नाटक जो खेल रहा हूं (कविता) ~ राहुल सहाय
तूने(ईश्वर)
इस रंगमंच(सृष्टि) में,
मुझे जो किरदार दिया था
उसका निर्वहन करता हूँ।
कभी मेरे प्रयास
तेरी पटकथा से मेल नहीं खाते
हुबहू।
मैं अभ्यास करता जाता हूँ,
तेरा निर्देशन जो अदृश्य है
मैं समझ नहीं पाता
कभी,
हकड़बड़ा जाता हूँ
और भटक जाता हूँ।
मैं कभी महसूस करता हूँ
अदृश्य डोरियाँ,
जिनसे सधी है मेरी कमर
और मेरे हाथ
जो सेवा में उठते हैं
अन्य पात्र के लिए
(या तू चाहता है ऐसा )
कोमल और मुलायम हो चुके हैं।
पर सेवा से।
तूने मुझे बांध दिया है
एक अदृश्य रंगमंच से
जिसके फलक की सीमा
क्षितिज तक, अनंत
और मेरी समयावधि सीमित,
मैं चाहकर भी
इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता,
जो गतिमान है
निरंतर ।
तूने इस मंच को भर दिया है
रहस्यों से,
विभिन्न ध्वनियाँ (नेपथ्य से)
मन को, नित
गुंजायमान करती हैं
समय के साथ गतिमान
तेरा कुशल कार्य व्यापार
सफल ।
आते हैं
तरह तरह के पात्र
तू मुझको
अनायास ही मिलवाता है
और बाँध देता है,
एक महीन तंतु अदृश्य
फिर एक समय के बाद
बिछूड़ जाते हैं।
तेरी प्रकाश व्यवस्था,
विचित्र,
मुझ में ही मेरी
पूर्वदीप्ति
काटती मुझे, रहम करती नहीं
कभी।
विलाप कोई, मैं करता नहीं
अब, क्योंकि
मंझ गया हूँ मैं
इस रंगमंच में।
तरह तरह के पड़ाव
पार करता हूँ
पर मुझे नहीं दिखाई देती
वैतरणी अभी
वही मुझे
मंच के उस पार ले जाएगी
पर दिखेगी नहीं।
~ राहुल सहाय शोधार्थी बीएचयू हिंदी विभाग
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