किसान जीवन की संघर्ष गाथा को चित्रित करती विमल राय द्वारा निर्देशित फिल्म: दो बीघा जमीन ~ अमृता राव

 शोध सार -'दो बीघा जमीन' फिल्म किसानों के संघर्ष और उनके दुख- दर्द को केंद्र में रखकर बनाई गई एक सामाजिक यथार्थवादी फिल्म हैं। एक किसान द्वारा अपनी जमीन बचाने की जद्दोजहद है और लाख कोशिशों के बावजूद अंत में अपनी जमीन ना बचाने की टीस है।प्रेमचंद के 'गोदान' उपन्यास में होरी ने कहा है- "जैजात किसी से छोड़ी नहीं जाती हैं …खेतों में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है।"फिल्म के नायक शंभू महतो के लिए यह जैजात उसकी मां के समान है। मां को बेचने या सौदा करने की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकता।लेकिन प्रेमचंद की कहानी 'सवा सेर गेहूं' के जैसा साहूकार यहां भी जमीदार के रूप में है जो शंभू के पाई पाई को तो जोड़ लेता है लेकिन अपने द्वारा गुलामी करवाए गए कार्यों का कोई हिसाब नहीं रखता।मिल खड़ा करने के लिए,शंभू के जमीन देने से इनकार करने पर जमीन हथियाने के लिए बहीखाते का हथकंडा अपनाता है। शंभू तीन महीने की मोहलत में अपना जी जा- जान लगाने पर भी जमीदार का कर्जा नहीं उतर पाता और परिस्थितिवश किसान से मजदूर बनने पर विवश हो जाता है।

बीज शब्द- किसान,सिनेमा,संघर्ष,जमींदार,सौंदागर,कलकता,चंगुल,बीघा,शहर,जमीन,दुनिया,गाँव,मिल,रिक्शा,सड़क।

मूल आलेख

जिस प्रकार साहित्य को मानव की चितवृतियों का प्रतिबिंब कहा जाता है।उसी प्रकार सिनेमा को भी समाज का प्रतिबिंब कहा जा सकता है।समाज, साहित्य और सिनेमा तीनों का आपस में गहरा अंतर्संबंध है।फिल्म लेखक तथा साहित्यकार राही मासूम रजा कहते हैं -"सिनेमा साहित्य की एक विधा है। सिनेमा को भी उन्हीं तकाजों को पूरा करना चाहिए। जो दूसरी सहित्यिक विधाएं पूरी करती हैं। सिनेमा प्रचार या प्रोपेगेंडा नहीं है वह अपने दर्शक को सुख प्रदान करता है और इस सुख से वह समाज को स्वस्थ बनाने की लड़ाई लड़ता है। जो फिल्म इस कर्तव्य का निर्वाह नहीं करती, समझ लेना चाहिए कि उसमें कहीं ना कहीं कोई त्रुटि है।"

सन 1913 ईस्वी में दादा साहब फाल्के द्वारा बनाई गई फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के जरिए भारतीय सिनेमा की नींव रखी गई थी। नीवं रखने के ठीक 40 साल बाद सन 1953 ईस्वी में विमल राय द्वारा निर्देशित फिल्म 'दो बीघा जमीन' आती है। विमल राय के समकालीन रहे रूसी फिल्मकार अन्द्रेई ताराकोवस्की ने सिनेमा के बारे में कहा है- "मैं स्पष्टतया सिनेमा में मनोरंजन के खिलाफ हूं। यह सर्जक और दर्शक के लिए भी समान रूप से निंदनीय है।सिनेमा का अस्तित्व जीवन के बिंबो के साथ पूर्णरूपेण तादातम्य कर लेने पर निर्भर है।" ताराकोवस्की के इस कथन को विमल राय अपनी फिल्म 'दो बीघा जमीन' में प्रतिपादित करते हैं।

