भाषा का सत्ता विमर्श (आलोचना) ~ डॉ. किंगसन सिंह पटेल
भाषा का सत्ता विमर्श
डॉ. किंगसन सिंह पटेल
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, बीएचयू
ईमेल– kingjnu@gmail.com
भाषा के उद्भव उसके अर्थ व्यापार और अर्थ ग्रहण का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो पाएंगे की भाषा का अपने समाज और उसके विकास से गहरा संबंध है। समाज के विकास के साथ भाषा भी विकसित और संस्कार ग्रहण कर रही है। जैसे-जैसे मनुष्य कबीला शाही से जनतंत्र की ओर बढ़ा वैसे वैसे भाषा भी चित्र लिपि से वर्णिक लिपि में विकसित हुई। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भाषा का विकास अपने समाज की संरचना और सत्ता विमर्श से गहरा तालमेल बनाकर होता है। भाषा की संरचना और अर्थ का गहरा संबंध समाज की संरचना और सत्ता विमर्श से होता है। वंदना टेटे का यह कहना बिल्कुल सही है कि “लिंग जाति और वर्ग आधारित संरचना वाले समाज की भाषा निरपेक्ष नहीं होती। प्रमुख भारतीय और अंग्रेजी भाषाएं इन्हीं मूल्यों की वाहक हैं और इसलिए जब भी स्त्री दलित आदिवासी विषय पर बात होती है संभवत उनकी चर्चा हिंदू और ईसाई धार्मिक कथाओं, मिथको व ऐतिहासिक घटनाओं के साथ आरंभ की जाती है। क्योंकि लिखित समाज और उनकी विश्वविद्यालयों ने यह मान लिया है कि उनके पास की दुनिया की श्रेष्ठतम भाषाएं ज्ञान और साहित्य का विपुल भंडार है इसके बाहर जो कुछ है वह अद्भुत है, अनोखा है, रहस्यमई है, फोक है, आदिम है। स्त्री एवं आदिवासी दलित समाज के संदर्भ में यह धारणा वर्चस्व की राजनीति के दौर पर अपने सबसे क्रूरतम और अमानवीय रूप में हमारे सामने हैं। मुख्यधारा की भाषाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन बताता है कि हिंदी एवं अंग्रेजी जैसी भाषाओं का चरित्र किस कदर स्त्री एवं दलित आदिवासी विरोधी है।“¹
यह मान लिया गया है कि एक ही जेंडर के बीच भाषा समान रूप से व्यावहारित ।होती है वैसे ही जैसे सभी वर्गों एवं जातियों के बीच स्वयं भाषा कोई भी विभेद नहीं करती है लेकिन यह सच नहीं है। भारतीय सामाजिक संरचना में एक ही जेंडर एवं जातियों के बीच उनकी असमानताओ को अभिव्यक्ति करने के लिए भाषा ने ऐसी स्वर धनिया और शब्दार्थों को इजाद किया है कि वह एक ही जेंडर के बीच की सख्त संरचना को बड़े ही सहज ढंग से व्यक्त कर देती है। जैसे गांव में अनायास ही किसी ब्राह्मण को देखकर अधिकांश दूसरी जातियों के लोग बड़े अदब से सहज ही बोल उठते हैं कि ‘पा लागी पंडित जी।’ लेकिन क्या किसी भंगी को देकर कोई भी चार्ट धर्म जेंडर का व्यक्ति ऐसा बोलता सुना गया है कि पा लागी भंगी जी या ‘पा लागी चमार जी’ शायद नहीं! प्रेमचंद की कहानी सद्गति को उठाकर देखे तो उसमें पंडित घासीराम जी दुखिया को देखकर (जबकि वह घास का बड़ा सा गट्ठर दक्षिणा हेतु लाया है) अपमानजनक भाषा में बोलते हैं कि ‘आज कैसे चला रे दुखिया?’
दुखी सिर झुका कर कहा, बिटिया की सगाई कर रहा रहा हूं महाराज कुछ शाहिद शगुन विचारणा है कब मर्जी होगी?’
