जीने दो कविता नन्दलाल भारती
जीने दो
स्वर्ग से सुन्दर अपनी जहां में
मुझे भी जीना है,
हमें भी जिन्दगी के मायने सीना है,
याद रखो बरखुरदार
ये जहां कौड़ियों की वसीयत,
नहीं है तुम्हारी
जिन्दगी तो एक सफर है
चाहे तुम्हारी हो या हमारी
कौन से मोड़ पर सांस
साथ छोड़ दें
ना तुम्हें ना मुझे है जानकारी
इन्तिजा मान लो,
खुदा के बंदे
छोड़ दो ना इंसाफी के धंधे
फेंक दो खंजर
मत बनो बंजर
तल्ख आवरण उतार दो
इत्मीनान से जीओ
और
अपनी जहां को जीने दो।
नन्दलाल भारती
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