फिल्म के शुरुआती दिनों में दृश्य में सूखी बंजर धरती, दरारें और आसमान में उड़ते बादल दिखाई देते हैं। बंजर धरती दरारें किसानों की वर्तमान स्थिति को बयां करते हैं तो आसमान में उड़ते बादल से उनमें नई आशा का संचार होता है। फिल्म के आरंभ में ही नायक संभू महतो अपनी पत्नी से कहता है -'इस बार फसल अच्छी होगी तुम तुम्हारे गिरवी रख गहने छुड़ा लूंगा और तुम्हारे लिए एक नई पायल भी खरीद दूंगा।' तब उसको इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं होता कि जमीन को बचाने के लिए पत्नी के बाकी गहने भी उसको बेचने पड़ेंगे। तब भी वह अपनी जमीन नहीं बचा पाएगा। फिल्म में सपने और यथार्थ की टकराहत है।सपने टुटते हैं और यथार्थ का क्रूर चेहरा सामने होता है।

'दो बीघा जमीन' में सौदागर को मिल खड़ा करने के लिए जमीन चाहिए। जमींदार ने अपनी जमीन देने का वादा किया लेकिन जमींदार की जमीनों के बीच दो बीघा जमीन शंभू महतो का भी है और इस जमीन को ना देने की जिद्द शुरू के ही दृश्य में दिखाया गया है क्योंकि शंभू महतो के पास तो बस खाने पीने के लिए जमीन का छोटा सा टुकड़ा ही है। जिस पर सौदागर की गिद्ध दृष्टि जम जाती है और उसका पूरा जीवन तबाह हो जाता है। जमीदार शंभू से जमीन लेकर सौदागर को देना चाहता है। वह शंभू को सपना दिखाता है।एक मिल खड़ी होगी, सड़कें बनेंगी, रोजगार मिलेगा, विकास की हरियाली लहलहाएगी,तुम सबको अच्छी जिंदगी नसीब होगी। लाओ अपनी जमीन दे दो। शंभू जमींदार के सामने करता है -"जमीन तो किसानों की मां है हुजूर, मां को कैसे बेच दूं।" जमींदार के ज्यादा समझाने पर शंभू कहता है-" पेड़ को मिट्टी से उखाड़ कर सोने से लगा दे तो क्या वह बच सकता है।" शंभू महतो का इनकार जमींदार बर्दाश्त नहीं कर पाता और एक दिन में सारा कर्जा अदागयी का फरमान जारी करता है। घर के बर्तन तक बेचकर संभू महतो अगले दिन ₹75 ले जाकर देता है लेकिन जमींदार शंभू की जमीन हड़पने के लिए चाले चलता है पुराना बहीखाता पलटा जाता है बहुत पहले अकाल के दिनों में लिए गए अनाज और पैसों का ब्याज ₹235 बताया जाता है। मामला अदालत तक पहुंचता है। अदालत उसे तीन महीने की मोहलत देती है। तीन महीने में गरीब किसान के लिए ₹235 का जुगाड़ करना नामुमकिन काम है। शंभू करे तो क्या? पत्नी के गहने के साथ-साथ घर के सारे बर्तन वह पहले ही देख चुका है।अंतत: वह गांव से पलायन के बारे में सोचता है। विकल्प के रूप में वह शहर की ओर देखता है। जहां वह मजदूरी कर दो पैसा कमाएगा और जमीन बचा लेगा। विमल राय की इस फिल्म में संभवत पहली बार किसानों के दुख दर्द को केंद्र में रखा गया है। अब तक गांव की पृष्ठभूमि और किसानों की समस्याओं को लेकर बनाई गई फिल्मों में जमींदार, मुनीम जी, प्यार मोहब्बत, प्रतिशोध और राजा रानी की तरह सब कुछ सुखद।नायक बदला ले लेता है उसको जमीन मिल जाती है। नायिका से प्रेम के बाद शादी रचा लेता है लेकिन दो बीघा जमीन में ऐसा कुछ नहीं है। मनोरंजन के तत्व भी नहीं है। अनेक फिल्म शमीक्षकों ने इस फिल्म को और सामाजिक सच्चाई बताया है।

