- समकालीन संवैधानिक काल में, संविधान जिसमें जाति के आधार पर भेदभाव और अस्पृश्यता का अंत कर दिया गया है। फिर भी दलितों का शोषण जाति और अस्पृश्यता के आधार पर हो रहा है। 1991 का आर्थिक उदारीकरण भी दलितों के लिए शून्य सिद्ध हुआ। दलित दलित ही रहा। यह जाति ही है जो शोषको को अभिप्रेरित (मोटिवेट) करती है। दूसरी ओर दलितों को अनाभिप्रेरित ( demotivate) करती है जिसके कारण आज भी दलितों में अकर्मणता तथा दास चित्तवृत्ति विद्यमान है। “जहां सार्वजनिक भावना, सार्वजनिक दानशीलता , सार्वजनिक जनमत, जिम्मेदारी, वफादारी, सदगुण, नैतिकता, सहानुभूति सब जाति तक सीमित है।¹ जहां मानवतावाद और आपसी प्रेम जाति तक सीमित हो। जहां द्विज और दलित पहले से ही एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह पाले हुए हो और दूर दूर रह रहे हो, जहां एक समुदाय विशेष के लोग सामाजिक सामंजस्य छोड़कर विभाजन का उपदेश दे रहे हो, समाज में जहां रोटी बेटी का संबंध मौजूद है वहां भी, जहां नहीं मौजूद है उस समाज में भी जाति के आधार पर शोषण हो रहा है। निसंदेह जाति के आधार पर शोषण हो रहा है पर यह निश्चित नहीं कि शोषण का आधार मात्र जाति ही उसमे अन्य कारक उपस्थित रहते है। इन्हीं क्षेत्रों को स्पष्ट करने की जरूरत है। ताकि दोनों समुदाय करीब आ सके और सामाजिक सामंजस्य के साथ रह सके। एक दूसरे की उपस्थिति में काम कर सके। निश्चित रूप से जाति के उन्मूलन के लिए अलग और नए तरीके से सोचने की जरुरत है ।
भारत की जनसंख्या का निर्माण जिन प्रमुख नस्लों के लोगों के मिश्रण से हुआ है वह इस प्रकार है प्रोटो ऑस्ट्रेलायड , पैलियो मेडिटेरियन, कोकेशायड, नीग्रोयड और मंगोलॉयड। ‘होमो सेपियंस का उद्भव अफ्रीका में हुआ जो अन्य प्राणियों से अलग था। इसने एशिया की ओर प्रस्थान किया। इस प्रकार कई अप्रवासियों और आद्य सेपियंस के साथ संकरण भी हुआ। ‘काकेशसायड और ऑस्ट्रेलायड में अनुवांशिक साम्यता मानव जाति के साझा उद्भव का संकेत करती है।’² सभी मनुष्य एक ही जाति होमो सेपियंस के संतान है। सभी एक ही मानव जाति से संबंधित हैं तो सभी में बिना संबंध के आपस में संयोग हुआ और आगे पीढ़ियां भी चली। भूगोल के प्रोफेसर माजिद हुसैन मानव भूगोल में लिखते है ‘इन्हीं के समान लक्षणों के कारण रक्त का अंतर मिश्रण इस सीमा तक हो गया कि संसार के दूर दराज के और निर्जन क्षेत्रों में भी कोई शुद्ध प्रजाति नहीं बची।’³ रक्त के संबंध की व्यवस्थाएं निष्क्रिय है।⁴ जाति के विनाश पुस्तक में डी. आर. भंडारकर का उल्लेख करते हुए अंबेडकर लिखते हैं ‘भारत में ऐसी कोई वर्ग या जाति नहीं है जिसमें विजातियो के अंश ना हो।⁵ अंबेडकर पुन:आगे लिखते है कि प्रजातियों के संकरण के संबंध में यह साक्ष्य इस बात का संकेत देता है कि मानव जाति में संकरण असीमित किंतु दीर्घकाल से होता आ रहा है।⁶ फ्रेडरिक एंगेल्स कबीलियाई समाज को लेकर भारत के संदर्भ में लिखते है भारत के इन कबीलों में भी परिवार के प्रचलित रूप से पैदा होने वाले संबंध रक्त संबंधता की व्यवस्था के उल्टे है।⁷ इसी प्रकार भारतीय संस्कृति के विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी भारतीय संस्कृति के संबंध में अशोक का फूल निबंध में लिखते हैं वह अनेक आर्य और आर्यतर उपादानों का अद्भुत सम्मिश्रण है।… हमारे सामने समाज का जो रूप है वाह ना जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है।…. सब कुछ में मिलावट है सब कुछ अशुद्ध है।⁸ स्पष्ट है कि भारत में ऐसी कोई जाति नहीं जो पूर्णता शुद्ध हो।… जिस शुद्धता के लिए अनेक प्रावधान किए गए खानपान व अन्य संबंध वर्जित किया गया। अनेकानेक प्रकार से दंड दिए गए । जिस आधार पर सैकड़ो दलित मारे गए। वही वास्तव में शुद्ध रूप में नहीं है। प्रजातियों के संकरण का ही परिणाम लोक चेतना में अनेक मुहावरे प्रचलित है। अत: शुद्ध, श्रेष्ठ या पवित्र जाति का विचार निरर्थक है।
जाति व्यवस्था पहले से ही समाप्त हो चुकी है। आर्यों के आगमन पर यहां के मूल निवासियों से उनका संघर्ष हुआ। आर्य विजयी हुए तथा मूल निवासी पराजित हुए। उनकी जमीन पर कब्जा हुआ तथा उनको प्रजा बनाया गया । आर्यों ने अपनी अलग पहचान और रक्त शुद्धता को बनाए रखने के लिए एक अलग सामाजिक व्यवस्था स्थापित की। जिसका आधार भौतिक था।⁹ जो आगे चलकर इस व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था का रूप लिया। पुन: वर्ण समय के साथ आगे बढ़ते हुए जाति में उस समय तब्दील हुआ जब निचले श्रेणी के लोगों का सामाजिक कार्य पैतृक हुए। और इसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए जाति जन्मजात हुई। ऐसा शासन की कठोरता और प्रजा को प्रजा बनाए रखने के लिए किया गया। डॉ. भीमराव अंबेडकर जाति का उच्छेद तथा रामशरण शर्मा ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ नामक पुस्तक में ने आर्य और अनार्य लोगों के बीच अंतर को इस प्रकार बताया है “ आर्य लोग गौर वर्ण वाले तथा सीधे नाक वाले थे।