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Showing posts from April, 2023

भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे ~ अमृता राव

 विनायक नरहरि भावे‘विनोबा भावे’जिन्हें महात्मा गांधी ने 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के लिए पहला सत्याग्रही चुना था । यही वह पहली घटना है ,जिसने लोगों का ध्यान विनोबा की तरह खींचा था ।महात्मा गांधी के अध्यात्मिक विरासत के सच्चे शिष्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गागोदा गांव में हुआ था। विनोबा भावे न सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता और भूदान आंदोलन के प्रणेता भी थे। कम्युनिटी लीडरशिप के लिए उन्हें रेमन मैग्सेस पुरस्कार से  सम्मानित किया गया था ।वह इस श्रेणी में यह पुरस्कार जीतने वाले पहले व्यक्ति थे। विनोबा भावे ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और असहयोग आंदोलन में भी शामिल हुए थे।सरकार ने उन पर ब्रिटिश शासन के विरोध का आरोप लगाकर जेल में भेज दिया।बंदी जीवन में विनोबा जी ने साहित्य साधना की और तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी थी,जिनमें ‘स्वराज्य शास्त्र’,‘स्थितप्रज्ञ दर्शन’,और ईशा वास्य वृत्ति’ प्रमुख रचनाएं थी। गांधी जी के राजनीतिक गुरु गोखले थे तो आध्यात्मिक शिष्य थे विनोबा भावे।7 जून 1916 को विनोबा अहमदाबाद स्...

सब चुप हैं कविता ~ कार्तिकेय शुक्ल

 सब चुप हैं  ________________ सब चुप हैं कवि भी चुप  लेखक भी चुप  कलाकार तो कब के चुप और तो और स्वयं कविता भी चुप  कौन बोल रहा है सिवाय गोली के किसका मुंह खुल रहा सिवाय नली के एक ही प्रश्न है और एक ही  है उत्तर  पर वो भी कोई नहीं दे रहा  कौन है उस ओर तो देखो देखकर भी क्यों नहीं बोल रहा                              ~ कार्तिकेय शुक्ल, शोधार्थी सीयूएच 

मार्क्सवादी मनोविश्लेषण आलोचना ~ मेवालाल

              –  मार्क्सवादी मनोविश्लेषण –  मैंने जेएनयू से परा स्नातक (2018–2020) किया। जब नामवर सिंह की मृत्यु ( 2019) हुई थी तब मैं जेएनयू में था। उनके देहावसान पर हिंदी के प्रोफेसर्स ने दुख व्यक्त किया और उनके साहित्यिक योगदान को सराहा । मुझे लगा कि हां सचमुच वो बड़े आलोचक थे। वे मार्क्सवादी आलोचक थे। मेरा भी मन पढ़ने का बहुत शौकीन था। मैं पुस्तकालय में बैठकर मार्क्सवाद से संबंधित सारी किताब पढ़ डाली। फिर मैंने सोचा जो मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ है उसका प्रयोग कहां किया जाय। तो मुझे दलित साहित्य से बेहतर कोई रास्ता न दिखाई दिया। मैं एमए के बाद पीएचडी भी करने का सोच रहा था तो मैंने मार्क्सवाद का दलित साहित्य में प्रयोग करने को सोचा। इसी पर मैंने शोध प्रस्तावना बनाया। इसी बीच करोना ने भी दस्तक दी। विश्वविद्यालय में सीट भी कम आई। और दो तीन जगह कोशिश करने पर भी एडमिशन नहीं हुआ। मैने सोचा मेरा विषय गलत है। फिर मैंने मनोविश्लेषण पढ़ना शुरू किया ताकि अज्ञेय की कहानियों में उसका प्रयोग कर सकूं और नया शोध प्रस्ताव तैयार कर सकूं। तब मुझे दोन...