वरिष्ठ फिल्म समीक्षक इकबाल मसूद लिखते हैं -"विमल राय की 'दो बीघा जमीन' का कलकता हिंदी के लोकप्रिय सिनेमा में दिखाई देने वाला उल्लेखनीय शहर है। यह सच कलकता से बहुत अलग तथा गुरुदत्त और राजकुमार के शहरों से जुदा है।यह उजड़े हुए गैर बंगाली किसानों की आंखों से देखा गया कोलकाता है जो शहर में पैसे कमाने तथा पूंजीवादी जमींदार से अपनी जमीन छुड़वाने आया है। यह फुटपाथों और काम के बोझ से थक गए रिक्शा वालों कलकता है।विमल राय की यह फिल्म शहर को अस्थाई मजदूर तथा सर्वहारा की दृष्टि से देखने का प्रयास करती है ऐसी कोशिश सिनेमा में कम हुई है।"इस फिल्म की कथा संगीतकार सलिल चौधरी ने लिखी थी। पटकथा ऋषिकेश मुखर्जी और गीत शैलेंद्र ने।

शंभू महतो विकल्पहीनता की स्थिति में पत्नी और बुजुर्ग पिता को गांव में अकेला छोड़ मजबूरी करने कलकता की ओर रवाना होता है। धोती,कुर्ता और सिर पर पगड़ी, कंधे पर लाठी और उसमें अटकी हुई एक गंदी सी गठरी। यह शंभू की वेशभूषा है। शंभू जब गांव की पगडंडियों से होकर शहर की ओर जा रहा होता है तो बैकग्राउंड में गीत बजता है।" मौसम बीता जाए…"शैलेंद्र लिखित इस गीत के कई संदेश हैं।मौसम के बीतने का अर्थ नए मौसम के आगाज का है तथा मौसम बाजार, उद्योग, संवेदनहीनता का है ।शोषण के बदले हुए रूप का मौसम। अब गांव में जमीन जोतते हुए किसान बने रहने के दिन बीत गए। कमजोर किसानों के पास जमीन छोड़ शहर में मजदूर बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। यह वह दौर था। जब परदेस का मतलब कलकता होता था। उस दौर में रोजगार सबसे ज्यादा कलकत्ते में ही उपलब्ध था इसलिए पलायन का रास्ता तब गांव से निकलकर दिल्ली नहीं कलकता ही जाता था। शहर पहुंचकर शंभू और उसके बेटे कन्हैया (जो अपने बचपन में रेल में बैठने के लिए चुपके से शंभू के पीछे पीछे कोलकाता जाता है) को पहला एहसास यही होता है,गांव अच्छा था। शहर में तो गरीब ही गरीब को लूटता है। फुटपाथ पर सो रहे बाप बेटे के गठरी चोरी हो जाती हैं।शहर पहुचकर उन्हें एक नई दुनिया का पता चलता है। जहां रहने को जगह नहीं। बात करने के लिए किसी के पास वक्त नहीं। सब आगे बढ़ने में जुटे और भिड़े हैं। शहर तो आ गए लेकिन जाए कहां? रहे कहां? क्या करें?इन सवालों को और गहरा करता फिल्म का वह सामूहिक गीत "अजब तेरी दुनिया हो मेरे रामा।"एक साथ एक ही देश में किसान के कई चेहरा हैं ।इनमें असली कौन है? इनकी पहचान कठिन है लेकिन अधिकतर किसानों की दशा शंभू से इतर नहीं है। उनकी व्यथा को समझने के लिए दो बीघा जमीन के गीत की पंक्तियां-

