भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे ~ अमृता राव
विनायक नरहरि भावे‘विनोबा भावे’जिन्हें महात्मा गांधी ने 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के लिए पहला सत्याग्रही चुना था । यही वह पहली घटना है ,जिसने लोगों का ध्यान विनोबा की तरह खींचा था ।महात्मा गांधी के अध्यात्मिक विरासत के सच्चे शिष्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गागोदा गांव में हुआ था। विनोबा भावे न सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता और भूदान आंदोलन के प्रणेता भी थे। कम्युनिटी लीडरशिप के लिए उन्हें रेमन मैग्सेस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था ।वह इस श्रेणी में यह पुरस्कार जीतने वाले पहले व्यक्ति थे।
विनोबा भावे ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और असहयोग आंदोलन में भी शामिल हुए थे।सरकार ने उन पर ब्रिटिश शासन के विरोध का आरोप लगाकर जेल में भेज दिया।बंदी जीवन में विनोबा जी ने साहित्य साधना की और तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी थी,जिनमें ‘स्वराज्य शास्त्र’,‘स्थितप्रज्ञ दर्शन’,और ईशा वास्य वृत्ति’ प्रमुख रचनाएं थी। गांधी जी के राजनीतिक गुरु गोखले थे तो आध्यात्मिक शिष्य थे विनोबा भावे।7 जून 1916 को विनोबा अहमदाबाद स्थित गांधी जी के कोचारम आश्रम पहुंचे और दोनों को अहसास हुआ कि उनका जन्म जन्म का रिश्ता जुड़ा हुआ है। विनोबा ने कहा था,“ मैं बापू के पास पहुंचा मुझे वहा हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति, दोनों में शांतिमय क्रांति के काम को मेरा जीवन समर्पित हो गया।”
विनोबा भावे गांधी जी के रचनात्मक कार्यों में लगे रहे।गांधी जी की हत्या के बाद गांधीजनों को विनोबा से उम्मीद जगी।15 अगस्त 1947 को देश आजाद तो हुआ था लेकिन वह महज केंद्रीय राजनैतिक सता का हस्तांतरण था। देश की बहुसंख्यक आबादी बेजमीन थी। जमीन पर थोड़े से लोगों का अधिकार कायम था।जमीन का सवाल जनतंत्र से जुड़ा हुआ है।समाजवादी देशों में सहकारी खेती और जनकम्युन के द्वारा भूमि की समस्या का हल खोजा गया।भारत में स्वतंत्रता से पूर्व चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह में गांधी जी के अनूठे प्रयोग की गूंज सुनाई पड़ी।वर्ष 1936 में कांग्रेस की प्रेरणा पर अखिल भारतीय किसान सभा के गठन के द्वारा किसानों के संगठन और समस्याओं पर नए परिप्रेक्ष्य में काम शुरू हुआ।गांधीवादी प्रयोग की अगली कड़ी आचार्य विनोबा के नेतृत्व में भूदान है, जो गांधीवादी प्रयोग का अभिनव प्रयोग था।
अप्रैल 1951में साम्यवादी आतंक से ग्रस्त तेलंगाना के शिवरामपल्ली में सर्वोदय समाज का सम्मेलन तय हुआ ।विनोबा अनेक लोगों के आग्रह के कारण सम्मेलन के लिए निकले, लेकिन पैदल ।आतंक ग्रस्त तेलंगाना का दुख दर्द समझते वे शिवराम पल्ली पहुंचे ।पैदल ही वापस लौटते वक्त पोचमपल्ली में 18 अप्रैल 1951 को वह घटना हुई ,जिससे भूदान आंदोलन का जन्म हुआ ।दलितों की जमीन की मांग सुनने पर विनोबा ने गांववालों से सहज पूछा कि क्या वे इस बारे में कुछ कर सकते है? तब रामचंद्र रेड्डी नामक सज्जन ने सौ एकड़ जमीन दान देने की पेशकश की। रामचंद्र रेड्डी का यह दान उनके स्वर्गीय पिता की इच्छा से जुड़ा था।यह कोई भूमिहीनों का भूमि पर अधिकार मानकर दिया दान नहीं था और न विनोबा ने इस तौर पर दान मांगा था ।इस घटना को इस को एक विशिष्ट संदर्भ घटित प्रसंग माना जा सकता था लेकिन विनोबा की प्रतिभा ने इसके संकेत समझ लिए।उन्होंने देखा की यह तरीका हो सकता है,जो अहिंसक है और जिससे समाज में बिना संघर्ष और कटुता के जमीन का हस्तांतरण हो सकता है और अंतिम आदमी को उसका जन्मसिद्ध अधिकार मिल सकता है।
