐसा काम है जिसको व्यक्ति करता है पर उसमे उन्नति नहीं होती। मात्र गुजारा भर होता है।) वहां ऐसा स्वप्न स्वाभाविक है। स्वप्न में अकेले घूमने ( यह सपना स्त्रियां अधिक देखती है।) का मतलब है भौतिक जगत में सुरक्षा का अभाव। यहाँ अधिकारों का उपयोग भी प्राथमिक आवश्यकता है। जिसकी पूर्ति नहीं हो पाती। यह भी एक प्रकार का दमन है। व्यक्ति रूखी सूखी खाकर गुजर-बसर करता है। अर्थाभाव के कारण वह अच्छा स्वादिष्ट और पोषण युक्त भोजन के बारे में सोच भी नहीं सकता तब उसकी इच्छा दब जाती है और स्वप्न में चलती है। व्यक्ति के पास हमेशा आत्मस्थापन की इच्छाएं तथा उपभोग की इच्छाएं होती हैं पर उसकी पूर्ति के लिए उसके पास पैसा नहीं और समाज में स्थान ( स्पेस) भी नहीं होता है। और वह इच्छाएं अवचेतन में चली जाती हैं परिणाम स्वरूप मानसिक क्षतिपूर्ति के लिए स्वप्न में पैसा बिखरा पड़ा मिलता है। जैनेंद्र की परख उपन्यास में प्रेम के अपराध में पीटकर जब मृणाल को चारदीवारी में बंद कर दिया जाता हैं। तब वह दिवा सपने देखती है। वह छत पर बैठकर चिड़ियां देखती है। और वह चिड़िया हो जाना चाहती है। यह पितृसत्तात्मक नियंत्रण है जो उसे चिड़िया होने की इच्छा पैदा करता है। वह चिड़िया इसलिए होना चाहती है कि उसके पास अपनी इच्छा होती है। अपना घर होता है। चारों दिशाएं उसके लिए खुली रहती है। वह स्वच्छंद रहती है। चिड़ियां होने के भाव के पीछे उसकी शीला की भाई से प्रेम की स्थापना है। उसकी इसी स्वच्छंदता या स्वप्न को कुचलने के लिए उसके भाई और भाभी दुहाजू से शादी कर देते है जो उम्र में पचास साल का होता है। दुहाजू के साथ उसका वैवाहिक जीवन ठीक नहीं चलता है। उससे जन्मी बच्ची की मृत्यु हो जाने पर वह उसे छोड़ देता है और वह घर नहीं जाती है क्योंकि भाई ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि वह यहां न आए। और वह भाई की इज्जत के खिलाफ होगा । वह एक अजनबी कोयले वाले के पास जाती है। वहां भी उसका गुजर बशर नही होता है। फिर वहां बड़े आदमी के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देती है। जब कोयले वाला उसे छोड़ देता है । जब प्रमोद उसी घर में एक लड़की को देखने जाता है तो वह अपने बुआ को वहां देखता है। वह घर ले जाना चाहता है पर वह नहीं जाती फिर उसके सम्मान में वह उस घर को भी छोड़ देती है। अगर उसके पास संपत्ति का अधिकार होता तो शायद उसकी यह दुर्दशा ना होती, पर संपत्ति ना होने की वजह से वह पितृसत्ता की संपत्ति है निजी संपत्ति का वजूद सहित पितृसत्तात्मक नियंत्रण और दमित भावना उसकी दुर्दशा कर देता है। साहित्य में इसी प्रकार के स्वप्न या विचार के पीछे आर्थिक कारणों आर्थिक दमन पसंद या इच्छा में आर्थिक भूमिका की खोज की जानी चाहिए। यहां पूर्व दीप्त और उत्तर दीप्त को भी स्वप्नों की श्रेणी में रखा गया है।