                              पर्वत कांटे

                             सागर पाटे

                         महल बनाए हमने

                     पत्थर से बगिया लहराए

                       फूल खिलाए हमने

                    होके हमार हुई ना हमारी

               अजब तेरी दुनिया हो मोरी रामा।

तीन महीने में ₹235 इकट्ठे करने के लिए शंभू महतो और उसका बेटा कन्हैया जी जान लगा देते हैं।गाँव में उसकी पत्नी को गर्भवती होने के बावजूद घर चलाने के लिए मजदूरी करना पड़ता है। फिल्म में क्रूर यथार्थ की खुरदरी सड़क है। जिस पर शंभू नंगे पांव दौड़ कर रिक्शा खींचता है। भूखे- प्यासे,दिन-रात। उसे बीमार पड़ने की भी छूट नहीं। शहर में संवेदना के कुछ टीले मकान मालकिन के रूप में बचे हुए हैं।शंभू खुद के भीतर में कोमलता बचाए रखा है । पैसों के प्रति आक्रामक हैं। मगर बच्चों को मुफ्त में घूमाता है।

शंभू को जमींदार के चंगुल से अपनी जमीन छुड़वानी है। मात्र बीस दिन बाकी रह गए हैं। और 200 भी पूरे नहीं हुए हैं।रिक्शा पर बैठा सवारी शंभू को रिक्शा तेज दौड़ने के लिए इनाम का लालच देता है। वह अपनी रफ्तार बढ़ा देता है। रिक्शा पर सवारी का मजा ले रहा व्यक्ति पैसे वाला है ।वह गरीब रिक्शा वाले के दर्द को नहीं समझता उसकी कोई दरकार भी नहीं है। उसे लुत्फ चाहिए जो वह ले रहा है। शंभू को इनाम में पैसे। वह जी जान लगा देता है ।खुद को रेस के घोड़े में तब्दील कर देता है।वह खुद को रफ्तार में झोंक देता है लेकिन रिक्शा उसका वेग नहीं झेल पाता है। पहिया अलग हो जाता है।दुर्घटनाग्रस्त शंभू लहूलुहान अस्पताल में पहुच जाता है। इकट्ठे किए गए रूपयों में से एक पैसा भी शंभू अपने दवाई के ऊपर खर्च नहीं करना चाहता। बिना खाना और दवाई के भी वह चाहता है उठकर रिक्शा चलाने चला जाए। इन परिस्थितियों के वश में आकर उसका बेटा कन्हैया अपने एक चोर दोस्त की मदद से पैसे लेकर फल और दवाइयां लाता है लेकिन यह सच्चाई जानकर शंभू महतो फल और दवाइयां फेंककर कन्हैया की खूब पिटाई करता है। फिल्मकार चाहता तो यहीं पर इनाम में ₹200 शंभू महतो को दिलाकर या चोरी किए गए पैसों से ही इस फिल्म का अंत सुखद कर देता लेकिन उसको एक कठोर सामाजिक यथार्थवादी फिल्म बनाने थी। उन्होनें ऐसा ही किया। शंभू महतो के दुर्घटनाग्रस्त होने का पता चलते ही उसकी पत्नी शहर आने के लिए चल देती हैं।शहर आते ही उसका पाला एक चोर उचक्के इंसान से पड़ जाता है। वह उसके पैसे भी ले लेता है और उस पर गिद्ध दृष्टि लिए झपटता है। भागने की कोशिश करती हुई सड़क पर आकर गाड़ी से टकरा जाती है और इत्तेफाक से वहां पर इकट्ठे भीड़ ने शंभू महतो की को ही उसे अस्पताल ले जाने के लिए बुलाते हैं। यह एक किसान के संघर्ष गाथा का चरम रुप दिखलाई देता है।

