अज्ञेय और निर्मल वर्मा : एक तस्वीर–एक नजर ~ कार्तिकेय शुक्ल
अज्ञेय और निर्मल वर्मा: एक तस्वीर - एक नज़र
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इसे विडंबना कहा जाए या कोई संयोग कि कल निर्मल वर्मा का जन्मदिवस था तो आज अज्ञेय की पुण्यतिथि है। वैसे भी हिन्दी अकादमिया में निर्मल वर्मा और अज्ञेय को साथ - साथ ही देखने की कोशिश की जाती रही है और इन पर प्रहार भी एक ही तरफ़ से और कुछ - कुछ एक ही हथियार से भी हुआ है। वैसे भी साहित्य की दुनिया में इसे बुरा नहीं माना जाता किंतु ये देखने की कोशिश ज़रूर की जाती है कि कहीं कोई बैर भाव तो नहीं। क्योंकि बिन बैर भाव की आलोचना समृद्ध करती है। आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है। इसे कॉलरिज और वर्ड्सवर्थ के संदर्भ में देखें तो चीजें ज़रा और खुल कर सामने आएंगी। ख़ैर बात निर्मल वर्मा और अज्ञेय के संदर्भ में हो रही है तो ज़्यादा भटकना सही न लग रहा । वैसे भी कितना भी भटक लिया जाए, जो हो चुका है उसे बदला न जा सकता।
निर्मल वर्मा से संबंधित प्रसंगों पर लिखते समय एक प्रतिष्ठित आलोचक ( Krishna Mohan )उनके प्रयाग में बिताए संगम से नोट लेते हुए उनके अंधविश्वास और पोंगा - पोथियों पर तंज कसते हैं। और उदाहरण स्वरूप वे निर्मल वर्मा के लिखे को ही प्रस्तुत करते हैं। इसलिए इतना मानने का कारण ज़रूर बन जाता है कि निर्मल वर्मा जो ख़ुद लिख रहे हैं, उससे वे अगर होते तो इंकार न करते। वैसे भी पाठ का व्याख्या थोड़ा अलग ज़रूर हो जाता किंतु ये नहीं भी होता। और तब तो बिलकुल नहीं जब निर्मल वर्मा जैसे लोग पोंगा - पंडितों के शरण में जाकर नतमस्तक हो जाते हैं। जिनके जवानी के दिन ऐशो - आराम में कटते हैं और ढलान आते - आते आध्यात्मिक हो जाना चाहते हैं। इसे सच में पलायन न कहेंगे तो क्या कहेंगे?
क्या निर्मल वर्मा के प्रशंसक चाहेंगे कि निर्मल वर्मा सच को छोड़ कर झूठ का हाथ थामें? क्या उन्हें दुःख न होगा कि उनका प्रिय लेखक एक अंतहीन समुद्र में छलांग लगा रहा है, जो वास्तव में नाला है। निर्मल वर्मा को पसंद करने के कई अन्य कारण हैं और हो भी सकते हैं किंतु ये तो कतई नहीं कि वे अंधकार को प्रकाश कहें और सब मान लें। ये तो अंधभक्ति हुई न? फिर सजग पाठक कहलाने का हक़ कैसा?
यहां भी निर्मल वर्मा और अज्ञेय में एक संबंध स्थापित होता है। जो नज़दीक का न सही दूर का होकर भी क़रीब का लगता है। जैसे ढलान के दिनों में निर्मल वर्मा संगम में जाते हैं और अलौकिक साधनाओं से अचंभित होते हैं, वैसे ही अज्ञेय भी ढलान के दिनों में "जय जानकी यात्रा" पर निकलते हैं। इस प्रकार एक संबंध यहां भी दोनों में स्थापित होता है फिर भी निर्मल वर्मा के जैसे अज्ञेय सम्मोहित नहीं होते और उस रूप में तो बिलकुल नहीं जैसे कि एक भांग पीते साधु को देख कर निर्मल वर्मा होते हैं। निर्मल वर्मा जहां सब खोकर चले आते हैं, वहीं अज्ञेय कुछ पाते हुए लौटते हैं। वे लेखकों के घर जाते हैं। उनसे जुड़ते हैं। रचनात्मकता की बात करते हैं। किंतु निर्मल वर्मा आध्यात्मिकता के आड़ में पोंगा पंडितों को बढ़ावा देते हैं।
एक दूसरा संबध भी इन दोनों में दिखता है और वो है, वामपंथी लेखकों और संघों के द्वारा सामूहिक बहिष्कार। किंतु यहां भी निर्मल वर्मा बड़ी आसानी से अपने को बचा ले जाते हैं। जीवन की कड़वी सच्चाइयों से अपने लेखन को बचाए रख कर भी वे बचे रहते हैं तो इसके पीछे उनका दब कर रहना ही नज़र आता है। अज्ञेय जहां एक मोर्चा संभालते हैं, निर्मल वर्मा वहीं समझौता करते हैं। भले ही ये समझौता बाहरी तौर पर न दिखता हो किंतु अंदर की तहें इसकी बानगी स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती हैं। वे वैसा न कुछ लिखते और न कहते हैं, जिससे वाम पक्षधरों के अहम को चोट पहुंचे। वे शायद जानते हैं कि पानी में रह कर मगर से बैर न किया जा सकता।
इसके अलावा एक तीसरा संबंध भी दिखता है और वो ये कि निर्मल वर्मा और अज्ञेय दोनों एक दौर में मार्क्सवाद के क़रीब रहे हैं। हाँ, उन्होंने उसे छोड़ भी दिया। लेकिन जीवन के स्तर पर निर्मल वर्मा मार्क्सवाद के क़रीब बिलकुल न लगते। और लगते भी तो उनके रचना के आधार पर तो उन्हें मार्क्सवाद के विपरीत दिशा में ही देखा जाएगा। लेकिन अज्ञेय मार्क्सवाद से प्रभावित ही नहीं, उसे जीते हुए भी दिखते हैं। वे जितना जोड़ते नहीं, उतना तोड़ते हुए प्रतीत होते हैं।
ऐसे में निर्मल वर्मा को पढ़ना एक अलग बात है, उन्हें समझना दूसरी बात तो उनके लेखन (अमूमन बड़े लोगों का क्रिया कलाप उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन जाता है ) का अनुसरण करना तीसरी बात। यहीं पे हम मार खा जाते हैं। ख़ास कर नए लोग जिनको सम्मोहन की चीज़ें कुछ ज़्यादा ही सम्मोहित करती हैं। वे नीर क्षीर विवेक में पड़ते भी नहीं और पड़ गए तो जल्दी उबरते भी नहीं। इससे एक ये नुक़सान होता है कि हम अपने हर कहे शब्द को सच मान लेते हैं और यही हाल अपने प्रिय लेखक के संदर्भ में भी सही लगता है। जैसे कि आज भी मार्क्सवादी मार्क्स के कहे को ही चिरंतन सत्य मानते हैं और मतावलंबी अपने इष्ट के कहे को। जबकि सच ये है कि वे चाहें मार्क्स हो या कोई धर्म गुरु अथवा ईश्वर, उनका कहा उनके समय का सच होगा। वो ज़रूरी नहीं कि आज भी ठीक वो वैसा ही हो। इसलिए एक सजग पाठक से उम्मीद जताई जा सकती है कि वो नदी में अधिक अंदर न सही कुछ अंदर तो ज़रूर जाए और ख़ुद ही गहराई का पता लगाए।
~ कार्तिकेय शुक्ल, शोधार्थी, सी एच यू , हैदराबाद
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