संत वाजिद (दादूपंथी) के अरिल्ल पद
वाजिदजी संत दादू दयाल के एक सौ बावन शिष्यों में से अन्यतम थे । ये जाति के पठान थे। इनके विषय में कहा जाता है कि एक बार जब ये किसी हरिणी का शिकार कर रहे थे, इनके हृदय में करुणा का भाव जागृत हो उठा और इनके जीवन में काया-पलट हो गई। इन्होंने उसी समय अपने तीर एवं कमान तोड़कर फेंक दिये और घर लौटकर शीघ्र किसी सद्गुरु की खोज में निकल पड़े। ऐसे ही अवसर पर इन्हें संत दादूदयाल के साथ सत्संग करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये उनसे पूर्ण प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गए। इनके जन्म-स्थान अथवा जीवन-काल की तिथियों का न तो कोई पता चलता है, न इनकी सभी रचनाएँ ही अभी तक उपलब्ध हैं। इनका जीवन-काल विक्रम की १७वीं शताब्दी में ठहराया जा सकता है। यह भी संभव है कि ये १८वीं के प्रारंभ काल में भी रहे हों। इनके जीवन में घोर परिवर्तन लाने का कारण इनके कठोर शिकारी हृदय का अकस्मात् कोमल बन जाना कदाचित् इनके अंत समय तक कायम रहा। इनकी रचनाओं में इस बात के अनेक उदाहरण मिलते हैं जो इनकी दया, दान- शीलता, सहानुभूति आदि के भावों में व्यक्त हुए हैं। इन्हें संघर्ष एवं भेदभाव के जीवनके प्रति कुछ भी आकर्षण नहीं और ये सर्वसाधारण के जीवन-स्तर को, नैतिक आधार पर ऊँचा करना चाहते हैं। इसकी ओर इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा प्रायः सर्वत्र संकेत किया है। बाजिंदजी की रचनाओं की संख्या बहुत बड़ी बतलायी जाती है। उनमें से १५का एक संग्रह स्व० पुरोहित हरिनारायण शर्मा के पास वर्तमान था। परन्तु अभी तक उनमें से न तो कोई प्रकाशित है, न इनके सभी ग्रन्थों का कोई विस्तृत विवरण ही उप-लब्ध है। इनकी कुछ साथियों को रज्जबजी ने अपने 'सर्वगी' नामक संग्रह में तथा जगनाथजी ने अपने 'गुणगंजनामा' में उद्धृत किया है। फिर भी वाजिदजी की अरिल्ल छंद की ही रचनाएँ सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। उन्हीं का एक छोटा-सा संग्रह जयपुर से प्रकाशित 'पंचामृत' नामक पुस्तक में छपा है। इसमें केवल एक सौ पैतिस ही अरिल्लहैं जो क्रमशः सुमरण, विरह, पतिव्रता, साध, उपदेश, चिन्तामणि, विश्वास, कृपण,दातव्य, दया, अज्ञान, उपजण, जरणा, साँच एवं भेष जैसे विविध अंगों के अंतर्गत विभा-जित हैं। इनसे इनके संत-हृदय का अच्छा परिचय मिलता है। इनकी भाषा सीधी-सादी,स्पष्ट एवं प्रभावपूर्ण है और इनकी पंक्तियों में किसी प्रकार की उम्र नहीं लक्षित होती। कहते हैं कि इनकी बहुत-सी रचनाएँ दोहे-चौपाइयों में भी मिलती हैं और उनकी भी भाषा में ये गुण पाये जाते हैं।
अरिल्ल
गाफिल रहिवा बीर कहो क्यूं बनत है।
रे मानस का श्वास जुरा नित गनत है ।
जाग लागि हरिनाम कहां लगि सोइ है।
हरिहां, चाके के मुखधरे सु मैदा होइ है || १||
टेढी पगड़ी बांध झरोखा झांकते ।
