सच खबरों से बाहर है (कविता) ~ महर्षि नवेन्दु
















 अंधेरे के परदे से कान सटाए पृथ्वी

दूसरी ओर से उठते

आने वाले दिन का

शोर सुन रही है


सुबह के खबरों में 

पढ़े जाने के वास्ते

फिर से कुछ

नए हादसे बुन रही है 


रात का 

एक बज रहा है 

आसपास नींद में बेसुध पड़ी दुनिया

कूड़े के ढेर में 

बदल गई है 

जिसके एक छोर पर पड़ा मैं

अधजली सिगरेट की तरह

सुलग रहा हूं 

किसी विध्वंसकारी 

क्षण की प्रतीक्षा में 

सबके साथ जल उठने का

संयमित इरादा लिए


क्योंकि

जंगल को पूरी तरह साफ करने का सिर्फ

आग ही सबसे सही

और कारगर उपाय है।

इतने सालों से नौकरी का मामूलीपन

अभिशाप की तरह झेलते हुए 

मैं निरंतर अपनी समझ का आकाश

बड़ा कर रहा हूं 

और इस व्यवस्था के जालिमपन के खिलाफ

बहुमत की तरफ से खुद को 

सवाल की तरह

खड़ा कर रहा हूं।


खबरे उड़ा कर 

लाने वाली हवा पर पूरी तरह 

सरकारी कब्जा है इन दिनों 

और यही वजह है कि बहस में 

असल मुद्दे से 

सबका ध्यान हट रहा है 

देश के भीतर

जबकि

आजकल जनता के साथ

बहुत कुछ अघटनीय 

घट रहा है।


इनसेट वन बी से मिले चित्र के अनुसार

पता नहीं चल रहा कि 

कितने बच्चे रात को देश में

भूखे सोए हैं 

कितने बेरोजगार युवकों ने 

नाकामयाबी के दुख से ऊब कर

की है आत्महत्याएं

और कितनी स्त्रियों के जांघों के बीच

हथियार बंद कामुक पुलिसियों ने

सामूहिक हरामीपन के 

रक्तबीज बोए है 


नाटकबाजी के इस दौर में 

टी० बी० के पटल पर

खबरों की दुनिया छोटी पड़ गयी है

और लोगों की उत्सुकता को दबाते हुए

असल सीन के आते ही

बीच में

'रुकावट के लिए खेद है' की तखती

अड़ गयी है


अब यह अकारण नहीं है

बल्कि आपके दिमाग के खास मुकाम पर

सोच समझकर किया गया

प्रहार है

जिसके पीछे छिपा

एक बहुत खतरनाक विचार है

जो बहुत चालाकी के साथ

जनमत को

जानकारी के दायरे से बाहर रखना चाहता है


प्रचार के बहाने

जिसके लिए वह निरन्तर

आक्रोश के युवा दाँत तोड़ रहा है।

और अपना कद बड़ा रखने के इरादे से

तमाम सार्वजनिक उपलब्धियों को

अपने सन्दर्भों से

जोड़ रहा है।


नवीन कार्यक्रमों के जरिये

अब तक के सारे पिछले इतिहास की

ऐसी की तैसी कर रहा है।

और विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में

हस्तक्षेप करता हुआ

गलत जानकारी के लिए

कुछ जाली चैप्टर घर रहा है।

ताकि

सिर्फ उसका ही चेहरा

भला दिसे

इसलिए विरोध में जाते तमाम दस्तावेज

फाड़ कर हवा में

चिदी-चिदी उड़ा रहा है

और वक्त की किताब में लिखी

पहचान की पुरानी इबारत को

अपने नाखूनों से

छुड़ा रहा है


यानि कि जो

आपकी समूची संवेदना को कत्ल कर

अपने खनी हाथ

सीरियल के बाद प्रसारित होने वाले

विज्ञापन के पानी में

धो रहा है


पर इससे भी कहीं अधिक दुख

इस बात का है

कि यह सब ठीक आपकी

नज़र के सामने हो रहा है

कितनी आसानी के साथ आप उसके

इस सारे सुविचारित षड्यंत्र में

फँस रहे हैं

और नाराज़ होने की बजाय उल्टे

हँस रहे हैं


जबकि सामने के दृश्य में

वह आदमी

जिस सच को

सिर्फ कल्पना में /साकार कर रहा है

उसके असली पात्र आप ही हैं

वह तो केवल

उसके होने भर का

अभिनय कर रहा है।

        महर्षि नवेंदु, कविताएं 1991,  जयश्री प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ट 9–12




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