घासी— ‘आज मुझे छुट्टी नहीं। हां सांझ तक आ जाऊंगा।’
दुखी— ‘नहीं महाराज जल्दी मर्जी हो जाए। सब सामान ठीक कर आया हूं। यह घास कहां रख दूं।’
घासी– ‘इसे गाय के सामने डाल दें और जरा झाड़ू लेकर द्वार साफ कर दे। यह बैठक भी कई दिनों से लीपी नही गई है। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर जरा आराम करके चलूंगा। हां, या लकड़ी भी चीर देना । खलिहान में चार खांची भूसा पड़ा है उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।’
दुखी फौरन हुक्म की तालीम करने लगा द्वार पर झाड़ू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा, तब तक बारह बज गए। पंडित जी भोजन करने चले गए दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था उसे भी जोर की भूख लगी पर वहां खाने को क्या धरा था। घर यहां से मील भर था। वहां खाने चला जाए तो पंडित जी बिगड़ जाएं। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। ²
उपरोक्त उदाहरण में दुखी की भाषा बहुत निरीह और पंडित जी के प्रति बहुत सम्मानजनक है जबकि पंडित जी की भाषा अत्यंत आदेशात्मक और अपमानजनक है। पंडित घासीराम और दुखी चमार की भाषा का यह अंतर असल में उनकी सामाजिक आर्थिक स्थितियों और भारतीय मनुवादी ब्रह्मणवादी समाज में एक ब्राह्मण और दलित की हैसियत उनके समर्थक और दयनीय स्थितियों की यथार्थ अभिव्यक्ति है। समर्थ और दयनीय स्थिति या उनके जीवन व्यवहार में भी अभिव्यक्ति होती है इसलिए एक दलित को ब्राह्मण के लिए सम्मानजनक संबोधन महाराज और एक ब्राह्मण को दलित के लिए अपमानजनक संबोधन ‘कैसे चला रे दुखिया’ कहने को विवश कर देती है। वह ब्राह्मण चाहे उम्र में छोटा बच्चा ही क्यों ना हो लेकिन एक निम्न जाति वर्ग का व्यक्ति उसे बेटा कहकर भी पुकारने की जुर्रत नहीं कर सकता है। यह बात स्वयं छोटे बालकों तक के संस्कार का हिस्सा बन जाती है। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी रसप्रिया जिसमें एक पात्र मिरदंगिया एक बार एक ब्राह्मण के लड़के को प्यार से बेटा कह देता है तो सारे गांव की लड़कियों से घेरकर मारने की तैयारी कर लेते हैं कारण की मिरदंगिया बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेरकर कर। मृदंग छोड़ दो।³ इस तरह हम देखते हैं कि छोटे-छोटे बच्चे तक की भाषा में जाति की सत्ता का संस्कार निर्मित कर दिया जाता है कि कोई व्यक्ति उनके लिए कौन सा शब्द प्रयोग करेगा और क्यों? असल में यह भाषा की शब्दावली और संरचनाएं ही होती है जो व्यक्तियों के बीच विभेदो को हमें बताती और सिखाती है कि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के लिए किस तरह के शब्दों संबोधनों और भाषा के व्याकरण का प्रयोग करेगा, उससे यह हम समझ जाते हैं कि उनकी बीच शक्ति का संबंध क्या है और उनकी सामाजिक हैसियत क्या है?