ताता तुरग पिराण चछूटे डाकते ॥
लारे चढती फौज नगारा बाजते ।
वाजिद वे नर गये बिलाय सिंह गाजते ||२||
शिर पर लम्बा केश चले गज चालसी ।
हाथ गह्या शमशेर ढलकती ढालसी ।।
एता यह अभिमान कहां ठहरायेगे ।
हरिहां, वाजिद ज्यू तीतर कूं बाज झपट ले जायेंगे || ३ ||
काल फिरत है हाल रैंण दिन लोइ रे।
हन राव अए रंक गिणे नहि कोइ रे ।।
यह दुनिया वाजिद वाट की दूब है।
हरिहां, पाणी पहिले पाल बँधे तू खूब है ||४||
आवेंगे किहि काम पराई पौर के।
मोती जर वरजाहु न लीजे और के ।।
परिहरि ये वाजिद न छूवे माथ को।
हरिहां, पाहन नीको बीर ! नाथ के हाथ को || ५|
दरगह बड़ो दिवान न आवे छह जी।
जे शिर करवत बहे तो कीजे नेह जी ।।
हरिते दूर न होय दुःख कूं हेरि के।
हरिहां, वाजिद जानराय जगदीश निवार्ज फेरि के ।। ६ ।।
भगत जगत में वीर जानिये ऐन रे ।
श्वास सरद मुख जरद निर्मले नैन रे ।।
दुरमति गइ सब दूर निकट नहिं आवहीं।
हरिहां, साध रहे मुख मौन कि गोविंद गावहीं ॥७॥
बड़ा भया तो कहा बरस सो साठ का ।
घणा पठया तो कहा चतुविध पाठ का ।।
छापा तिलक बनाय कमंडल काठ का ।
हरिहा, वाजिद एक न आया हाथ पंसेरी आठ का ||८||
कहे वाजिद पुकार सीष एक सुन रे ।
आडो बांकी बार आउहै पुन रे ।।
अपनो पेट पसार बड़ों क्यू कीजिये ।
हरिहा, सारी मैं ते कौर और क्यू दीजिये ॥६॥
भूखो दुर्बल देख मुंह नहि मोड़िये ।
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िये ।।
भी आधी की आध आध की कोर रे ।
हरिहां, अन्न सरीखा पुण्य नहीं कोई और रे ।। १० ।।
खेर सरीखी और न दूजी बसत रे ।
मेल्हे वासण माहि कहा मुंह कसत रे ।।
तू जन जाने जाव रहेगी ठान रे।
हरिहां, माया दे वाजिद धणी के काम रे ।। ११ ।।
अर्थ :
रहिवा = रहना । बीर = भाई। मानस = मनुष्य । जुरा= बुढ़ापा । लागिलग जा । झरोखा = महल की खिड़की से । ताता = तेज दौड़ने वाला । पिराण = पलान,काठी वा जीन । चहूंटे = चारों ओर । डाकते = दौड़ लगाते । लारे = पीछे, साथ-साथ ।शमशेर = तलवार । ढलकती = लटकती । ढालसी = ढाल के साथ। एता = इतनाबड़ा । पाल = बाँध । पराई... के = दूसरे घर वाले। वरजहु = उत्तम से भी उत्तम ।माथ = मस्तक । नाथ = अपने स्वामी। दरगह = दरबार में। दिवान = दीवान, उच्चकोटि के पुरुष । छेह = न्यून कोटि वाले। हेरि के अनुभव कर। ऐन = असली, सच्चे ।घणा = बहुत कुछ, अधिक। चतुविध... का = चारों प्रकार से, सभी प्रकार से । न.....हाथ = वश में नहीं आया। पंसेरी....का '= आठ पंसेरी वाला, अर्थात् अपना मन । सीपशिक्षा, उपदेश वा सलाह। सुंन == सुन ले । आडो आइहै = गाढ़े वा संकट के समयकाम देगा। बांकी बार = संकट वा कठिनाई आ जाने पर। पुंन = पुण्य, सत्कर्म ।सारी =अपने पूरे धन में से। कौर = कुछ भाग । और दूसरों को |
~ संत काव्य, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, किताब महल प्रकाशन, पृष्ट 167 से 169
Comments
Post a Comment