अलग (कविता ) ~ गौतम कुमार

मेरी सुबह अलग चौक पे मेरी चाय की कप मेरी चुस्की अलग! मेरी थाली मेरा खाना अलग! मेरी बस्ती मेरा काम मेरी तनख़्वाह अलग! मुद्दे मेरे और उनके लिए लड़ने वाले अलग! मुझे हमेशा लगता था कि मैं अलग हूँ देखो न आज भी तुम सब मुझे देखने आए हो तुम ज़िंदा हो और मैं देश की राजधानी में लटक रहा हूँ एक पेड़ से अलग! तुम आँखें गड़ाए सिर्फ़ मुझे देख रहे हो मुझे मालूम है तुम एक आत्महत्या की तलाश कर रहे हो मेरी थाली मेरा खाना मेरा काम मेरा वेतन बता रहा है कि यह एक हत्या है पर तुमने आज सुबह हरी सब्जियाँ ज़्यादा ख़रीद ली हैं शायद भारी हो रही हैं तुम नहीं चाहते इसके ऊपर किसी भंगी की हत्या का बोझ! गौतम कुमार शोधार्थी जेएनयू