¹⁰ तथा मूल निवासी श्याम/काले रंग¹¹ तथा चपटी नाक वाले थे। स्पष्ट है कि दोनों में शारीरिक बनावट¹², रंगो का अंतर था।¹³ राम शरण, आर्य और अनार्य दो भिन्न समुदाय थी। चूंकि मानव की गतिशीलता में वर्ण व जाति का उल्लंघन हो रहा था। रक्त शुद्धता नष्ट हो रही थी। इसको बनाए रखने के लिए समय-समय पर अनेक कठोर प्रावधान किए गए तरह-तरह के राक्षसी वा ईश्वरीय भय दिखाए गए। वर्ण को ईश्वरीय कृत बताया गया ताकि अपने वर्चस्व का उपनिवेश शूद्रों के सिर पर लादा जा सकें। वर्तमान समय में ऐसी बहुत कम द्विज जातियां हैं जो लंबी नाक वाली तथा गौर वर्ण वाली वह लंबी कद काठी वाली हो , दूसरी ओर दलितों में ऐसे लोगों की संख्या कम है जो काले और चपटी नाक वाले हो। ऐसा इसलिए कि दोनों का अत्यधिक आपसी विनिमय हुआ है जो वर्ण श्रम विभाजन और पेशे पर आधारित था वर्ण के बाद जाति वंशानुक्रम पर आधारित हुई, उसमें भी परिवर्तन हो हुआ। यह परिवर्तन भिन्न जातियों के मिलने से हुआ। और यह परिवर्तन होने में कई पीढ़ियां लग गई । आज तथाकथित उच्च या निम्न जातियों में अलग-अलग रक्त समूह नहीं पाए जाते हैं। वास्तव में आज ना कोई द्विज है ना तो कोई शूद्र, ना कोई अछूत। अमृतलाल नागर के उपन्यास नाचो बहुत गोपाल में कहावत करिया बाभन गोर चमार इसी का द्योतक है।
ऋग्वेद में समाज के दो प्रमुख वर्गों का उल्लेख है आर्यवर्ण और दास वर्ण। इन दोनों में शारीरिक और सांस्कृतिक दोनों प्रकार के भेद थे आर्यों ने अनार्य के लिए अनेक विशेषण का प्रयोग किया है जैसे कृष्णकत्व ( काले रंग वाले) कृष्ण गर्भ ( काले जन से उत्पन्न) तथा अनास ( चपटी नाक वाले)¹⁴
इतिहास के प्रोफ़ेसर ओम प्रकाश लिखते हैं दोनों में सांस्कृतिक भिन्नता थी। ऋग्वेद में आए निम्न शब्द सांस्कृतिक अंतर को प्रकट करते हैं। मृध्रवाच, अकर्मन, अयज्वन , अदेवयू, अब्रहमन, अव्रत, देवपीयु और शिशनदेव।’¹⁵ इसका अर्थ क्रमशः इस प्रकार है – आर्यों की भाषा अनार्यो की भाषा से भिन्न थी इसलिए वे अनार्यो को अस्पष्ट भाषा भाषी कहते हैं। अनार्य वैदिक कर्मकांड तथा आचार विचार में विश्वास नहीं रखते थे। वे आर्य देवताओं की पूजा नहीं करते थे। वे अपने नियमों का पालन करते थे। आर्य देवताओं का निरादर करते थे। लिंग योनि की पूजा प्रचलित थी। इस प्रकार जिस सभ्यता और संस्कृति से आर्य लोग परिचित हैं अनार्य लोग अपरिचित थे। आर्य विकसित और संपन्न थे। उनकी तुलना में अनार्य पिछड़े हुए थे। अधीनतावश आर्यों ने अपने धर्म को अनार्यों पर लागू किया। और उन्होंने उसे ग्रहण भी किया। सामाजिक सामंजस्य ही है। पर आर्यों ने पराजित जन की संस्कृति से कुछ न लिया हो ऐसा नहीं है। आज भी वह सामासिकता दबी पड़ी है।
विकास की प्रक्रिया में अलिखित पारंपरिक अभिव्यक्ति के कारण अधीनस्थ शूद्रों की संस्कृति लड़खड़ाते, गिरते, उठते, चोट खाते आज भी छिटपुट जीवित है। जैसे महिषासुर पूजा, भैरव पूजा केरल में ओडम त्योहार पर महाबली की पूजा साथ ही अनेक अज्ञात देवता जो गृह मात्र में पूजे जाते हैं। सामाजिक सामंजस्य के साथ यह उनकी अलग पहचान भी है।
वर्ण व्यवस्था और समाज की श्रेणी बद्धता दोनों में द्विज सबसे ऊपर है। समाज में उनकी मात्र सांस्कृतिक भूमिका भिन्न है। मंदिरों में पूजा पाठ करना, समाज में कथा भागवत वेद पुराण सुनाना, यज्ञ हवन करना, विवाह करवाना आदि जनेऊ धारण करना उपनयन संस्कार मशुवारा शिखा रखना आदि इस प्रकार उनका रहन-सहन और उनका पैतृक कर्म एक अलग संस्कृति बनाता है पर इसके आधार पर किसी को श्रेष्ठता साबित नहीं हो जाती यह धर्म नहीं कर्म है। इसे कोई भी अपना सकता है। यह कार्य पैतृक होने से भारत के गणतंत्र होने पर एक प्रश्न चिन्ह है। अयोध्या में गैर द्विज भी जनेऊ धारण करते हैं। तमिलनाडु सरकार ने 2007-08 के बीच अर्चका ट्रेनिंग सेंटर खोला था।¹⁶ इसमें मंदिर के पुजारी बनने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिए तीन वर्ष का स्नातक कोर्स भी होता है। इसमें पूजा विधि, मंत्र उच्चारण, आरती और ध्यान का प्रशिक्षण दिया जाता है। अनैतिकता, पूजा पाठ में गड़बड़ी होने पर राज्य के द्वारा कार्यवाही भी की जाती है। वास्तव में एक स्वस्थ एवं मजबूत लोकतांत्रिक देश में सांस्कृतिक भिन्नता के आधार पर श्रेष्ठता और ऊंच-नीच का वजूद ही नहीं होना चाहिए।
जाति को चुनौती ;
इतना होने के बावजूद जाति हमारे बीच जिंदा है। जाति के आधार पर लोग अपने को सर्वोच्च बताते है। जो सोच की पारंपरिक प्रक्रिया के तहत वर्तमान है। जाति एक विचार है। और यह उनकी मानसिकता है शेष अन्य कोई प्रमाण नहीं है। जातीय उच्चता और निम्नता का विचार बाह्य आरोपित तथा थोपा गया विचार है। यह हमारे स्वभाव में ही नहीं है। यह गुणसूत्र आधारित नहीं है। जाति जीवन में भी व्याप्त है। तथाकथित ऊंची जाति के लोग दलित लोगों पर अपना प्रभुत्व रखते हैं। उनको डरा के रखते हैं। उनको तंग करते हैं। घृणा करते हैं। समाज के लोग ऊंची और नीची जाति वालों के प्रति अलग-अलग तरह से व्यवहार करते हैं। अलग-अलग तरह से पेश आते हैं। यहां तक कि मानवता, मदद तथा संबंध भी जाति तक सीमित है। इस कारण भी लोगों में साथ साथ रहने तथा साथ साथ काम करने की भावना नहीं पाई जाती है। इस मानसिकता का उन्मूलन किया जा सकता है । संविधान को जीवन का अंग बना कर। स्त्रीवाद और पूंजीवाद को अपनाकर।
