अब कौन पहचानेगा ? कविता ~ गौतम कुमार

 अब कौन पहचानेगा?

   

    अभ्रक

    जस्ता

    चूना-पत्थर

    बुजुर्गों की तरह बरसों से शांत बैठे हैं

    धरती के नीचे

    बुजुर्गों की तरह ही पहचानते हैं

    उस मुंडारी बच्चे के कोमल पैरों की थाप को

    जो उतर चुकी है खनिज विशेष के पोरों में

    जैसे जड़ें उतरती हैं 

    मिट्टी में

    सपाट सी धरती पे

    पनप उठते हैं इतने गहरे रिश्ते!


    पत्तियाँ नहीं है वो

    बल्कि जंगल के दस्तावेज़ हैं

    आदिवासी स्पर्शों से हरी

    पहचानती हैं संथाली उंगलियों को

    सहज ही टूट जाती हैं हल्के से ज़ोर पे

    फिर उग आती हैं निःस्वार्थ

    वही नैसर्गिक हरापन लिए


    किसी जंगली फूल से मेल खाती है

    उस गोंड लड़की की मुस्कुराहट

    दोनों एक दूसरे को ख़ूब पहचानते हैं


    मुआवज़े की अधूरी रक़म के साथ

    विस्थापित उस बच्चे को 

    उस लड़की को

    अब कौन पहचानेगा?


    कंपनी ने पहचान लिया है

    अभ्रक को 

    चूना-पत्थर को 

    पेड़ों को!

               ~ गौतम कुमार, शोधार्थी जेएनयू 

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