अंत में शंभू महतो को 'पूस की रात' कहानी के हल्खू और 'गोदान' उपन्यास के गोबर जैसे किसान से मजदूर बनना पड़ता है। 'दो बीघा जमीन' की तुलना प्रेमचंद के उपन्यास गोदान से ही नहीं बल्कि रंगभूमि से भी की जा सकती है। रंगभूमि का नायक सूरदास है। सौदागर वहां भी है। मिल वहां भी खड़ा करना है। उसके लिए भी जमीन चाहिए। शंभू महतो की तरह सूरदास की जमीन के बगैर मिल खड़ा नहीं हो सकता। सूरदास को भी बहलाने की कोशिश की जाती है। वह जमीन ना छोड़ने की जिद पर अड़ा रहता है। सूरदास के साथ उसका गांव समाज है लेकिन 'दो बीघा जमीन' का शंभू नितांत अकेला है। परिवार के अलावा उसका साथ देने वाला कोई नहीं है। किसानों को केंद्र में रखकर 'लगान' और 'पीपली लाइव' जैसी फिल्में भी आई लेकिन 'लगान' किसान समस्या से शुरू होकर क्रिकेट खेल के रोमांच में फस गई तो 'पीपली लाइव' मीडिया के एक्सपोज में। दोनों फिल्में अच्छी शुरुआत के बावजूद 'दो बीघा जमीन' से आगे नहीं निकल पाई।

'दो बीघा जमीन' फिल्म के अंतिम दृश्य में शहर से लूटा पिटा शंभू महतो वापस घर लौटता है। जमींदार के रुपए समय से नहीं चुका पाया है। उसकी जमीन लुट चुकी है। उसका बूढ़ा बाप पागल होकर इधर-उधर भटक रहा है। शंभू हसरत भरी निगाहों से उस जमीन को देखता है। जिस पर एक बिल्डिंग खड़ी हो रही है और किसी अपराधी की तरह अपनी ही जमीन से मुट्ठी भर मिट्टी उठाता है। दरबान देख लेता है। चोरी का आरोप लगाया जाता है।जबरदस्ती उसकी मुट्ठी खुलवाई जाती है। खाली हथेली पर पसरी मिट्टी बिखरने लगती हैं। दरबान उसे वहां से भगा देता है। वह अपनी ही जमीन से दूर कर दिया जाता है। जिनके पास खड़े होने के लिए भी जमीन नसीब नहीं है।उन लोगों के बीच उसको धकेल दिया जाता है।

निष्कर्ष - जवरीमल्म पारख ने कहा है-"फिल्म माध्यम किया विशेषता है कि यह जीवन की वास्तविकता को जीवन से भी विराट रूप में दिखाकर लोगों को गहरे रूप में प्रभावित कर सकता है।" लेकिन इस फिल्म को जीवन से भी विराट रूप में तो नहीं लेकिन जीवन की वास्तविकता के रूप में बिना किसी लाग लपेट के दर्शाया गया है। कोई इत्तेफाक नहीं, कोई रोमांस नहीं।ज़मीन को लेकर किसानों के संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है।अनेक योजनाएं बनाई गई है और बनाई भी जाती रहती है लेकिन किसानों की जिन्दगी में कोई खास परिवर्तन नहीं होता।किसानों को केंद्र में रखकर बहुत कम फिल्में बनी है,जिनमें 'उपकार','मदर इंडिया','गंगा-जमुना','कच्चे धागे','लगान','पीपली लाइव' आदि है। इन फिल्मों में 'दो बीघा ज़मीन' की एक किसान की वास्तविक संघर्ष गाथा को चित्रित करने के लिए एक खास पहचान है।

संदर्भ ग्रंथ

1. फिल्म- दो बीघा जमीन।

2. फिल्म- लगान।

3. फिल्म- पीपली लाइव।

4. सिनेमा और समाज अंतर्संबंध एवं प्रभाव- डॉ मंजू रानी।

5. होके हमार हुई ना दुनिया -प्रेम भारद्वाज।

6. पूस की रात -प्रेमचंद।

7. रंगभूमि -प्रेमचंद।

8. गोदान- प्रेमचंद।

9. सवा सर गेहूं- प्रेमचंद।

10. फिल्म-मदर इंडिया।

11. फिल्म-उपकार

12. फिल्म-गंगा जमुना

13. फिल्म-कच्चे धागे।

14. गीत 1वही फिल्म।

15. गीत 2वही फिल्म ।

नोट: गिना शोध संगम पत्रिका वॉल्यूम11, दिनाँक 31/8/2023

अमृता राव

शोधार्थी(काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)

Email raoamrita939@gmail.com

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