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Showing posts from April, 2024

कार्ल मार्क्स की एक प्रसिद्ध कविता

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 इतनी चमक दमक के बावजूद तुम्हारे दिन तुम्हारे जीवन को सजीव बना देने के इतने सवालों के बावजूद तुम इतने अकेले क्यों हो मेरे दोस्त? जिस नौजवान को कविताएं लिखने और बहसों में शामिल रहना था वो आज सडकों पर लोगों से एक सवाल पूछता फिर रहा है कि महाशय आपके पास क्या मेरे लिए कोई काम है? वो नवयुवती जिसके हक में जिंदगी की सारी खुशियां होनी चाहिए थी वो इतनी सहमी-सहमी और नाराज क्यों है? अदम्य रौशनी के बाकी विचार भी जब अँधेरे बादलों से आच्छादित है जवाब मेरे दोस्त हवाओं में तैर रहे हैं जैसे हर किसी को रोज खाना चाहिए नारी को चाहिए अपना अधिकार कलाकार को चाहिए रंग और तूलिका उसी तरह हमारे समय के संकट को चाहिए एक विचार और आह्वान अंतहीन संघर्षों, अनंत उत्तेजनाओं, सपनों में बंधे मत ढलो यथास्थिति के अनुसार मोड़ो दुनिया को अपनी ओर समा लो अपने भीतर समस्त ज्ञान घुटनों के बल मत रेंगो उठो! गीत, कला और सच्चाई की तमाम गहराइयों की थाह लो.                                         कार्ल मार्क्स      ...

नाटक जो खेल रहा हूं (कविता) ~ राहुल सहाय

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  तूने(ईश्वर) इस रंगमंच(सृष्टि) में,   मुझे जो किरदार दिया था उसका निर्वहन करता हूँ। कभी मेरे प्रयास तेरी पटकथा से मेल नहीं खाते  हुबहू। मैं अभ्यास करता जाता हूँ, तेरा निर्देशन जो अदृश्य है मैं समझ नहीं पाता  कभी, हकड़बड़ा जाता हूँ और भटक जाता हूँ। मैं कभी महसूस करता हूँ अदृश्य डोरियाँ, जिनसे सधी है मेरी कमर और मेरे हाथ जो सेवा में उठते हैं  अन्य पात्र के लिए  (या तू चाहता है ऐसा ) कोमल और मुलायम हो चुके हैं।  पर सेवा से। तूने मुझे बांध दिया है एक अदृश्य रंगमंच से जिसके फलक की सीमा  क्षितिज तक, अनंत और मेरी समयावधि सीमित, मैं चाहकर भी इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता, जो गतिमान है निरंतर । तूने इस मंच को भर दिया है रहस्यों से, विभिन्न ध्वनियाँ (नेपथ्य से) मन को, नित  गुंजायमान करती हैं समय के साथ गतिमान तेरा कुशल कार्य व्यापार सफल । आते हैं  तरह तरह के पात्र  तू मुझको अनायास ही मिलवाता है और बाँध देता है, एक महीन तंतु अदृश्य  फिर एक समय के बाद  बिछूड़ जाते हैं।  तेरी प्रकाश व्यवस्था, विचित्र, मुझ में ही मेरी पूर्वदीप्त...

गीतेरण कविता ~ सुरेश जिनागल

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  गीतेरण —————— वे गाती थीं तो चक्की के पाटों में हारमोनियम से बजते थे भोर का तारा जगता था उनकी आवाज़ से  कीरत्यां ढल जाती थीं उनके कदमों की धमक से   पाणी अपनी प्यास भूल लाव के सहारे बाहर निकलता आता था कुंए से  हवा में बरसने लगता था रुदन का धीमा–धीमा गान  खेजड़ी के पत्ते झड़ने लगते थे उदास होकर  पशु समझ जाते थे धीराणी रो रही है उनके गीतों में रोटी चांद सी नज़र नहीं आती थी  जीवन के पाटों के बीच ख़ुद को पीसकर वे  मण–मण पोती थीं  मण –मण रांधती थीं  चक्की पीसते कभी आते थे नींद के झटके  तो ऊंगली की कोर से लहू की धार छूटती थी  कभी आती थी पीहर की याद  तो चाकी को बैरन कह हज़ारों सालों का गुस्सा उतारती– ‘सांवरा सरण–सरण आवै नींद चाकी तो बैरण हो गई’ सांवरा उठी ही मंझाल रात सूरज राजा न उग्यो हो राज’ वे काम करती तो गाती मार खाती तो गाती रोती तो गाती नाचती तो गाती कोई मरता तो गाती  कोई जन्मता तो गाती  रोने और गाने में कोई फर्क नहीं था उनके जीवन में  जीवन गीत था तो गीत जीवन  घर से खेत और खेत से घर के रास्ते पर ह...

