धरती की गति (कविता) ~ मलखान सिंह
बरदाश्त की भी हद होती है
हम, उसी दिन जान सके थे
जिस दिन कि हमने
यह जाना था कि-
हमारी हर बरदाश्त
हमारी ही मज़बूरी है।
तुम्हारी आँखों में।
चालाक भेड़िये !
आदमी का माँस
अच्छा लगता है तुम्हें
यह हमारे पुरखों ने कहा था
और हम हँस पड़े थे कि
आदमी का माँस
आदमी ही क्यों खाने लगा ?
लेकिन आज अपनी आँतें
तुम्हारे दाँतों के बीच देख
हम रो भी नहीं पा रहे हैं।
हमारी बँधी मुट्ठियाँ देख
बंदूकें तान ली हैं तुमने
वही बंदूक !
जिसके सूत-सूत पर
हमारी उँगलियों के निशान अंकित हैं।
वही बंदूक -
जिसके रेशे- रेशे में
हमारे पसीने की महक गुंथी है।
उफ, कितना बड़ा अनर्थ
कर डाला हमने
कि अपने ही हाथों
अपनी ही मौत का
निर्माण करते रहे
और खुश होते रहे
तुम्हारे कुटिल आश्वासन पर
कि यह सब
हम सबके कल्याण
के लिए ही तो है।
दूसरों की मेहनत पर
कब्जा जमाने वाले साँप
तुम्हारे पैर नहीं होते।
तुम्हारी हवेली की ढहती हुई बुनियादें
यही सब तो कह रही हैं खुलके।
मदान्ध हो तुम
तभी तो नहीं समझते
कि गर्जन-
चाहे बंदूक की हो
या बादल की
धरती की गति को
नहीं बदल पाती।
~ मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण, रश्मि प्रकाशन लखनऊ, पृष्ट 98,99
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