मानव के जीवन निर्माण में सामाजिक पहलू के साथ आर्थिक पहलुओं का भी योगदान होता है। वर्तमान समय में पूंजीवाद और धर्म का अनुचित गठबंधन है। धर्म आस्था और संस्कार का तंत्र है। इस आस्था और संस्कार में प्रभुत्व की भूमिका भी होती है। यह मानक,मूल्य, और नियमों के दैवीय विधान के रूप में प्रभुत्व का संयुक्त तंत्र होता है। जहां पूंजीवाद लाभ के कारण सामाजिक हितों की उपेक्षा करता है। वही धर्म लोगों को नियतिवाद और भाग्यवाद में बांधकर यथास्थितिवाद की रास्ता प्रशस्त करता है। पूंजीवाद गरीबों किसानों कामगारों को लूटता है वही धर्म लौकिक हित की बात ना करके परलोक के हित की बात करता है। पूंजीवाद से समाज में असमानता बढ़ती है। और असमानता सामाजिक विभाजन पैदा करता है। वही धर्म समाज की कृत्रिम विसंगतियों को ईश्वर की इच्छा लोगों की दयनीय स्थिति को उनकी पुनर्जन्म का फल मानता है और इस पर तार्किक सोचने भी नहीं देता। पूंजीवाद से उत्पन्न दोषों को समझाने में धर्म हमारी मदद नहीं करता जिससे मानव जीवन सीधे प्रभावित होती है। वह अनुभव से परे ईश्वर को समझाने में लगा रहता है । दोनों मिलकर व्यक्तियों पर आधिपत्य जमाते हैं। इस आधिपत्य में चाहिए इच्छा वाली ईड व्यक्ति में जब प्रभावी रहता है। तो परिस्थितियों पर विचार करने वाला ग्रंथि सुपर ईगो प्रभावी नहीं हो पाता। जब सुपर ईगो प्रभावी नहीं रहता तो सामंजस्य बिठाने वाले ईगो का सवाल ही नहीं उठता। अधिक कायदे सर पर चढ़ी रहती हैं। इन दोनों के आधिपत्य में व्यक्ति अपनी परिस्थितियों पर विचार नहीं कर पाता । समाज के द्वारा मूल्यांकन का भय भी बना रहता है । शोषण भी हो जाता है और उसे आभास भी नहीं होता है। गोदान उपन्यास में होली की आस्था गाय खरीदने में होती है वह दूध खाने और उनके बछड़ों से खेती करने के साथ परलोक बनाने के लिए गाय उधार खरीदता है। दातादीन से साठ रुपए में बैल खरीद रखा होता है। वह साठ रुपए लौटा चुका होता है। फिर साठ रुपए ब्याज शेष रहते है। फिर भी वह कर्ज पर गाय ले लेता है। और यहीं से उसकी समस्या की शुरुआत होती है। वह दूसरी ओर खेती करने में मर्यादा देखता है। खेत का लगान चुकाने के लिए कर्ज पर कर्ज लेता है। वह साहूवाइन मंगरू, दातादीन आदि का कर्ज रहता है। फिर भी खेती नहीं छोड़ता है । नैतिक मर्यादा और व्यापारिक पूंजीवाद (उपनिवेशवादी दौर में स्थानीय स्तर पर जमीन दारी प्रथा ) होरी की जान लेकर छोड़ती है। वह अपनी स्थिति को देव का विधान समझता है। शुरू से अंत तक सब सहता जाता है। उसकी यह सहनी भावना अभावग्रस्त जिंदगी के कारण विकसित होती है। उसमे ईगो नही दिखाई देता है कि वह अपनी पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर विचार कर काम करे । इस प्रकार धर्म और पूंजीवाद के आधिपत्य में होरी का शोषण होता है। यही मार्क्सवादी मनोविश्लेषण है।