अंबेडकर के अनुसार जाति धार्मिक विश्वासों का परिणाम है।¹⁷ धर्म ग्रंथ जातिवाद का पोषण करते है। संविधान ने लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता दी है पर इसका मतलब यह नहीं है कि धर्म ग्रंथ जातीय व्यवहार का उपदेश दे। संविधान में जातिवाद का निषेध भी है। शास्त्रों में आस्था तो संवैधानिक है साथ ही साथ शास्त्र द्वारा पोषित कोई व्यक्ति या संस्था जातिवाद का अभ्यास करता है या जातिवाद फैलाता है। या जातीय श्रेष्ठता का उपदेश देता है तो वह असंवैधानिक है। इस प्रकार जातिवादी धार्मिक आस्था को तोड़ना संवैधानिक है। इस समय पारंपरिक व शास्त्रीय तथा संवैधानिक संस्कृति का संघर्ष वर्तमान है। संविधान अभी लोगों के जीवन का अंग बन रहा है। जैसे जैसे लोगों के जीवन का अंग बनता जायेगा, वैसे वैसे वह एक संस्कृति का रूप धारण करता जायेगा । यह प्रति संस्कृति है। शास्त्रीय संस्कृति और संवैधानिक संस्कृति दोनों एक दूसरे के आमने सामने है। संघर्ष भी कर रही है, और विनिमय भी। यह भी सामासिक संस्कृति है। अंतर्जातीय भोजन और विवाह इस संस्कृति की अभिव्यक्ति है। आने वाले समय में शास्त्रीय संस्कृति कमजोर पड़ेगी वही पक्ष बचेगा जो मानव जीवन से समायोजन कर पाएगा। दोनों के विनिमय से एक नई संस्कृति बनेगी जिसमे मानव प्रधान होगा। जाति का सांस्कृतिक उन्मूलन हो रहा है।
जातिवाद निम्न आर्थिक क्रिया कलापों पर ज्यादा प्रभावी ढंग से काम करती है। इस से ऊपर उठकर जहां पर्याप्त पूंजी है वहां सामासिक संस्कृति रोटी बेटी का संबंध स्थापित है। आर्थिक विपन्नता में परनिर्भरता की स्थिति पैदा होती है सिवाय दासता के, और इस पर कोई सामाजिक संबंध स्थापित नहीं होता है। इसी परनिर्भरता में ऊंची जाति के लोग नीची जातियों का शोषण करते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए
कि आर्थिक स्थिति बदल जाने पर विचार बदल जाते हैं।… गरीबी रेखा से नीचे 48% जनता के मुकाबले दलितों की आबादी का सत्तर प्रतिशत इस अति दरिद्रता के हालत में रहता। देश 16% आबादी के होने के बाद भी दलितों के पास कुल खेती योग्य जमीन का केवल 1% हिस्सा ही है।¹⁸ आनंद तेलतुंबडे लिखते है कि ग्रामीण इलाके में रहने वाले पच्चास प्रतिशत दलित भूमिहीन मजदूर है।¹⁹ यही से दलितों की पर निर्भरता की शुरुवात होती है। ऐसे में सभी प्रकार के शोषण को दलितों को सहन करना पड़ता है। उनकी परनिर्भरता जाति के सामाजिक आधार को पहले मजबूत करते है। दूसरी तरफ उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता उनको आत्मनिर्भर बनाता है, और इससे जाति का सामाजिक आधार कमजोर हो जाता है। और सामाजिक संबंध भी स्थापित होता है। जाति की सामाजिक मजबूती एक गंभीर आपदा है। इस आपदा को अवसर में बदल देना चाहिए। आवश्यकता (need) और अध्यावश्यकता (meta need)। में अंतर होता है l पहले में रोटी कपड़ा मकान स्वास्थ्य आदि आता है, दूसरे अध्य आवश्यकता में आत्मसम्मान, स्वतंत्रता आदि आता है। जब तक निम्न आवश्यकता पूरी नहीं होती अध्यावश्यकता की बात नही की जा सकती। दलितों को सरकार के भरोसे नहीं बैठना चाहिए। उन्हें प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए जोखिम उठाना चाहिए ताकि शीघ्र ही अध्यावश्यकता की पूर्ति की जा सकती है।
आनंद तेलतुंबडे जाति और शोषण को अलग-अलग करकें देखते हैं– “जहां कहीं भी हिंदूओ से निर्भरता के संबंध में दलित बंधे नहीं हैं वहां जाहिर तौर पर जाति उत्पीड़न के प्रति आरक्षित नही। जितना उन जगहों पर जहां निर्भरता पर रिश्ता है।… भौतिक कारक जाति के मसलों पर अन्य कारक से ज्यादा प्रभावी होते हैं।²⁰ इससे स्पष्ट होता है कि शोषण निर्भरता पर अधिक निर्भर करती है। अगर इससे परे शोषण होता है। तो वह अपवाद स्वरुप है। इस बात को लेकर किसी विचार, स्थापना या सिद्धांत को गलत नहीं ठहराया जा सकता है। मुक्ति के लिए आत्मनिर्भरता जरूरी है। और दलितों के श्रम, उत्पादन और उपभोग के साथ जाति के मसलों पर भौतिक कारक को स्पष्ट करने की जरूरत है।
जाति को हमेशा चुनौती मिली है। मनुष्य ने अपनी गतिशीलता से जाति जैसे स्थाई विचार को गतिशील बनाया। भारत सरकार के अस्तित्व में आने के बाद जाति को पितृसत्तात्मक बनाकर स्थिर कर दिया गया। इससे पहले दो जातियों के मिलन से तीसरी जातियों का उद्भव होता आ रहा था।²¹
बुद्ध ने जाति व्यवस्था को चुनौती देते हुए समतापरक संघ समाज की स्थापना की। इसके बाद इस्लामी शासन व्यवस्था ने जातिवादी व्यवस्था को चुनौती दी। अंग्रेजी काल में भी जाति व्यवस्था को स्थाई चुनौती मिली। इसी काल में अंबेडकर जैसे दलित को उन्नति करने का अवसर मिला। वर्तमान में संविधान और पूंजीवाद से जाति व्यवस्था को चुनौती मिल रही है।