दक्षिण वाम आंकड़ों का हेर फेर है ( संपादकीय लेख) ~ मेवालाल

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 *आंकड़ा जानकारी का वह भाग होता है जो शब्दों में, अंकों में, चित्र रूप में, ऑडियो वीडियो के रूप में हो सकता है। इस लेख में आंकड़ों को विचारों के रूप, जानकारी तथ्यों का ब्यौरा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उत्तर आधुनिकता की एक परिभाषिक शब्द है – साइमलक्रम जिसका अर्थ है एक ऐसी कॉपी जिसकी मूल कॉपी खो गई है।(मतलब जो भी ज्ञान है वह नकल का नकल है) एक दूसरा शब्द भी है – पेश्टीज  जिसकी विशेषता है कि पाठ से कर्ता गायब है। (नई साहित्यिक सांस्कृतिक सैद्धांतिकी सुधीश पचौरी पृष्ठ 310, 311) इस उत्तर औद्योगिक युग में लेखक विशिष्ट शैली से वंचित है। मौलिकता नष्ट हो चुकी है।   ज्ञान नष्ट हो गया है। बुद्धिमत्ता को मशीनों ने चुनौती दी है। लेखक की मृत्यु हो चुकी है। मात्र जानकारी ही बची है। लोग जानकारी पर विश्वास कर रहे है और यथार्थ और सत्य पीछे छूट गया है। दक्षिण पंथ श्रेणीबध्यता, सत्ता व्यवस्था, परंपरा, राष्ट्रवाद आदि में विश्वास करता है। जबकि वामपंथ, स्वतंत्रता समानता बंधुत्व, अधिकार , उन्नति, परिवर्तन तथा अंतर्राष्ट्रीयतावाद में विश्वास करता है। दोनों समाज तथा सामाजिक संस्थाओं या ...

अज्ञेय और निर्मल वर्मा : एक तस्वीर–एक नजर ~ कार्तिकेय शुक्ल

 अज्ञेय और निर्मल वर्मा: एक तस्वीर - एक नज़र  ______________________________________________ इसे विडंबना कहा जाए या कोई संयोग कि कल निर्मल वर्मा का जन्मदिवस था तो आज अज्ञेय की पुण्यतिथि है। वैसे भी हिन्दी अकादमिया में निर्मल वर्मा और अज्ञेय को साथ - साथ ही देखने की कोशिश की जाती रही है और इन पर प्रहार भी एक ही तरफ़ से और कुछ - कुछ एक ही हथियार से भी हुआ है। वैसे भी साहित्य की दुनिया में इसे बुरा नहीं माना जाता किंतु ये देखने की कोशिश ज़रूर की जाती है कि कहीं कोई बैर भाव तो नहीं। क्योंकि बिन बैर भाव की आलोचना समृद्ध करती है। आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है। इसे कॉलरिज और वर्ड्सवर्थ के संदर्भ में देखें तो चीजें ज़रा और खुल कर सामने आएंगी। ख़ैर बात निर्मल वर्मा और अज्ञेय के संदर्भ में हो रही है तो ज़्यादा भटकना सही न लग रहा । वैसे भी कितना भी भटक लिया जाए, जो हो चुका है उसे बदला न जा सकता। निर्मल वर्मा से संबंधित प्रसंगों पर लिखते समय एक प्रतिष्ठित आलोचक ( Krishna Mohan )उनके प्रयाग में बिताए संगम से नोट लेते हुए उनके अंधविश्वास और पोंगा - पोथियों पर तंज कसते हैं। और उदाहरण स्...