गज़ल ~ वरुण ‘विमला’
उन्ही दिनों का नया साल हो जाना
डूब के निकलना आफताब हो जाना
हर्फ़-दर-हर्फ़ जुड़ती जा ज़िंदगी से
तू मेरी पसंदीदा किताब हो जाना
नाज़ है नूर है नज़ाकत, नज़ाफ़त है
इतना काफी है बेमिसाल हो जाना
खिंचा-तानी ,भागमभाग ,माथा-पच्ची
उनकी बाहें औ दिन इतवार हो जाना
सदियों तक छाप छोड़ना आसाँ है यहाँ
बस इश्क़ करना औ इश्तिहार हो जाना
सियासत इतनी ख्वाहिशमन्द है "वरुण"
हर वक़्त चाहती है अख़बार हो जाना
©वरुण " विमला "
बस्ती,उत्तर प्रदेश
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