शाहजहाँ की कविताएँ

 








[1]

कुच महेश नख छत दुतीया को चन्द मुक्तमान गंग।

अलकसारी लुवध रही सोई और सोहत अरजन

के संग ॥

पोहपन के हार पहराई एसो मानो कारो पूजा कर

धरत सपत सीखत रस परस करत अनंग ।

एसे विध के पीउ रति रस कीनों शाहजहाँ राखी

अरधंग ॥

[2]

प्रथम खरज सुर साधे सोई गुणी जों सुध मुद्रा

वाणी गावै ।

द्रुत मध विलम्पत लघु गुण पुलित कर दिखावै ॥

सप्तसुर तीन ग्राम एकईस मुरछना बाईस सुरत

उनचास कोटितान ताको

ताको भेद पावै ।

सरस्वती होय प्रसन्न हो सोई शाहजहाँके श्रवणन

कों रिझावै ॥

[3]

पाइये जेह लाल सोई विध करीये काहे कों गुमना

भरीये ।

ता पर मान मया विच पीय की काइकी कही

कित जिय धरीये ॥

जहाँ नेक रीझे तहाँही करत हित ऐसे पीतम

से डरीये ।

बहुनायक प्यारो शाहजहाँ जाँन सोतन तें वावरी

घरी घरी पल पल छिन छिन अंग सरीये ॥

[4]

रस विनोदी गुण गहरत विवेक चिन्तामणि ध्यान

शाहजहाँ जान

जेजे तारध्याय सुरध्याय रागध्याय तिनके करे

लक्ष लक्षण विद्या प्रमाण

वल वल करना उनइ से देत एसे कोटिन दान

चिर चिर जीयो छत्रपति प्यारो जोलौं भुव ध्रुव रहें

शशि भान

[5]

गई नींद उचट सखी सोवो हरो नेकन आई।

एक टग रहे पाटी लग मग निरखत तेसी चलत

पवन पुरवाई ॥

वेकल रहत रोम रोम तलफत परी विरह जो

नमाने मोरी माई।

मीन जल जोई शाहजहाँके दरसन विन अंग अंग

सताई ॥

[6]

भाँदो कैसे दिनन माई श्याम काहेकों आवेंगे।

कोकलाकी कुहुक सुन छाती माती राती भई विरही

आगे ऊधो फूँक फूँक जरावेंगे ॥

शाहजहाँ पिया तुम बहुनायक विरहिन के अँसुअन

की तपत बुझावेंगे ॥

[7]

माई काहे को कहो अब ही जो मोहि जिन बरजो

लाल तन को री चितबो ।

मनमोहन प्राणेश्वर

प्राणेश्वर की छबि रीझत

अति मति गति सुध बुध बिसारी

सब अजहूँ भूल जैहै री तोहि सिख देवो ॥

लगन सों फल ताकी कहा कहिए री

अब लोगन सुन्दर सखि भायो प्रेमबीज को बोयेबो ।

पर रुचिर हो 'साहजहाँ' तिनको पंचसरहू ते सरस

अपबस करके मति गति मनहर लेवो ॥

[8]

दादुर चातक मोर करो किन सोर सुहावन को भरु है।

नाह तेही सोई पायो सखी मोहिं भाग सोहागहु को बरु है ॥

जानि सिरोमनि साहिजहाँ ढिग बैठो महा विरहा हरु है।

चपला चमको, गरजो बरसो घन, पास पिया तौ कहा डरु है?

[9]

बने आभरण ओर सोहत कण्ठमाल विराजत गरे।

सीसफूल टेढ़ी और दुकूल नाकबेसर

या शोभा तियगुण कर आगे सरे ॥

तैसी अरुणसारी और अंगिया फुलेल भींजी

तामें राजत माथे टीको मुक्ता माँग लरे ।

यह छवि देख रीझे साहजहाँ पिय रीझके अंको भरे ॥

निरत करत रीझ रंगभूमिते गहि बहियाँ

रंगमहल ले सिधारे।

सखी सब रीझ मुसक्याय मुँह फेर रही आपही

हँसत गए रसनिधि भरे ॥

[10]

अधर चन्दन घसीले पुरी सखियाँ आज मोरे आइए।

रसलावन गुणवन्त जुरमिल सखियाँ इन सेजरीयाँ

बनाए साहजहाँ पिय अंग अंग सुख पाइए |


[11]

साहजहाँ लंगर पिठ सुन्दरवा

आज कौन रंग रस राते।

मद पीए मस्त भए डोलत फिरत इत उत मदमाते ॥

[12]

छत्र छवि नित्य नई भई रीति जैसी

आभा वा सुरपतकी ।

सभी

सदन सदन मणिमुक्त रतन छत्र वरण

वरण रंगन रंगन छवि विसात निरख

नर नरेश ताते सुरेश हुते अधकी

और मखमल जर बाफता सतिनके

शामजाने असपक कंचन खम्भ लगे

और नग जगमगे तखत कैसो कही

न जात उपमा जा बखतकी1.

शहनशाह किरानसानी शाहजहाँ

जूको नौरोज दीनो अरब खरब

छीनो गरबिन के गरब तिहूँ

लोक में चर्चा

कीरत

की ॥

[13]

मेरे तो आये हो भारे सब निसि अनतही बसे

तुरतही मानि रित सों

कैसे दूरत लिए सो आस सब हरे ।।

चारों याम जानत जनघेरी हम

संग जगवेकी गरज हरे।

शाहजहाँ पिय पे न गई तुमारी चोरी छोहरे ॥

[14]

विराजत सिंहासन बैठो गाजे

जगजीवन सकल दरसनकौँ ।

रोज रोज नवरोज होत पुन

अष्ट दिकपाल आस करत पुन देसनके

नरेश आये चरन परसनकौं ।

दसो दिसा के गुनी मन मिल मान लये

ते दान लये सुरपति भूपति

आनन्द भयो मति हवसनकौं ।

बड़ो जीय सहस रसनाको

सनतान सहित पृथ्वीपति नरको

नर शाहजहाँ जहाँलो रवि ससि नभ रहे उर वसुधा

वर सदा बरस दिन दिन बरसनकौं ।

स्रोत – मुगल बादशाहों की हिन्दी कविता 47 से 53  राजकमल प्रकाशन 

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