भाषा न केवल अलग-अलग जाति वर्ग के बीच विभेद को अभिव्यक्त करती है वल्कि वह एक ही परिवार के व्यक्तियों के बीच अंतरों और परिवारिक संरचना में अवस्थित विभिन्न सदस्यों के बीच विभेदो को भी बखूबी दिखाती है “एकल परिवारों के भीतर पति घर बाहर का मालिक और पत्नियां मालकिन की हैसियत में होती हैं पद और उम्र में सबसे छोटे बच्चे की हालात सबसे कमतर प्राणी की होती है। यदि घर के भीतर सबसे छोटी लड़की हुई तो वहां शक्ति संबंधों में सबसे निचले पायदान पर होगी रहने खाने पीने से लेकर शिक्षा स्वास्थ्य तथा खेलकूद की सेवाएं पाने में उसका नंबर सबसे पीछे रहेगा। उस पर सब अधिकार जमा सकते हैं। जरूरत पड़ने पर दो चार चाटे भी जड़ सकते हैं लेकिन वह शायद ही इसका प्रत्युत्तर दे पाए।”⁴ भाषा ज्ञान की संवाहक है तो वह सत्ता का भी संवाहक है तो वह सत्ता का भी संवाहन करती है। भाषा की संरचना में सब वैसे ही घुसी है जैसे हमारे समाज में घुसी है। शोषण के अधिकांश रूपों में सत्ता का चरित्र आसानी से समझ में आ जाता है लेकिन स्त्री पुरुष के बीच निहित सामाजिक संरचना में शक्ति संबंध ऐसे भावनात्मक आवरण में घुला मिला रहता है कि यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कहां संबंध पारस्परिक सहअस्तित्व, लगाव, प्रेम का है और कहां से शोषण का। भारतीय समाज में एक जुमला बार-बार दोहराया जाता है। कि ‘जो प्यार करेगा वही तो पिटाई करेगा।।’ या ‘ जो मारता है वही तो प्रेम करता है।’ हम सब इसको बिना तर्क के सहज स्वीकृति दे देते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि वूमेन द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट ‘इन परसुएट आफ जस्टिस’ (2011) में यह पढ़कर दुनिया भर के सभ्य लोग चौक गए कि 35% से अधिक भारतीय महिलाएं स्त्रियां अपने जीवनसाथी के हाथों शारीरिक हिंसा का शिकार होती हैं तथा 10% स्त्रियों को अपने अंतरंग साथी से यौनिक हिंसा को झेलना पड़ता है लेकिन एक औरत भारतीय समाज के स्त्री पुरुष के लिए इस सच में चौंकाने जैसी कोई बात नही है। वह इसी सच के साथ पैदा होती है कि –
“ वृद्ध रोग बस जड़ धन हीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना।एसहु पति कर किए अपमाना। नारी पाव जमपुरी दुखनाना।”⁵
जिस समाज में पति के मर जाने पर पत्नियों को जिंदा जला देने का विधान हो वहां भला अपमान प्रताड़ना शारीरिक मानसिक हिंसा को अपराध मानने के लिए कौन तैयार होगा। एक भारतीय स्त्री के लिए विधवा या सती होने की प्रताड़ना से तो अच्छा है पति कैसा भी हो, कितना भी मारे लेकिन शब्दों का सामाजिक सम्मान तो बचाए रखें फिर भाषाजनित इस अपराध की पड़ताल भला कौन भाषाविद पुरुष करने बैठेगा।
यही कारण है कि हमारी महान राष्ट्रभाषा राष्ट्र राज्य भाषा हिंदी में स्त्री हिंसा और उनका दोयम दर्जा सहज स्वीकृत है। इसी वाक्य को ले जो प्यार करता है वही तो पीटता है क्या इसका स्त्रीलिंग भी वैसे ही स्वीकृत है जो प्यार करेगी वही तो पीटेगी? नहीं न? बड़ा अटपटा लगा न ! हमारे समाज में स्त्रियां इस स्थिति में अपवाद स्वरूप ही पाई जाती हैं जो पिटाई ना खाती हो या अपमान से ना गुजरती हो। जिस स्त्री का पूरा जीवन सम्मान पद प्रतिष्ठा पति पर निर्भर हो वहां यह संयोग नहीं होगा कि वह पति देवता परमेश्वर के पद पर पर आसीन ना हो जाए। यह अंधा, बधिर, लूला, लंगड़ा कैसा भी हो, वह उसका सौभाग्य और जीवनदायिनी संजीवनी ही कहलायेगा क्योंकि इस परमेश्वर के बिना उसकी क्या गति बनती है। इसे हम डायन तो नहीं टोटके सती आदि कहकर निर्मलता से मार दी जाने वाली स्त्रियों के करुण हस्र से समझ सकते हैं। यह करुण हस्र केवल स्त्रियों को भोगना पड़ता है वरना डायन सती आदि का पुरुषवादी विलोम हमारी भाषा में क्यों ना मिलता ?