 भारतीय समाज स्त्री एक ऐसी मानव जीव है जिस पर निवेश होता है और यह निवेश निवेशक अपने स्वार्थ और लाभ के लिए करता है। जोरू जमीन जोर का नहीं तो किसी और का। यह मात्र कहावत नहीं है यह लोक चेतना है। यह लोक चेतना समाज का नमूना है। जिसमें स्त्री को जमीन के बराबर माना गया है । स्त्री भी जमीन के बराबर दूसरो की सम्पत्ति है उसका भी एक मालिक होना चाहिए। श्रम के उपयोग के लिए और उत्पादन के लिए। बेटी तो पराया धन होती है उसे एक दिन पराए घर जाना ही है। पराया धन उसे परिवार या माता पिता ही बनाते है पहले धन बनाना फिर पराया धन बनाना उसके शोषण की नींव है। वेश्यावृति की अवैधानिकता भी सिद्ध करता है कि पुरुषों की सम्पत्ति रहेंगी। वेश्यावृति को सरकार इसलिए वैध नहीं करती है क्योंकि उसे अनेक अधिकार और माँग की पूर्ति करनी पड़ेगी और उनका पहचान भी उजागर हो जायेगा और पितृसत्ता टूट जाएगी। उसके पास अपनी संपत्ति हो सकती है अपना घर हो सकता है। वह अपने जीवन का निर्णय कर सकती है। अपने इच्छा अनुसार अकेले भी रह सकती है। जहां एक ओर विवाह संस्था सामान्यता स्त्रियों के लिए जीविका के साधन के रूप में दिखाई देता है। वहीं दूसरी ओर अधीनता या कम स्पेस के कारण वेश्यावृति अपनाने को बाध्य होती है। पुरुष धन संपत्ति का मालिक बनकर या बुर्जुआ बनकर तो कभी परमेश्वर बनकर या दोनों बनकर हमेशा सत्ता में रहा है। पुरुष समझता है कि वह श्रेष्ठ है। बुद्धिमान है। और जो स्त्री है उनमें इन सब गुणों का अभाव रहता है। समाज में पहले से मौजूद पितृसत्ता और सामाजिक नियम, नैतिकता, मर्यादा जो मात्र स्त्रियों के लिए होती है। (पुरुष इससे मुक्त होता है।) स्त्रियों पर बचपन से जवानी तक पिता का नियंत्रण, जवानी से बुढ़ापे तक पति का नियंत्रण तथा पति के बाद उनका देखभाल पुत्र करता है। सारी जिंदगी पारिवारिक और सामाजिक अधीनता में व्यतीत होती है। ऐसे में चाहिए प्रवृत्ति वाली ग्रंथि ईड विकसित नहीं हो पाता है और उनकी इच्छाएं मर जाती है धन संपत्ति का अधिकार ना होने से वह पुरुषों का दास रहती है। दूसरी ओर यदि वह आर्थिक रूप से निर्भर है। तो पुरुषों द्वारा निर्मित सामाजिक नैतिक मूल्यों के अधीन रहती। ऐसे में चेतन होकर भी अचेतन अवस्था में रहती है। इस प्रकार वे खुद का शोषण कर देती है। यह दोनों मिलकर उनको कुसमायोजित करके रखती है और खुद को स्वीकार नहीं कर पाती है। उनके घरेलू श्रम का सम्मान नहीं होता। वह श्रम करती हैं पर संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी नहीं होती। उनकी अपनी इच्छा तो मर ही जाती है और वे निर्णय भी नहीं ले सकती । चाहे वह अपना निर्णय हो या परिवार का निर्णय हो यह उनका निर्जीवपन है। जो उन्हें किसी की मूलधन बनाता है। इसी अधीनता में या कम स्पेस में वे खुद को स्थापित नहीं कर पाती है और देह और दिमाग पर पुरुष का कब्जा रहता है। ऐसे दमन की परिस्थिति में उनमें तार्किक बुद्धि का अभाव स्वाभाविक है। उनके मंदबुद्धि के पीछे यही प्रक्रिया काम करती है। वह किसी की संपत्ति हो जाती है। इसी वजह से शास्त्रों में स्त्रियों की आलोचना की गई है न उनकी परिस्थितियों पर विचार किया गया है। इसलिए वर्तमान में स्त्री लेखिकाएं खुद का ऐतिहासिक परंपरा में मूल्यांकन करती हुई दिखाई देती है–