आंबडेकर ने जाति का विनाश पुस्तक में जाति के उन्मूलन के लिए तीन उपाय बताए (१) जाति को परिपुष्ट करने वाले शास्त्र की अस्वीकृति²² (२) अंतर्जातीय भोजन²³ (३) अंतर्जातीय विवाह²⁴। धर्म ग्रंथ पर वे लिखते है। जिस शास्त्र से मुठभेड़ करनी है वे वह लोग नहीं जो जाति का पालन करते है बल्कि वे शास्त्र है जो जाति आधारित धर्म की शिक्षा देते है। अंतर–जातीय भोज और विवाह को मान्यता ना देने के लिए लोगों की आलोचना भी करते है… शास्त्र की पवित्रता में विश्वास को समाप्त करना।²⁵ इसका कानूनी उन्मूलन किया जा चुका है। किसी भी प्रकार का जातीय व्यवहार या अपराध को दंडनीय बना दिया गया है। फिर भी शोषण हो रहा है।
अस्मिता प्रदर्शन और जाति उन्मूलन को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता है।²⁶ अस्मिता स्थापन भी जाति उन्मूलन है। अस्मिता प्रदर्शन जातीय हीनता का उन्मूलन है। यह जाति को बनाए रखने की पहल नहीं है। यह भी जाति उन्मूलन की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।
आनंद तेलतुंबडे जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन में लिखते हैं ‘जाति महज भेदभाव या उत्पीड़न का मामला नहीं है यह एक ऐसा वायरस है जो समूचे राष्ट्र को अपनी जकड़ में बांधे हुए है। भारत की हर बुराई और लगातार इसके पिछड़ेपन के पीछे मुख्य कारण यही वायरस है। एक क्रांति के जरिए इस शरीर की सफाई करके ही इसे निकाला जा सकता है।… जाति महज सांस्कृतिक धार्मिक मसला नहीं है बल्कि यह जीवन के हर पहलू के साथ गुथा हुआ है।²⁷ मुक्त कौन पथे (1936) के लेख में अंबेडकर धर्म परिवर्तन बताते हैं। क्योंकि जाति का पालन तो तथा कथित ऊंची जाति के लोग करते है और इलाज तथाकथित निम्न जातियां प्रस्तुत करती है। अलग रहने से अलगाव और नापसंदगी पैदा होगी, बल्कि मिलकर साथ साथ रहने से लगाव पैदा होगा और जाति का विनाश भी होगा।
दलित मुक्ति को शरण कुमार लिंबाले अलग तरह से देखते हैं ‘दलितों के प्रश्न का स्वरूप केवल आर्थिक या केवल सामाजिक दृष्टि से अलग-अलग देखने पर भी दलितों के प्रश्नों का आर्थिक पक्ष को नकारा नहीं जा सकता है... वर्ग संघर्ष और वर्ग संघर्ष दोनों की लड़ाइयां साथ साथ ही लड़नी होगी। तथा वर्ण व्यवस्था से मुक्त हुआ दलित आर्थिक विषमता से मुक्त होगा।… उनकी अस्पृश्यता समाप्त होनी चाहिए साथ ही उनकी गरीबी भी समाप्त होनी चाहिए।²⁸ स्पष्ट है कि वे दलित प्रश्न में आर्थिक पक्ष को स्वीकार करते हैं। वर्ण संघर्ष की बात तो ठीक है किंतु वे जो वर्ग संघर्ष की लड़ाई जो दलितों को दे रहे है, वह महत्वपूर्ण नहीं है। जब पूंजीवाद से जाति व्यवस्था को चुनौती मिल रही है तो दलितों को गरीबी समाप्त करने के लिए पूंजीवाद स्वीकार करने की जरूरत है न कि वर्ग संघर्ष की जरूरत है।
जातिवाद के साथ पितृसत्ता और नस्लवाद साथ साथ चल रहे हैं। वर्तमान में स्त्रीवाद पूंजीवाद दोनों से जाति को चुनौती मिल रही है। दलितों को इन दोनों को स्वीकार करने की जरूरत है। समाज में भले न सही पर बाजार में दलितों का यथार्थ स्वतंत्रता मिल सकती हैं। जाति का पालन करने वाले तो तथाकथित उच्च श्रेणी से है और इलाज तथाकथित निम्न श्रेणी के वाले प्रस्तुत कर रहे हैं। इस प्रकार एक दूसरे से अलग रहते है। तब कैसे संभव है कि जाति का उन्मूलन होगा। दोनों समुदायों के साथ आने से ही जाति का उन्मूलन हो सकता है। इन दोनों समुदायों को एक जरूरी वस्तु का उत्पादन या विक्रय और उपभोग जोड़ सकता है। दलितों को यही काम करना है।
कार्ल मार्क्स और अंबेडकर –
कार्ल मार्क्स और अंबेडकर दोनों समकालीन समय में प्रासंगिक हैं। दोनों का दर्शन शोषण के खिलाफ है। दोनों शोषण विहीन समाज की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है। दोनों का केंद्र बिंदु मानव है। शोषित वर्ग है। कार्ल मार्क्स और अंबेडकर²⁹ दोनों जमीन के राष्ट्रीयकरण की बात करते हैं। मराठी दलित साहित्य में रावसाहेब कसबे, सदाकान्हाडे, शरण कुमार लिंबाले और आनंद तेलतुंबडे आदि दलित विचारक कार्ल मार्क्स और अंबेडकर दोनों को साथ लेकर चलने में विश्वास करते है। वर्तमान समय में अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद को अलग-अलग देखना अपने समय की उपेक्षा करना है।
वर्तमान समय में जाति विरोधी बहुत सारे संगठन एवं व्यक्ति जाति आधारित भेदभाव मिटाने का काम कर रहे हैं पर उनका काम कहीं प्रकाशित होता नहीं दिखाई दे रहा है। जाति के आधार पर दलित मारे जा रहे हैं। नाम के पीछे सिंह जोड़ने पर धमकी मिलती है। बाइक ओवरटेक करने पर मार दिया जाता है। मूंछ रखने पर उत्पीड़न होता है। शिक्षण संस्था में पहचान प्रदर्शित करने पर उत्पीड़न होता है। कोई दलित टैंक का पानी पी ले तो टैंक को गोमूत्र से धोया जाता है। अगर कोई दलित गाय का चमड़ा उतार रहे हैं तो गौ हत्या का झूठा आरोप लगाकर पीटा जाता है। दलितों की स्थिति को समझने के लिए तुलनात्मक अध्ययन की जरूरत है। जहां दलित का शोषण हो रहा है, और दूसरा जहां दलित का शोषण नहीं हो रहा है। दोनो के सामाजिक स्थितियों में तुलना करके मूल अंतर को स्पष्ट कर उनके शोषणहीन और शोषणयुक्त स्थिति को समझा जा सकता है, और शोषण से निकाला भी जा सकता है।
