गीतेरण कविता ~ सुरेश जिनागल
गीतेरण
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वे गाती थीं तो
चक्की के पाटों में हारमोनियम से बजते थे
भोर का तारा जगता था उनकी आवाज़ से
कीरत्यां ढल जाती थीं उनके कदमों की धमक से
पाणी अपनी प्यास भूल लाव के सहारे बाहर निकलता आता था कुंए से
हवा में बरसने लगता था रुदन का धीमा–धीमा गान
खेजड़ी के पत्ते झड़ने लगते थे उदास होकर
पशु समझ जाते थे धीराणी रो रही है
उनके गीतों में रोटी चांद सी नज़र नहीं आती थी
जीवन के पाटों के बीच ख़ुद को पीसकर वे
मण–मण पोती थीं
मण –मण रांधती थीं
चक्की पीसते कभी आते थे नींद के झटके
तो ऊंगली की कोर से लहू की धार छूटती थी
कभी आती थी पीहर की याद
तो चाकी को बैरन कह हज़ारों सालों का गुस्सा उतारती–
‘सांवरा सरण–सरण आवै नींद चाकी तो बैरण हो गई’
सांवरा उठी ही मंझाल रात सूरज राजा न उग्यो हो राज’
वे काम करती तो गाती
मार खाती तो गाती
रोती तो गाती
नाचती तो गाती
कोई मरता तो गाती
कोई जन्मता तो गाती
रोने और गाने में कोई फर्क नहीं था उनके जीवन में
जीवन गीत था तो गीत जीवन
घर से खेत और खेत से घर के रास्ते पर ही पूरा जीवन घिस जाता उनका
उन्होंने जयपुर की चुनड़ी को गीत में गाया
पर जयपुर नहीं देखा
दिल्ली,उदयपुर, जोधपुर और अन्य–अन्य शहर गीत के हिस्से में गाये जाते रहे
पर उनके हिस्से कोई शहर नहीं आया
कोई गांव नहीं आया
कोई घर नहीं आया
कोई परिवार नहीं आया
और तो और अपना जीवन भी नहीं आया
वे अपने हिस्से को गाती हैं
वे उस बचे हुए को गाती हैं जो गाये जाने से रह गया
जो उनके हिस्से में आने से रह गया।
– सुरेश जिनागल , सहायक आचार्य, राजकीय महाविद्यालय पिड़ावा, झालावाड़, राजस्थान
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