हमारी भाषा में पुरुष वर्चस्व वैसे ही घुला मिला है जैसे वातावरण में हवा और पानी। हम बड़े गर्व से बताते हैं कि अमुक व्यक्ति हमारा पति है। पति शब्द के उद्भव विकास और इतिहास में जाए तो इसका अर्थ होता है मालिक अर्थात जब हम पति कहते हैं तो असल में हम उसे अपना मालिक कह रहे होते हैं, और यह कोई संयोग नहीं कि भारतीय समाज में एक मालिक की ही हैसियत रखता है। सती प्रथा इसी मालिक और गुलाम के रिश्तो की चरम अभिव्यक्ति थी। मालिक मर गया तो गुलाम जी कर क्या करेगा सती होना उसकी वफादारी और उसकी पतिव्रता का चरम प्रमाण है शायद इसलिए भारतीय भाषाओं में सती पतिव्रता इतिहास शब्दों का विलोम है ही नहीं।
सदा सुहागन रहो, सौभाग्यवती भव, पुत्रवती भव त्याग आशीर्वाद केवल और केवल स्त्रियों को ही दिए जाते हैं। यह आखिर किस सामाजिक शक्ति संरचना को अभिव्यक्ति करता है सामाजिक सख्त संरचना को बहुत ध्यान से समझे तो हम पाएंगे कि हमारे समाज में केवल सौभाग्यवती पुत्रवती स्त्रियों को ही सम्मान का दर्जा प्राप्त है अर्थात पति और पुत्रों से अलहदा जितनी भी स्त्रियां हैं वह सब संदेह और वितृष्णा की नजर में देखी जाती हैं। आखिर देखी भी क्यों ना जाए क्योंकि हमारा पितृसत्तात्मक समाज हमेशा ज्ञानवान प्रतिभा संपन्न स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली स्त्रियों से डरता रहा है इसलिए दुनिया भर से ऐसी स्त्रियों को पुरुष वादी समाज अपमानित प्रताड़ित और हत्याएं करता रहा है। वह चाहे ऋषि गार्गी हो या जॉन ऑफ आर्क या क्लारा जेटकिन ऐसी स्त्री या पुरुष वर्चस्व आदि व्यवस्था के लिए खतरा मानी जाती हैं जो अपने शरीर और जीवन का निर्णय स्वयं करती हैं। स्त्री मात्र को कमतर साबित करने और स्वतंत्र पहचान निर्मित करने वाली स्त्रियों को कितना प्रताड़ना से गुजारा जाता है इससे जानने समझने के लिए गालियों के समाजशास्त्रीय अध्ययन विश्लेषण में जाना बहुत जरूरी हो जाता है।
‘पर निर्भर सती स्त्रियां जितनी पूजनीय हैं उन्हीं के बरअक्स अकेली आत्मनिर्भर स्त्री उतनी ही निंदनीय और कुलटा है।’⁶ कुलटा वेश्या शब्द केवल और केवल स्त्रियों के लिए प्रयुक्त होते हैं पुरुषों के लिए नहीं। सवाल यह है कि इन स्त्रियों के साथ उल्टा और वेश्या कर्म करने वालों के लिए हमारी राष्ट्रभाषा में कोई शब्द नहीं है? पुन: याद आते हैं तुलसीदास ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’ पुरुषवादी व्यवस्था अपने दैहिक आनंद हेतु स्त्रियों को वेश्यालय तक खींचकर उन्हें अपमानित कर नारकीय जीवन जीने पर मजबूर मजबूर करती है और स्वयं को पाक साफ रखकर समाज के सारे पदों का उपभोग करने को स्वतंत्र रखती है. इस संदर्भ में जर्मन ग्रेयर लिखती हैं जो पुरुष लैंगिक नियंत्रण रखने में जितना असमर्थ होगा वह उतना अधिक स्त्री गामी होगा और उसी अनुपात में उसकी भाषा में स्त्रियों के लिए अपमानजनक शब्द और गालियां बढ़ती जाती है।”⁷ उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर हमारी भाषा में पुरुषों ने स्त्रियों को नीच साबित करने के लिए इतनी गालियां की इजात की है कि आम बोलचाल की भाषा में भी वहां मां बहन बेटी को अपमानित करता रहता है। हिंदी भाषा का आलम तो यह है कि यहां गालियां मात्र स्त्रीलिंग की ही हैं पुरुषवादी गालियां है ही नहीं यहां तक कि पुरुष यदि पुरुष को भी गाली देता है तो वह उसे स्त्रीवादी गालियां ही देता है जैसे किसी पुरुष को अबला या चूड़ियां पहन लो घर बैठो कहना उसके लिए गाली होती तो क्या हमारी स्त्रियां गाली सादृश्य है? हम आप जैसे सभ्य भी तो कहेंगे नहीं। यदि नहीं तो सवाल है कि तेरी मां की... तेरी बहन की … जैसी गालियां क्यों हमारी भाषा और समाज में इतने गहरे रूप में स्वीकृत हैं? क्या भाषा को समतावादी बनाने का कोई प्रयास महान भाषाविदो ने किया ?