1. वह सोचती है

      एकांत में

     नतीजे से पहुंचने से पहले ही

     खतरनाक घोषित कर दी जाती है। – स्त्री का सोचना एकांत में कविता– कात्यायनी

2. यह स्त्री

सब कुछ जानती है।

पिंजरे के बारे में

जाल के बारे में

यंत्रणा गृहों के बारे में

उससे पूछो

वह बताती है।

नीले अनंत विस्तार में

उड़ने के

रोमांच के बारे में।

जाल के बारे में पूछने पर

गहरे समुद्र में

खो जाने के

सपने के बारे में

बाते करने लगती है।

यंत्रणा गृहों की बात छिड़ते ही

गाने लगती है

प्यार के बारे में गीत।

रहस्यमय है इस स्त्री की उलटबासियाँ

इन्हें समझो

इस स्त्री से डरो। – इस स्त्री से डरो कविता – कात्यायनी

स्पष्ट है कि स्त्री एकांत में सोच रही है। क्योंकि लोगों के बीच में उसके सोचने का स्थान (स्पेस) नहीं है। वह जैसे ही अपनी इच्छा जो मानव जीवन में उसके अपने लिए कीमती है। को स्थापित करने की सोचेगी उसे कुलटा आदि की संज्ञा दे देकर उसे खतरनाक सिद्ध कर दिया जाता है या गर्म लौह से दाग दिया जाता है। क्योंकि उसकी देह पुरुष का उपनिवेश है। और इस उपनिवेश में वह उसके अनुसार बच्चों को जन्म देती है। उसका पूरा लालन पालन करती है। और पुरुष में रक्षा का भाव उसे संपत्ति बनाता है। इसी कविता का विस्तार कात्यायनी का ‘इस स्त्री से डरो’ कविता है। एक स्त्री का नीले अनन्त विस्तार में उड़ने का भाव,समुद्र में खोने का सपना , प्रेम के गीत गाने की दमित भाव के पीछे पिंजरे, जाल और यंत्रणा गृहों के बारे में पूछने पर इस प्रकार की अभिव्यक्ति दिखाता है कि वह किसी की जमा पूंजी है।

मानव शरीर धारण करने मात्र से कोई मानव नहीं हो जाता। जब तक शरीर के साथ उसके अंदर चेतन मन और उसकी अभिव्यक्त नहीं है। तब तक वह मानव नहीं है। चेतन मन के साथ परिस्थितियों या आसपास के वातावरण को समझने के लिए ईगो भी जरूरी है। मूलभूत जरूरत पूरा ना होने पर व्यक्ति का संवेदनाहीन हो जाना स्वाभाविक है। समाज चाहे जितना नैतिक नियम बना दे वह जरूरत के सामने टूट जाती है। प्रेमचंद के कफन कहानी में दो जगह यथार्थ वर्णन है जो काफी अप्रत्याशित है। पहला घर में बुधिया प्रसव पीड़ा से कराह रही है पर घीसू और माधव अलाव में आलू भून भून कर खा रहे। उसको देखने तक नहीं जाते है। दूसरा जमींदार द्वारा दिए गए कफन के लिए पैसे से कफन ना खरीद कर पूड़ी खाते है। और शराब पीते हैं। कहानी में इन दोनों प्रकार की अनैतिक अभिव्यक्ति हृदय में चुभती भले हो पर स्वाभाविक है।

जिस समाज में धन और धन का वितरण का केंद्रीकरण हो, जहां उत्पत्ति के साधनों पर व्यक्ति विशेष का अधिकार हो, जहां जमींदार के अलावा सारे लोग कामगार हो, जहां पेट भरने का भोजन नहीं है। पेट भर भोजन किए कई दिन हो गए वहां वे आलू खाकर समय काट रहे हैं। वहां घीसू और माधव के पास खेत ना होना स्वाभाविक है । यहां एक अनुपस्थित अर्थ यह है कि वह संपत्ति है। इसी निजी संपत्ति में गर्भ दूसरों के द्वारा दिया गया मालूम पड़ता है । एक जायेगी तो दूसरी आ ही जायेगी। बाद में भूख की प्रधानता है। यहां पर इसलिए वे बुधिया को देखने नहीं जाते। उनका आलू खाकर दोनों का पेट नहीं भरता है और फिर वह कफन के पैसे से पूरी खा जाते क्योंकि आलू खाने से उनका पेट नहीं भरा था। वे कहते हैं कैसा बुरा रिवाज है जिसे जीते जी तन ढकने को चिथड़ा ना मिला हो उसे मरने पर कफन चाहिए यह विचार उनकी भूखे पेट की उपज है। यहां ईड इतना प्रभावी है कि दोनों नैतिकता और आदर्श के बीच खुद को समायोजित नहीं कर पाते है । आर्थिक हीनता और दरिद्रता की वजह से इगो का विकास नहीं हो पाता है इसलिए अनैतिक अभिव्यक्त या अलगाव स्वाभाविक है यही मार्क्सवादी मनोविश्लेषण है।

