प्रेसिडेंट रूल कविता ~ गौतम कुमार
वह दोनों में
फूल-पत्तियाँ रखकर
घी-कपूर डालकर
आरती सजाता है
और उसे नदी की सुरम्य धारा में बहा देता है
वह खाता है बेर
खाता है आम
और इनकी गुठलियां फेंक देता है
निर्जन जंगलों में
मूक और जड़ पेड़ों के बीच
वह काम से लौटते वक़्त
रोज़ सड़क पे पीता है चाय
और उस खुली सड़क के किनारे पर
छोड़ देता है खाली कप
वह घर पहुँचते ही
उतारता है जूता
और उसे अपने कमरे के कोने में
हल्के से धकेल देता है
वह करता है बलात्कार
और उसी नदी में बहा देता है
जंगलों में फेंक देता है
सड़क के किनारे छोड़ देता है
घर के कोने में धकेल देता है
औरत का शरीर भर नहीं
पूरे औरत को
नदियों पे
जंगलों पे
सड़कों पे
घरों पे
कहाँ कहाँ लगाओगे प्रेसिडेंट रूल
क्या मर्दों पे भी लग जाएगा प्रेसिडेंट रूल?
बहरहाल वो निकलेंगी बाहर
तुम्हारी नदियों के रेत से
जंगलों के भीतर से
घर की दीवारों से
कोई निकला होगा सतहत्तर दिनों के बाद
कोई आठ महीनों के बाद
कोई हज़ारों सालों के बाद
~ गौतम कुमार, शोधार्थी जेएनयू
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