ईश्वर की सत्ता (लेख) ~ कार्तिकेय शुक्ल
#ईश्वर_की_सत्ता
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कुछ ऐसा लिखना जो न सत्य हो और न ही असत्य बहुत ही मुश्किल है। फिर भी लिखा जा सकता है। आप ने तो सुना ही होगा कि रसायन शास्त्र के विद्यार्थियों को तत्त्वों की जानकारी देते समय कभी कभार अध्यापक एक्सेप्शन शब्द का इस्तेमाल करते हैं। यदि उस एक्सेप्शन को सत्य और असत्य का केंद्र बिंदु माना जाए तो कुछ बातें स्पष्ट हो जाएंगी। मसलन क्या कुछ ऐसा भी है जो सत्य तो है लेकिन असत्य भी है? या कुछ ऐसा जो असत्य तो है ही साथ ही सत्य भी है? यानी कि कुछ ऐसा जो सत्य और असत्य दोनों कसौटियों पर खरा उतर रहा हो।
सामान्य शब्दों में तो ये मुश्किल है लेकिन दर्शन के क्षेत्र में ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे। जो एक ही साथ और एक ही समय सत्य और असत्य दोनों दीवारों को छूते नज़र आएंगे। जैसे कि ईश्वर है और नहीं भी है। वैसे ईश्वर को मानने वालों की संख्या भले ही आज अधिक हो लेकिन एक समय ऐसा ज़रूर रहा होगा। जब एक बड़ी संख्या ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करने वाली ज़रूर रही होगा। और ये इसलिए क्योंकि हाँ से हाँ के तरफ़ बढ़ने के बरक्स, ना से हाँ के तरफ़ बढ़ना आसान होता है। और ईश्वर के अस्तित्व के मामले में भी कुछ यही हुआ होगा। ईश्वर को स्वीकारोक्ति देने वाले लोगों का सामना सबसे पहले उसे नाकारोक्ति देने वालों से हुई होगी। और तब कहीं जाकर ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता मिली होगी।
विज्ञान को सही अर्थों में समझने वाले ये बखूबी जानते हैं कि ईश्वर का कोई साकार स्वरूप तो अभी तक नहीं ही दिखा है। दिखने का मतलब यही कि जैसे प्राकृतिक और अप्राकृतिक पदार्थों को देखा, छुआ और महसूस किया जा सकता है। वैसे ईश्वर को नहीं। हाँ ईश्वर को मानने वाले या मनवाने वाले ज़रूर कुछ बातें करते हैं और करते रहेंगे किंतु बातों का क्या! महज़ बातों से कुछ होता थोड़े ही है। बातें तो हवा ही होती हैं। जिन्हें कभी देखा तो नहीं ही जा सकता। हाँ महसूस और सुना ज़रूर जा सकता है। कुछ यही मामला ईश्वर के बारे में भी देखने को मिलता है। जो ईश्वर के साकार और निराकार(अकार) स्वरूप को स्वीकारते हैं। वो यही महसूस करने वाली बात पर ही ज़ोर देते हैं। जो सच के क़रीब तो नहीं ही ठहरता। ख़ैर इसके अलावा उनके पास चारा ही क्या है?
वैसे धर्म के कुछ विशेष मान्यताओं में ईश्वर के किसी भी रूप को नहीं स्वीकार किया गया है किंतु इस आधार पर उन्हें सच्चा धर्म या वैज्ञानिक धर्म नहीं कहा जा सकता। क्योंकि भले ही उस धर्म विशेष के आदि प्रवर्त्तक या पुरुष ने ईश्वर की सत्ता में विश्वास न जताया हो लेकिन उसके अनुयायियों ने उसे ही ईश्वर बना दिया। जिससे यही प्रतीत होता है कि ईश्वर के बिना काम नहीं चलने वाला। यानी कि शायद ही कुछेक लोग हों, जिन्हें ईश्वर की ज़रूरत न पड़े। और धर्मों के बारे में तो कुछ कहना बेमानी ही होगा। क्योंकि धर्म का जो बुनियादी आधार होता है, वो ईश्वर पर विश्वास से ही खड़ा होता है। हाँ उसके ईश्वर का रूप, रंग और ढांचा अलग अवश्य हो सकता है।
यदि ईश्वर में विश्वास रखने वालों की मान्यताओं के तरफ़ ध्यानाकर्षण किया जाए तो एक बात स्पष्ट होती है। और वो यही कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी तो है ही किंतु इसके साथ वो एक समस्या ग्रस्त प्राणी भी है। उसकी चैतन्यता उसके विकास में सहायक बनती, तो रोड़ा भी अटकाती है। रोड़ा कहने का मतलब यही कि मनुष्य मूल रूप से एक गुलाम प्राणी है। और यही गुलामी वो अन्य प्राणियों पर भी चाहे- अनचाहे थोपता है और थोपना चाहता है। जैसे कि उसने कुत्ते से शुरू कर के हर एक जीव प्राणी को अपने कब्ज़े में किया और करता आ रहा है। और इसके पीछे जो कारण है, वो उसके मन में दबी वो भावना जो उसे स्वयं एक गुलाम बने रहने की प्रेरणा देती है। और गुलाम होता किनसे है तो धर्म, धर्म पुरुषों और ईश्वर से।
यदि धर्म और ईश्वर को डर का एक बड़ा कारण माना जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वो इसलिए कि मानव जीवन को बेहतर बनाने में धर्म और ईश्वर की कोई बड़ी भूमिका नहीं दिखती है। और दिखे भी क्यों? जब ये ख़ुद अविश्वास के उपज हैं तो फिर जीवन जैसे आधारभूत विश्वास को कैसे विश्वास दे सकते हैं? विश्वास और अविश्वास ही ईश्वर के अस्तित्व को शक्ति देता है। जबकि होना ये चाहिए कि ईश्वर जैसी सत्ता का इंकार बढ़े। मानव अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है तो फिर उसका भाग्य विधाता कोई दूसरा कैसे हो सकता है? ये तो यही बात हुई कि हम रहेंगे किसी और देश में और काम करेंगे किसी और देश के लिए।
इसलिए विश्वास और अविश्वास के भ्रम से निकला जाए तो जो प्रकाशपुंज दिखेगा। वो ज्ञान का प्रकाशपुंज होगा और ज्ञान का क्षेत्र ईश्वर की मनाही तो अवश्य ही करेगा। ज्ञान कभी भी ये स्वीकार नहीं करेगा कि कोई कुछ कह दे और हम उसे ज्यों का त्यों मान लें। वो हमेशा तर्क का तराज़ू लिए उपस्थित मिलेगा। उसे सच को सच और झूठ को झूठ होते देखना अच्छा लगेगा और यही एक अंतिम बिंदु होगा। जहां ईश्वर की सत्ता को तिरस्कृत किया जाएगा। यही तिरस्कार मानव जीवन के बेहतरी का अगला पड़ाव होगा। एक बड़े ब्लैक होल से समूची मानवता को निजात मिलती दिखेगी।
~ कार्तिकेय शुक्ल शोधार्थी हिंदी विभाग हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
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