विनोबा के भूमिदान आंदोलन में लाखों लोगों ने लाखों एकड़ जमीन स्वेच्छा से अपने भूमिहीन भाइयों में बाटने के लिए दान में दी। आज उसकी कल्पना करना भी कठिन लगता है।परंतु यह एक हकीकत है की कई कारणों से जो जमीन न बंट सकी ऐसी जमीन निकाल देने के बाद भी 25 लाख एकड़ जमीन भूमिहीन यज्ञ में गरीबों को,वंचितों को,दलितों को बांट दी गई है।उन्हें मेहनत करके स्वाभिमान के साथ रोटी कमाने का साधन मिला है।भूदान आंदोलन में युवजनों की भागीदारी से मजबूती आई है,काफी जमीनें मिली।इसका अगला चरण ग्रामदान के रूप में सामने आया। आचार्य विनोबा और जयप्रकाश नारायण ने भूदान की अवधारणा को बड़े फलक पर लाने के लिए कई आयामों से जोड़कर इसका पूरा दर्शन विकसित किया।
भूदान आंदोलन,जिसे विनोबा भूदान यज्ञ कहा करते थी,की काफी आलोचना होती थी।इसका जवाब देते हुए जयप्रकाश नारायण ने ‘समग्र अहिंसक क्रांति का पहला सोपान: भूदान’शीर्षक से लेख लिखा था ।जयप्रकाश नारायण में कहा था कि ‘जमीन बाटने के मामले में जितना भूदान सफल हुआ उतना कानून सफल नही हुआ’ तेलंगाना में इतना सब हुआ फिर भी एक एकड़ जमीन तक किसी को नहीं मिली नक्सलबाड़ी में इतना खून खराबा हुआ फिर भी किसी के हाथ में जमीन नहीं आई। इस तरह जमीन के बंटवारे में कानून और कत्ल की अपेक्षा करुणा का मार्ग अधिक सफल हुआ है।भूदान आंदोलन ने इस देश में 12 लाख एकड़ भूमि भूमिहीनो में बाटा है और यह सब हृदयपूर्वक और स्वेच्छा से हुआ है ।इससे नैतिक ताकत पैदा होती है। निश्चय ही भूदान ग्रामदन आंदोलन की कुछ सीमाएं थी,पर इसकी परणिति के आधार पर इसका मूल्यांकन करना वाजिब नहीं है।कारण की बाद में भूदान ग्रामदन को कानूनी रूप देकर स्थायी बनाना सता का काम था।
विनोबा के अनुसार भूदान का काम क्रांति,त्याग और पूजा का कार्य था।भूदान का उद्देश्य क्रांति को टालना नही था बल्कि उसकी मंशा देश को हिंसक क्रांति से बचाने की थी।इस आंदोलन में तीन स्तरों पर परिवर्तन लाने की क्षमता थी। हृदय में परिवर्तन ,जीवन शैली में परिवर्तन और समाज में परिवर्तन। विनोबा में स्पष्ट किया की भूमि सभी की है,यह गोपाल या ईश्वर की है।ठीक उसी तरह,जैसे हवा और पानी ईश्वर के है और यह सभी के लिए है,उसी प्रकार भूमि ईश्वर की है और सभी के लिए है।
विनोबा के भूदान आंदोलन को देश दुनियां ने देखा और परखा था।भूदान आंदोलन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना रहा। प्रशंसा के साथ साथ इसकी आलोचना भी हुई। फ्रांस के लांफादेलवास्ता ने लिखा था,“ भारत की सामाजिक तथा आर्थिक क्रांति में विनोबा का योगदान एक नाट्यपूर्ण चमत्कार है।” हालय टेनिसन ने कुछ दिनों विनोबा की पदयात्रा में रहकर उन पर ‘सेंट ऑन द मार्च’ किताब लिखा। उसमें टेनिसन ने लिखा था,“ संतों में भी कही एक अति सूक्ष्म आसक्ति होती है,त्याग का अहंकार होता है,पर विनोबा ने इसे पास भटकने तक नही दिया है।उन्होंने कभी किसी से अपना अनुकरण करने को नहीं कहा।”एक अधूरी रह गई क्रांति का इतिहास कुछ भी कहता हो,मानवीय उत्क्रांति की प्रक्रिया में विनोबा का योगदान अमूल्य है। उन्होंने सच्चे अर्थों में गांधी की विरासत को आगे बढ़ाने का किया |
अमृता राव शोधार्थी हिन्दी विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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