मिट्टी के कच्चे घर (कविता कोश) ओम प्रकाश वाल्मीकि

 

मिट्टी के कच्चे घर

होते हैं पारदर्शी

जान लेते हैं आस पड़ौस का सुख-दुःख

आसानी से ।

मिट्ट के कच्चे घर

जहाँ समय लठैत की

बलात्कारी मुद्रा में

दरवाजे पर झाँकता है।

मिट्टी के कच्चे घर

बिना रोशनदान

बरसों करते हैं इंतजार

सूर्य की भूली-भटकी किरण का

या फिर ढह जाते हैं चुपचाप

किसी बरसाती रात में ।

मिट्टी के कच्चे घरों से

कोई गली

बाहर नहीं निकलती

खत्म हो जाती है

एक अंधे मोड़ पर 

जहां न कोई साइन बोर्ड है

न कोई नारा लिखा है 

न चिपका है कोई पोस्टर

किसी दीवार पर

जबकि,

कच्चे घर नहीं रोकते

एक दूसरे को

करीब आने से

खड़े रहते है सटकर 

जूलूस में खड़ी भीड़ की तरह


 ~ ओम प्रकाश वाल्मीकि बस्स ! बहुत हो चुका, पृष्ट 22.23

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