बदहाली (कविता) ~ गौतम कुमार



 दिहाड़ी करने 

मज़दूर पांडे अपने घर से निकल रहे हैं 

पूरी मज़दूरी आज भी नहीं मिली 

घर लौट रहे हैं 

अकेले नहीं किसी के साथ 

एक निराशा उनके साथ चली आ रही है 

जिसे वह घर नहीं ले जा सकते 

घर पे बच्चे हैं! 

कल फिर शाम होगी 

काम ख़त्म होगा 

परिंदे नशेमन को लौटेंगे

दिन भर का थका आफ़ताब 

दरिया में डूबेगा

उसकी हथेली पे फिर आधी मज़दूरी होगी 

यह निराशा तब किसी अनजान कोने से वापिस निकलेगी 

मज़दूर पांडे के साथ चल पड़ने को

पसीना बहता जाएगा 

निराशा बढ़ती जाएगी 


खाने को कुछ पैसे मांगने पर 

सड़क पे खड़े भिखारी शर्मा को डाँट पड़ी है-

"अच्छे-ख़ासे हो देह-शरीर से"

"कुछ काम क्यों नहीं करते"

"मेहनत क्यों नहीं करते"


बड़े जतन से जूता सिल रहे हैं मोची मिश्रा 

यह उनका पुश्तैनी काम है 

यही काम उन्हें बेहतर आता है 

राष्ट्र-निर्माताओं-महात्माओं का मानना है 

कि उन्हें यही काम और निष्ठा से करना चाहिए 

मोक्ष पाने का यह सरल तरीका है 


बेगार सिंह के घर में आमद नहीं है

उनकी ज़मीन छीन ली गयी 

अब वह अपनी ही ज़मीन पर बेगारी करते हैं 

घर बड़ी मुश्किल से चल रहा है 

उनकी पत्नी चमरपट्टी में जाकर झाड़ू-बर्तन करती हैं 

मुसहरटोला के मर्द बहुत जाहिल हैं 

उन्हें बुरी नज़र से देखते हैं 

छेड़ते हैं 


कल की ही ख़बर है 

ज़हरीली गैस की वजह से 

सीवर में उतरे भंगी चतुर्वेदी का दुःखद निधन हो गया 

ऐसी घटनाएं आए दिन घट रही हैं 

कोई आंकड़ा भी नहीं है 



ए सी सी सीमेंट की खाली बोरी पर 

बुधवार हाट-बाज़ार में बैठे हैं शोषित अग्रवाल 

अजब रीत है छुआ-छूत की

कोई नहीं ख़रीद रहा 

उनके हाथ का बना दोना-पत्तल 

मुट्ठियों में बंधे दातून सूखते जा रहे हैं 


बदहाली ही इस मुल्क का मुक़द्दर है 

इसका कुछ नहीं हो सकता

किसी को कुछ सुनाई नहीं देता 

दिखाई नहीं देता 

हुक्मरानों को ज़रा फ़र्क़ नहीं पड़ता   

अफ़सर मुंडा और विधायक राम

अपने आवास पर बैठकर 

कविताओं पर चर्चा कर रहे हैं!

                                        गौतम कुमार शोधार्थी जेएनयू

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