समकालीन दलित चिंतक बुनियादी बातों के सिवाय हवा हवाई बातें अधिक करते हैं दिखाई देते हैं। वे मात्र सामाजिक राजनीतिक शैक्षिक बात करते है। जिससे समाज में या जीवन में परिवर्तन नहीं होता है। परिवर्तन का मुख्य आधार पूंजी है। इससे समाज और जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन हो जाता है। अंबेडकर ने दलितों के शैक्षिक सामाजिक विकास के साथ आर्थिक विकास की बात कही है।³⁰ उनके विचारों को लेकर चलने वालों में आर्थिक पक्ष नहीं दिखाई दे रहा है। अंबेडकर लेखनी को व्यापार का साथ देने को कहते हैं। इसके कई बड़े अर्थ हो सकते हैं जिसका एक अर्थ उद्यमिता है। तथा शरीर को मजबूत बनाने तथा रुपया कमाने को भी कहते हैं।³¹ साथ ही अस्पृश्यता की दशा में सुधार के लिए आर्थिक पुनर्निर्माण को महत्वपूर्ण मानते हैं।³² अंबेडकर यह भी मानते हैं कि स्पृश्य और अस्पृश्य बीच एकता कानून नहीं प्रेम के बल पर लाई जा सकती है।³³ समाज की एकता के लिए प्रेम जरूरी है। यही दोनों को एकजुट कर सकती है और यही प्रेम दलितों को सृजनात्मकता तक यात्रा का अवसर दे सकती है।
कार्ल मार्क्स पूंजी में लिखते हैं – समाज में उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य के भौतिक भंडार होते हैं पहली दृष्टि से भिन्न में मूल्य एक परिणामत्मक संबंध के रूप में यानी उस अनुपात के रूप में सामने आता है जिस अनुपात में एक प्रकार से उपयोग मूल्य का दूसरे प्रकार के उपयोग मूल्य से विनिमय होता है।³⁴ इसका आशय यह है कि समाज आर्थिक संसाधनों से भरा हुआ है और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाए तथा वस्तुओ का उत्पादन किया जाए। श्रम और प्रतिभा का उपयोग कर वस्तु का निर्माण हो। नि:संदेह उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य समान होते हैं। यही उत्पादन फिर उपभोग उसे विनिमय या विक्रय की अवस्था तक पहुंचाते हैं। ऐसे में उत्पादक, क्रेता और विक्रेता के बीच एक संबंध स्थापित होता है। इस सामाजिक संबंध को कोई नकार नहीं सकता क्योंकि उत्पाद में उत्पादक का श्रम निहित होता है। और उसमें आवश्यकता को संतुष्ट करने की क्षमता होती है। इस प्रकार उत्पादक या विक्रेता की उपयोगिता वस्तु के बराबर या उससे अधिक होगी। या आवश्यकता की तीव्रता पर अधिक प्रभावी है। (उपयोग मूल्य वह मूल्य होता है जो अपने गुणों से मानव आवश्यकता को पूरा करने का सामर्थ्य रखता है) यह सभी चीजों का अपना स्वाभाविक गुण होता है। कार्ल मार्क्स के यहां रचनात्मकता की अभिव्यक्ति, अपनी रुचि और क्षमता का विकास व्यक्ति का शोषण ना होना। या किसी व्यक्ति को शोषण का अधिकार ना देना सच्ची स्वतंत्रता की पहली शर्त है। दूसरे के निर्णय के आधार पर जीविका पाना तथा व्यक्ति का शोषण होना परतंत्रता है।³⁵ प्रकृति प्रदत्त वस्तु में मनुष्य अपने श्रम या प्रतिभा से उपयोगी वस्तु बनाता है। यदि वस्तु उपयोगी है तो उसका स्वरूप सामाजिक होगा। लोगों की संतुष्टि या देश या व्यक्ति की उन्नति के लिए उत्पादन, सृजन और विक्रय जरूरी है। इस स्थापना से दलित परे नहीं है। यह दलितों के संदर्भ में भी लागू होता है। उनकी सृजन क्षमता को उत्पादन की कौशल में बदलकर उनको शोषण की स्थिति से निकाला जा सकता है। कभी-कभी उत्पादन भी मांग पैदा करता है। दलितों को बाजार में सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है। दलितों को अपने विचारों को उद्योग में बदल देना चाहिए।
कार्ल मार्क्स ने दास कैपिटल के प्रथम अध्याय में लिखा है– ‘★मालों के रूप में वस्तुओं के अस्तित्व का और श्रम से पैदा होने वाले वस्तुओं के बीच उस मूल्य के संबंध का जो इन वस्तुओं को माल बना देता है। उनके भौतिक गुणों से तथा उन गुणों से पैदा होने वाले भौतिक संबंध का कोई ताल्लुक नहीं होता है। वहां मनुष्यो के बीच सामाजिक संबंध होता है।... दुनिया में मानव मस्तिष्क से उत्पन्न कल्पनाएं स्वतंत्र और जीवित प्राणियों जैसा प्रतीत होता है। जो आपस में एक दूसरे के साथ और मनुष्य जाति के साथ भी संबंध स्थापित करती रहती है। श्रम द्वारा निर्मित वस्तु की दुनिया में मनुष्य के हाथों से उत्पन्न होने वाली वस्तुएं भी यही करती हैं यही मालों की जड़ पूजा है।³⁶
“जब श्रम से पैदा होने वाली वस्तुओं का विनिमय होता है। केवल तभी वे वस्तु के मूल्य में एक समरूप सामाजिक हैसियत प्राप्त करती हैं। जो उपयोगी वस्तुओं के रूप में उनके नाना प्रकार के अस्तित्व रूपों से भिन्न होती है। श्रम से पैदा होने वाली किसी वस्तु का उपयोगी वस्तु तथा मूल्य में यह विभाजन केवल उस समय व्यवहारिक महत्व प्रदान करती है जब विनिमय का इतना अधिक विस्तार हो जाता है। कि उपयोगी विनिमय करने के उद्देश्य से ही पैदा की जाती है।“³⁷
