बाहर आएंगे एक दिन (कविता) ओम प्रकाश वाल्मीकि
बाहर आयेंगे एक दिन
नहीं मिला दूध उसे
सफेद-काली गाय का
नहीं खाया उसने
दही और मक्खन कभी
नहीं सोया गद्देदार बिस्तर पर ।
लगातार लड़ा है वह
बेहया मौसम से ।
पाला है भूखे बच्चों को
बहला-फुसला कर
इस इन्तजार में
कि एक रोज बीत जायेंगे
ये सन्ताप भरे दिन ।
टूटकर बिखर जायेंगे
आदिम भेड़ियों के दाँत ।
काले पृष्ठों पर अदृश्य लहू की गन्ध
पहचान लेंगे एक दिन
उसके भूखे-प्यासे बच्चे ।
नहीं निहारेंगे दूर खड़े होकर
लहलहाती फसलें
जिसे उगाने में
रक्त पिया है पुरखों का
इस धरती ने।
नहीं भरेंगे उनकी कोठियाँ और गोदाम
अनाज के बोरों से ।
ये भूखे-प्यासे बच्चे
बाहर आयेंगे एक दिन
बन्द अँधेरी कोठरियों से
कच्ची माटी की गन्ध
साँसों में भरकर !
ओम प्रकाश वाल्मीकि, बस्स! बहुत हो चुका,
पृष्ट ,20.21
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