सच तो यह है कि अच्छी मां पत्नी बेटी को छोड़कर स्त्री की जितनी छवियां हैं सब घृणित और वितृष्णा जनक हैं। स्त्री के यौनांग और सेक्सुअलिटी के बारे में इतने भ्रम पाले और बनाएं गए हैं कि स्त्रियों को हर पल अपमानजनक और एक भीषण हिंसात्मक परिवेश में जीना पड़ता है। आज तो जितने अपमानजनक चुटकुले स्त्रियों की मूर्खता और यौनिकता को लेकर बनते हैं उतने शायद ही पुरुषों की मूर्खता और यौनिकता पर बनते हो, और पोर्न साइट्स में स्त्रियों के साथ ऐसी हिंसात्मक क्रियाएं दिखाई जाती हैं जैसा कि वह जीवित इंसान न होकर कोई खिलौना हो और पुरुष उससे खेल रहा हो। हमारी भाषा की गालियां चुटकुले और उनके साथ किया जाने वाला व्यवहार स्त्रियों को जीवित इंसानों की तरह ना कर उन्हें खाने चबाने वाले व्यंजनों के रूप में परोसते हैं। यही कारण है कि बलात्कार के दौरान स्त्रियों का केवल बलात्कार नहीं होता बल्कि उनके साथ घृणात्मक और वीभत्स तरीके से हिंसात्मक व्यवहार अधिक किया जाता है। योनि में बोतल, रॉड, पत्थर घुसेड़कर योनि के प्रति हमारी सामाजिक भाषा में व्यक्त वितृष्णा को मूर्त रूप दिया जाता है।”⁸
स्त्री के साथ यह हिंसात्मक व्यवहार इसलिए संभव हो पाता है कि हिंसा करने वाला व्यक्ति सामाजिक शक्ति संरचना में ऐसी ताकतवर स्थिति में होता है कि वह स्त्री को ना केवल गाली दे सकता है बल्कि उसका अपमान तिरस्कार कर पाने की भी हैसियत रखता है। जिन खुदमुख्तार पावरफुल स्त्रियों का वह व्यक्तिगत रूप से चरित्र हनन नहीं कर सकता उसके लिए वर्षों से चली आ रही पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना में पुरुषवादी रणनीति का सहारा लेकर उन्हें परकटी बाल कटिंगपरकटी, बालकटी, अकेली, फ्रस्ट्रेटेड, फेमिनिस्ट, बदचलन, वेश्या इत्यादि अपमानजनक शब्दों से दोषी साबित करता है हमारी भाषा में कितने अपमानजनक और घृणास्पद शब्द पुरुषों के लिए नहीं है क्योंकि उनका प्रकट होना सहज स्वीकृत है इसलिए जरूरत है कि भाषा की शक्ति संबंधों को बहुत गहराई से समझने और ऐसे शब्दों को निकाल बाहर करने की जो समाज में विषमता और विभेद पैदा करते हैं जो ऊंच-नीच को सामाजिक स्वीकृति प्रदान करते हैं। भाषा में वर्ग, जाति, जेंडर आधारित वर्चस्ववादी शब्दों को शिनाख्त करने और भाषा को पुनः सृजित करने की, नहीं तो हम भी विषमतामुलक समाज में जीने को अभिशप्त रहेंगे आज जब हम समतामूलक समाज के निर्माण की अपनी नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी महसूस करते हैं तो हमारी जिम्मेदारी यह भी है कि हम वर्चस्व वादी भाषा को इंसानियत की भाषा बनाएं।
संदर्भ सूची –
1. टेटे, वंदना.(2014). भाषा, साहित्य और आदिवासी स्त्रियां. गंगा सहाय मीणा(संपादक). आदिवासी साहित्य विमर्श. नई दिल्ली: अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा. लिमिटेड. पृष्ठ 194
2. प्रेमचंद मानसरोवर भाग-4 हिंदी समय डॉट कॉम रिट्रीव्ड मार्च 3, 2020,
Http://www. हिंदी समय डॉट कॉम स्लाइस कंटेंट प्लेस 464 दोष लेस प्रेमचंद धनपत राय कहानी संग्रह मानसरोवर भाग-4 प्रेरणा
3. फणीश्वर नाथ रेणु रस प्रिया हिंदी समय डॉट कॉम. रिट्रीव्ड मार्च 3, 2020,
http:@@www.hindisamay.com@content@39@1@rachnakar phanishwar nath Renu ki kahani ras Piya.BE.cspx
4. किंग्सन सिंह पटेल (जुलाई 2014) पिता और पुरुष पुनर्विचार कथादेश पृष्ठ 57
5. तुलसीदास, रामचरितमानस अरण्यकांड 4/14 गोरखपुर, गीता प्रेस
6. पुष्पा, मैत्रेयी. (2017) वह सफलता के मुकाम. विभूति नारायण का प्रसंग, नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ 104
7. ग्रीन जर्मन (2005) बढ़िया स्त्री मधु बी. जोशी (अनुवाद). नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन पृष्ठ 240
8. उपरोक्त घृणा अध्याय
The Perspective The Perspective International Journal of Social Science and Humanities , वॉल्यूम 1, इश्यू 1, अंक फरवरी अप्रैल 2020 से प्रकाशित
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