पहले गद्यांश से स्पष्ट है कि वस्तुओं और वस्तुओं के बीच संबंध स्थापित करने वाला वस्तु नहीं बल्कि व्यक्ति होता है क्योंकि भौतिक संसाधन में मनुष्य ही जान डालता है। मनुष्य द्वारा उत्पन्न विचार और उन विचारों की मूर्त अभिव्यक्ति या विचारों के अनुसार श्रम द्वारा निर्मित वस्तु को उपयोगी होना चाहिए। वह उपयोगी वस्तु व्यक्तियों के बीच आपसी संबंध बनाता है। जिसे कार्ल मार्क्स ने सामाजिक संबंध कहा है। उत्पादित वस्तु किसी व्यक्ति के या समूह के आवश्यकता की पूर्ति करती है। वह उसे खरीदेगा अवश्यकतापूर्ति बदले में विक्रेता को सम्मान और उपयोगिता के बदले में वस्तु का मूल्य देगा।
दूसरे गद्यांश से स्पष्ट है कि श्रम द्वारा उत्पादित वस्तु और उस वस्तु के वितरण या विक्रय से वस्तु और व्यक्ति जो उत्पादन कर रहा है या विक्रय कर रहा है दोनों से सामाजिक हैसियत में वृद्धि होगी। जिस प्रकार उपयोगी वस्तु को सामाजिक महत्त्व और व्यावहारिक महत्व अपनी उपयोगिता के कारण प्राप्त होता है उसी प्रकार उत्पादक को या विक्रेता को उनके श्रम सृजन और उपयोगिता के कारण जो कि आवश्यकता पूर्ति कर रहा है’ सामाजिक और व्यावहारिक महत्व प्राप्त होगा क्योंकि मनुष्य अपने श्रम से वस्तु को उपयोगी, सुलभ तथा गम्य बनाता है। वस्तु का उत्पादन का विक्रय ही उसे मूल्यवान बनाता है इसी में उसकी सामाजिक अहमियत है। इन दोनों विचारो से दलित बाहर नहीं है।
यदि कोई दलित किसी वस्तु का सृजन करता है। जो मानव आवश्यकता को संतुष्ट करता है जितना वस्तु की कीमत होगी और वस्तु की कीमत उसकी उपयोगिता, श्रम और लागत तय करती है’ लोगों का व्यवहार भी उसके प्रति उतना ही कीमती होगा। ऐसे में जाति का मूल्य घटेगा। दलित कार्यकर्ता चंद्रभान प्रसाद भी मानते है कि दलित पूंजीवाद जाति व्यवस्था को ढहा सकता है।³⁸ दलित किसी वस्तु का सृजन भी कर सकता है विक्रय भी कर सकता है दोनों कर सकता है। जहां तक हो सके नए वस्तु का उत्पादन करना चाहिए और जहां तक हो सके खुली आंखों से देखा जाना चाहिए कि लोगों की जरूरत क्या है ? यह भी ध्यान देने योग्य बातें है कि वस्तुएं स्वयं मांग भी पैदा करती है। अत: समस्या को चिन्हित करके उसको हल करने के लिए वस्तु के निर्माण की संभावना है। इससे दलितों के आय में वृद्धि के साथ उनके जीवन स्तर और राष्ट्रीय आय में भी वृद्धि होगी। जब मालो से संबंध बनेगा ऐसे में हर वर्ग वर्ण से संबंध स्थापित होगा और तभी प्रेम स्थापित होगा और परिवारिक संबंध की संभावना बढ़ेगी । इतिहास हमें बताता है कि खान-पान रहन-सहन पूजा पाठ की भिन्नता होते हुए भी आवश्यकता पूर्ति करने वाले सम्मानित होते रहे हैं। अतः दलितों को खुद को अहमियत देना चाहिए तथा दास चित्तवृत्ति निकल कर फेंक देने चाहिए ।
लोकतंत्र के इस युग में यदि दलितों द्वारा निर्मित वस्तु आवश्यकता को संतुष्ट करती है तो उसे लोग खरीदेंगे। तब उसे सामाजिक सम्मान प्राप्त होगा और धन भी प्राप्त होगा। ऐसे में जाति की कीमत उच्चता और निम्नता दोनों कम होगी। चित्र में वस्तु की कीमत या उपयोगिता और लोगों के व्यवहार में समानुपाती संबंध दिखाई देता है, और अन्वेषित वस्तु के मूल्य और व्यक्ति के मूल्य में अनुक्रमानुपाती संबंध दिखाया गया है तथा वस्तु और व्यक्ति की कीमत तरह जाति की कीमत के बीच व्युत्क्रमानुपाती संबंध दिखाई देता है। इसी के आधार पर जाति का उन्मूलन का सिद्धांत आधारित है।
चित्र 1
चित्र 2

उपरोक्त चित्र में वस्तु, व्यक्ति और जाति के कीमत की रेखा का अवलोकन कीजिए। शून्य वह बिंदु है जहां दलित अपने श्रम, रचनात्मकता और प्रतिभा का उपयोग ना करके हुए किसी वस्तु का निर्माण नहीं करता है। यहां निम्न जीवन स्तर है। यह सामाजिक हैसियत कम है। या नहीं है। वहां जाति की कीमत चरम पर है। इसके विपरीत अगर कोई दलित व्यक्ति ऐसी नई चीज वस्तु का उत्पादन या निर्माण करता है जिससे लोगों की इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति होती है तो जितना वह वस्तु की कीमत रखता है उतना ही व्यक्ति का व्यावहारिक महत्व बढ़ता है अर्थात दलित की उपयोगिता वस्तु की उपयोगिता दोनों बराबर है। जब वह निर्माण करता है। ऐसे में जाति का कीमत घटता है। यदि कोई दलित किसी उपयोगी वस्तु का निर्माण करता है। जिसकी कीमत दस ( रुपए में) तो उस वस्तु के बदले में व्यक्ति का महत्व या सम्मान भी दस अंक ( सामाजिक हैसियत में) के बराबर रहेगा। मुद्रा की कीमत और व्यक्ति की हैसियत दोनों योग्यता , मूल्य और विश्वास से बनते है। मतलब शून्य बिंदु से बढ़ा हुआ है। उत्पादक या विक्रेता दलित का सम्मान इसलिए बढ़ेगा क्योंकि वह समाज की आवश्यकता की पूर्ति कर रहा है और इसलिए खरीदने वाला उत्पादक या विक्रेता का सम्मान करेगा। जैसे जैसे वस्तु की कीमत बढ़ती जायेगी व्यक्ति का कीमत भी बढ़ता जाएगा और जाति का कीमत घटता जायेगा। यदि कोई दलित ऐसी वस्तु का निर्माण करता है जिसकी आवश्यकता की तीव्रता बहुत अधिक है और उसकी कीमत पचास रखता है तो उसका सम्मान भी पचास ( हैसियत में) के कीमत के अंक के बराबर होगा। ऐसे में जाति की कीमत (उच्चता और निम्नता में) घटती हुई दस के बराबर होगी। ऐसे में आवश्यकता की तीव्रता