छत की तलाश (कविता) ~ मलखान सिंह



 इस अपरिचित बस्ती में

घूमते मेरे पांव थक गए हैं 

अफसोस एक भी छत 

सर ढकने को तैयार नहीं।


हिन्दू दरवाजा खुलते ही 

कौम पूछता है और –

नाक भौं सिकोड़

गैर सा सलूक करता है।


नमाजी दरवाजा 

बुतपरस्त समझ

आंगन तक जाने वाले रास्तों पर 

कुंडी चढ़ाता है।


हर आला दरवाजे पर 

पहरा खड़ा है और 

मेरे खुद के लोगों पर 

न घर है, न मरघट।


अब केवल यही सोच रहा हूं मैं 

कि सामने बंद दरवाजे पर 

दस्तक नहीं ठोकर दूंगा।

दिवाले चूल से उखाड़ 

जमीं पर बिछा दूंगा।

चौरस जमीं पर 

मकां ऐसा बनाऊंगा

हर होठ पर बंधुत्व का संगीत होगा

मेहनतकश हाथ में –

सब तंत्र होगा

मंच होगा

बाजुओं में 

दिग्विजय का जोश होगा।

विश्व का आंगन

हमारा घर बनेगा।

हर अपरिचित पांव भी

अपना लगेगा।

         ~ मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण, रश्मि प्रकाशन लखनऊ 

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