मार्क्सवादी मनोविश्लेषण नए अर्थ की खोज भी करती है। चूंकि यह मानता है कि सारे संस्थाएं और उत्पाद शासक वर्ग ने बनाया है और साहित्य भी इसी श्रेणी में आता है। इसलिए सत्ता वर्ग से अलग हटकर नई अर्थ खोजने की जरूरत है उदाहरण के लिए कबीर का एक दोहा –

             पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूंजू पहार।

            ताकि से चाकी भली पूजि खाय संसार।।

 यह अंध आस्था पर तर्क मात्र नहीं है। धार्मिक पूजा पाठ का बुद्धिवाद का प्रहार मात्र नहीं है। बल्कि व्यर्थता और उपयोगिता के बीच बातचीत है। ईश्वर प्राप्ति मध्ययुगीन जीवन का लक्ष्य था। उस जीवन के लक्ष्य और ईश्वर प्राप्ति और शासक वर्ग के ईश्वरवाद के खिलाफ चक्की का महत्व है। चक्की के उत्पादन की उपयोगिता ईश्वर की उपयोगिता चक्की के बराबर भी नहीं है। कबीर के ज्ञान का स्रोत विचार जगत न होकर भौतिक जगत है। ज्ञान का स्रोत जो वेद पुराण आदि शास्त्र थे। अनुभव द्वारा उसका नकार है।

संदर्भ : –

 1. मार्क्सवाद – यशपाल,लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद,सप्तम संस्करण 1982

2 मार्क्सवादी चिंतन – ब्रजकिशोर पाण्डेय, दिल्ली कैपिटल पब्लिशिंग हाउस, प्रथम संस्करण 1991

3 शिव कुमार मिश्र– मार्क्सवादी साहित्य चिंतन साहित्य इतिहास और सिद्धांत हिंदी ग्रंथ अकादमी मध्य प्रदेश

4. मार्क्सवादी सौंदर्य शास्त्र की भूमिका – रोहिताश्व , राधाकृष्णन प्रकाशन दरियागंज , संस्करण 1991

5.कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स – लिटरेचर एंड आर्ट

6. अमरनाथ – हिंदी आलोचना की परिभाषिक शब्दावली राजकमल प्रकाशन पांचवा संस्करण 2018

7 सिगमंड फ्रायड – मनोविश्लेषण राजकमल प्रकाशन समूह

8 विकिपीडिया मनोवैज्ञानिक शब्दावली

9 देवराज उपाध्याय : हिंदी कथा साहित्य और मनोविज्ञान

10. गोदान – प्रेमचंद

11. त्यागपत्र – जैनेंद्र

12 हस्तियों का अक्षर – श्योराज सिंह बेचैन

13.कात्यायनी की कविता – कविताकोश.काम

14. कफन कहानी – प्रेमचंद

इसके पूर्ववर्ती मार्क्सवादी मनोविश्लेषक :

1.Wilhelm–marxism psychoanalysis and reality

2. Jean kovel – the Marxist view of man and psychoanalysis

3. David pavon cueller : Marxism and psychoanalysis in or against psychology

4. Eugene victar welfenstein (1993) psychoanalysis Marxism, ground work

5.carl Ratner, Daniele Nunes Henryue Silva– vggotsky and marx towards a Marxism psychology

6.Samo Tomsic – the capitalist unconcious marx and lacan

7. Richard lichtman – the production of desire

              ~ नाम – मेवालाल दिनाँक 19/12/22

           अक्षरवार्ता  में प्रकाशित ,आईएसएसएन न. 2349–7521, इंपैक्ट फैक्टर 7.125, वॉल्यूम xix, इश्यू न. Vii, मई 2023 से



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