पर दलित अनमोल रहेगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां दलितों आर्थिक स्थिति शून्य है। वहां जाति की कीमत चरम पर है। जैसे जैसे दलित वस्तु का निर्माण करता जाता और मुद्रा प्राप्त करता जाता है। वैसे आर्थिक स्थिति उन्नति की बढ़ती जाती है और जाति की कीमत कम होती जाती है। दलितों को ऐसे वस्तु का उत्पादन करना चाहिए जो अनुपेक्षीय हो। जैसे दवा का निर्माण करे या दवा का कच्चा माल का उत्पादन करे। अस्पताल बनाए सड़क बनाए, घर का निर्माण करे। ऊर्जा और ट्रांसमिशन पर काम करे। समय निकाल कर दलितों को इंडिया टावर के निर्माण के बारे में सोचना चाहिए। अनिश्चित समय में भोजन , पानी, कपड़ा की उपलब्धता और संभावना पर काम करे। उत्पादन केवल भौतिक जगत में ही नहीं प्रत्यय जगत में भी हो सकते है। चंद्रभान प्रसाद और मिलिंद कांबले राउंडटेबल को दिए गए अपने एक इंटरव्यू में कहते है कि राष्ट्र को यह जानना चाहिए कि दलित ग्राही ही नहीं बल्कि दाता भी है।³⁹ यह उदारवाद के दौर में सही समय है।
चित्र दो में मुद्रा और जाति की कीमत का ऐतिहासिक मूल्यांकन है। मुद्रा की कीमत और जाति की कीमत की चाल को तुलनात्मक रूप में दिखाया गया है। मुद्रा की कीमत का वृद्धि दर गुणात्मक है तथा जाति की कीमत की वृद्धि दर अंकगणितीय है। मुद्रा की कीमत लगातार बढ़ता जा रहा है जबकि जाति का मूल्य एक सीमा तक बढ़ने के बाद घट जाता है। जहां मुद्रा की कीमत शून्य है वहां जाति की कीमत एक है। जहां मुद्रा की कीमत एक है। वहां जाति की कीमत दो है। शुरुवात में जातीय का मान एक और मुद्रा मन शून्य का मतलब यह है कि मुद्रा के उद्भव के पहले जाति का उद्भव हो चुका था। तीन बिंदु पर जाति अपने चरम पर है। चौथे बिंदु पर आते ही मुद्रा और जाति दोनों का मूल्य समान हो जाता है। पांचवा बिंदु वर्तमान है। जहां मुद्रा का मूल्य जाति के मूल्य से अधिक है। और भविष्य में मुद्रा का मूल्य बढ़ेगा और जाति का मूल्य घटेगा। यह भी समझने की जरूरत है कि हमारे पूर्वजों के समय में जो जाति की कीमत थी वह कीमत हमारे समय में नहीं है। मतलब काम है, और आने वाले समय में यह घटेगा ही क्योंकि केंद्र में संविधान हैं जो जातिवाद का निषेध करता है दूसरी ओर मानव जीवन को जितना मुद्रा या मुद्रा की कीमत प्रभावित करता है। उतना जाति नहीं। वर्तमान में मानव जीवन में जो कुछ है या जो कुछ हो रहा है उसमें मुद्रा की भूमिका ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में है।
★ यहां मुद्रा और जाति की कीमत को मापने का आधार साख या विश्वास है।
साहित्य में जाति का उन्मूलन
सौभाग्य के कोड़े प्रेमचंद द्वारा लिखी कहानी में नथुआ जब संगीतकार बन जाता है। तब वह नाथूराम कहलाने लगता है। और जब समाज में उसकी मांग या उपयोगिता बढ़ जाती है तो प्रेमचंद लिखते हैं उसकी जाति पूछने वाला कोई ना था। इसकी अभिव्यक्ति हमें जीवन में भी दिखाई देता है। एक कहावत है – लक्ष्मी तेरे तीन नाम कलुवा, कालूराम, कालूराम जी। जीवन में मुद्रा की वृद्धि से व्यक्ति के सम्मान में भी वृद्धि होती है जब कल्लूराम धनहीन है तो लोग कालुवा कहते हैं। जब थोड़ा धन बढ़ जाता है तब लोग कल्लूराम कहते हैं और जब धन की बढ़ोतरी अत्यधिक हो जाती है तो लोग कालूराम जी कहते है। यह लोक चेतना है। मुद्रा से जीवन में आत्मनिर्भरता आती है और सम्मान भी बढ़ता है। दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति करने की हैसियत भी बढ़ जाती है।
गोदान उपन्यास में होरी कहता है। “हम सब बिरादरी के चाकर हैं उसके बाहर नहीं जा सकते।“ गोबर कहता है “रुपए हो तो ना तो हुक्का पानी का काम है ना जाति बिरादरी का। दुनिया पैसे की है हुक्का पानी कोई नहीं पूछता।“ यह पीढ़ी का संघर्ष है और विचारो में परिवर्तन है। पुरानी पीढ़ी के अलग और नई पीढ़ी के अलग तरह का विचार है। वर्तमान में यह संघर्ष चल रहा है और जाति बिरादरी का स्थान मुद्रा वाली हैसियत ले रही है। जिसे होरी परिस्थिति मान रहा है गोबर उन परिस्थितियों को जीवन जगत में प्रयोग कर रहा है। मालती का कथन है– इस नई सभ्यता का आधार धन है विद्या और सेवा और कुल और जाति सब धन के सामने हेय हैं। यही संक्रमण कालीन समाज उस समय था और आज भी है। जाति बिरादरी मरजाद यह सामंती समाज के तत्व है जबकि पूंजीवादी समाज में धन का महत्व है। धन के सामने सब छोटे हैं। इसको स्थापित समझने की जरूरत है ताकि जीवन में बदलाव आ सकें। हमें उत्पादन के पारंपरिक प्रणाली में बदलाव करना चाहिए। होरी की दुर्दशा का यही कारण है कि वह जिस उत्पादन के पारंपरिक प्रणाली में काम कर रहा है वह शोषण कर रही है। फिर वह उसी उत्पादन की प्रणाली में बना हुआ है। नए उत्पादन के प्रणाली से संबंध स्थापित नहीं कर रहा है।
जातिवाद से मुक्त के लिए धर्म परिवर्तन⁴⁰ या क्रांति⁴¹ आवश्यक नहीं है। न हीं विदेश में जन्म लेने की जरूरत है। ना यह कोई आध्यात्मिक शक्ति से युक्त है। इसी जन्म में जाति का उन्मूलन हो सकता है। और भविष्य का साध्य कभी साधन बन जाता है। कभी वर्तमान का साधन साध्य बन जाता है। विचारों का विकास होता है। व्यक्ति की स्थिति बदल जाने पर विचारों में परिवर्तन भी होता है। जाति व्यवस्था को हमेशा से ठोकर लगी है। जाति स्वयं घायल है। बुद्ध धर्म से भक्ति आंदोलन से, इस्लाम के और अंग्रेजो के शासन से और वर्तमान में संविधान और दलित कानून से जाति व्यवस्था कमजोर हुआ है। व्यक्ति ने जाति व्यवस्था पर जीत दर्ज की है। वर्तमान में जाति व्यवस्था को पूंजीवाद से चुनौती मिल रही है। ‘पूंजीवाद दलितों के लिए एक अवसर है। दलितों को पूंजीवाद स्वीकार करने की जरूरत है।
*माल – श्रम द्वारा निर्मित वस्तु
*हैसियत – यह शब्द सामर्थ्य सूचक योग्यता के प्रदर्शन का शब्द है। यह दूसरे की भावनाओं की एक समझ और परवाह है। यह भाव वाचक संकल्पना है जो सकारात्मक रूप में हम दूसरों के साथ जैसा व्यवहार करते है और बदले में ऐसे व्यवहार की आशा करते है।
संदर्भ
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3. उपरोक्त पृष्ठ 61
4. परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति फ्रेडरिक एंगेल्स, प्रगति प्रकाशन मास्को, पृष्ठ 39
5. जाति का विनाश डॉ. अंबेडकर, अनु. राजकिशोर, फॉरवर्ड प्रेस 2020, पृष्ठ 60
6. उपरोक्त, पृष्ठ 61
7. परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति फ्रेडरिक एंगेल्स प्रगति प्रकाशन मास्को, epustakalay.com, पृष्ठ 38
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9. जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन, आनंद तेलतुंबडे, अनु. रुबीना सैफी आधार प्रकाशन पंचकूला तृतीय संस्करण 2021, पृष्ठ 47
10. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, संपूर्ण वांग्मय खंड 13, शूद्र कौन थे?, चौथा अध्याय शूद्र बनाम वर्ण, अंबेडकर प्रतिष्ठान प्रकाशन, तीसरा संस्करण 2013, पृष्ठ 43–45
11. उपरोक्त पृष्ठ 43 और शूद्रो का प्राचीन इतिहास राम शरण शर्मा, अनुवाद विजय बहादुर ठाकुर, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1979, पृष्ठ 10
12. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, संपूर्ण वांग्मय खंड 13, शूद्र कौन थे?, चौथा अध्याय शूद्र बनाम वर्ण, अंबेडकर प्रतिष्ठान प्रकाशन, तीसरा संस्करण 2013, पृष्ठ 45
13. उपरोक्त राम शरण शर्मा, पृष्ठ 10
14.प्राचीन भारत का सामाजिक और आर्थिक इतिहास ओम प्रकाश, पंचम संस्करण 2001, न्यू एज इंटरनेशनल लिमिटेड प्रकाशन, पृष्ठ 135
15.उपरोक्त, पृष्ठ 135
16.तमिल नाडु में गैर ब्राह्मणों के पुजारी बनने पर, संजय श्रीवास्तव,21 जून 2021, Tv9hindi.com + क्या तमिलनाडु की तरह पूरे देश में गैर ब्राह्मण पुजारी बनने चाहिए. सुमित चौहान, shudra.Com 23 अगस्त 2021
17. जाति का विनाश अंबेडकर फॉरवर्ड प्रेस प्रकाशन 2020,, पृष्ठ 95
18. आधुनिकता के आईने में दलित संपादन अभय कुमार दुबे, पृष्ठ 24
19. जाति का उन्मूलन और जनवादी समाज आनंद तेलतुंबडे अनु. रुबीना सैफी, आधार प्रकाशन पंचकूला, तृतीय संस्करण 2021, पृष्ठ 102
20. उपरोक्त, पृष्ठ 50
21.Against the madness of Manu sharmila rage page 156,157,158,161,162.
22.जाति का विनाश डॉ. अंबेडकर 96
23.उपरोक्त पृष्ठ 98
24.उपरोक्त पृष्ठ 99
25.उपरोक्त पृष्ठ 100
26.जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन आनंद तेलतुंबडे, अनु रुबीना सैफी, आधार प्रकाशन पंचकूला तृतीय संस्करण 2021, पृष्ठ 56
27.उपरोक्त पृष्ठ 60
28.दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र शरण कुमार लिंबाले संस्करण 2020, पृष्ठ 82
29. अंबेडकर व्यक्तित्व जीवन के कुछ पहलू, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ - 39
30.भीमराव अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खंड 35, दूसरा संस्करण 2020, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ 217
31.उपरोक्त खंड 40, अध्याय 244
32.उपरोक्त , खंड 12 रुपए की समस्या, पृष्ठ 312,
33.उपरोक्त खंड 12, पृष्ठ 222
34.पूंजी कार्ल मार्क्स, अनु. ओम प्रकाश गगन, epustakalay.com पृष्ठ 50–51
35.मार्क्सवाद यशपाल पृष्ठ 80–81
36.पूंजी कार्ल मार्क्स, अनु. ओम प्रकाश गगन, epustakalay.com पृष्ठ 87
37.उपरोक्त पृष्ठ 87
38.Dalit capitalism can turn the caste order चंद्रभान प्रसाद का साक्षात्कार अदिति फडणवीस के साथ,bussiness standard 30 दिसंबर 2018
39.Capital can changing the caste much faster than any human beings साक्षात्कार मिलिंद कांबले और चंद्रभान प्रसाद शेखर गुप्ता के साथ, roundtableindian.co.in 11 जून 2013
40.मुक्ति कौन पथे अंबेडकर का भाषण, tpsgness.com
41.जनवादी समाज और जाति का उन्मूलन आनंद तेलतुंबडे अनु रुबीना सैफी, आधार प्रकाशन पंचकूला तृतीय संस्करण पृष्ठ 60–61
—नाम मेवालाल शोधार्थी हिंदी विभाग बीएचयू
अक्षरवार्ता पत्रिका में प्रकाशित, अंक जून 2023, issn 23497521, impact factor –7.725, vol xix , issue viii
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