गजल ~ गौतम कुमार

ज़िद तो टूटने की थी, पर बिखर गया है कोई लम्हे में कई मौत एक साथ मर गया है कोई अब के फिर नहीं टूटा सिलसिला-ए-उम्मीद  कि फिर अपने वादे से मुकर गया है कोई कुछ खोये-खोये, कुछ मुरझाए से रहते हैं जबसे चमन की बात गुलों से कर गया है कोई तुम भी आज़ाद हो और हम भी आज़ाद हैं ये फ़िज़ूल की बातें हैं, बस कर गया है कोई अब जफ़ाओं में भी करते हैं वफ़ा की उम्मीद उल्फ़त की राहों में इतना संवर गया है कोई इक तेरे ज़ुल्म हैं, इक तेरा ख़्वाब-ए-इंक़लाब क़त्ल होकर लौटा, जिधर-जिधर गया है कोई ये हुक्म है कि हम उनकी हदों में हों दाख़िल उनके मोहल्ले में कहीं सूअर मर गया है कोई                                ~ गौतम कुमार शोधार्थी जेएनयू

क्या लिखूं ? कविता ~ वैष्णवी गौतम

आज क्या लिखूं?  संगीत,खुशी,किताब, दुख या निराशा या बीते हुए काले दिन,  भयावह राते या लिखूं जीवन की कोई नई आशा ।  मन में झील सा ठहराव  ये जड़ता है या संतुष्टि  नहीं है पता तो  क्या इसे कह दूं संवेदनहीनता ?   शायद सभी भावों का मिश्रण  हुआ है एक खास अनुपात में   जैसे प्राणवायु बनती है कायनात में  उस श्वास का नही होता है एहसास  ठीक वैसे ही अभी मैं हूं  शांत ना दुख का अनुभव,  ना खुशी है कोई ना है किसी से अपेक्षा  ना माजी से शिकायत,  ना जीवन का है पता  ये माहौल का है असर,  या है कोई आध्यात्मिकता   मैं भावहीन हो रही हूं,  या सभी भावो से युक्त,  जिसमे नहीं है किसी भाव के लिए खाली जगह  लाऊं कहां से अल्फाज,  क्या लिखूं,  नहीं है पता।   ~ वैष्णवी गौतम शोधार्थी हिंदी विभाग बीएचयू

सपना कविता ~ डॉ. प्रभाकर सिंह

        सपना कुछ आने वाली दुनिया की बेहतरी के लिए सपने पालते है।  कुछ सपने गढ़ते है कुछ है जो उन सपनों को,  सिर्फ सपनो में देखते है।  कुछ ऐसे भी हैं जो,   सपने देखते भी है सपने बुनते भी है और उन सपनों को, हकीकत में बदलने का माद्दा भी रखते है।  वह उन सपनों के नायकों  की खोज में भटकते नहीं  खुद अपने सपने के  कारखाने से अनगिनत  नायकों को पैदा कर देते हैं।  जो आने वाली पीढ़ियों  की दुनिया को  नवांकुर सपनों से  भर देते हैं।          ~ डॉ. प्रभाकर सिंह,  प्रोफेसर हिन्दी विभाग  बीएचयू

आकस्मिक मृत्यु पर ~ मेवालाल

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                           स्व.  विजय बहादुर सर   हिंदी विभाग के प्रधानाचार्य और कला संकाय के प्रमुख आदरणीय विजय बहादुर सिंह की हृदयाघात के कारण हो गई। यह अकस्मात और चौकाने वाला घटना है। एक चलते फिरते आदमी का अचानक यूं चले जाना एक पूंजीवाद की तरफ इशारा करता है जो व्याप्त व्यवस्था से हटकर अलग व्यवस्था की मांग भी करता है। पूंजीवाद ने सबसे पहले पर्यावरण को विकास के नाम पर नष्ट किया। ऐसा विकास किया कि उसने हमारे मूल जमीन से काट दिया । मानव को श्रम से दूर कर दिया । ऐसी ऐसी बिलासी चीजे बनाई कि आदमी उसका अनुसरण करता गया है और अपने मूल स्वभाव यानी शारीरिक श्रम को भी छोड़ दिया। बाजार में कोई एक भी  पदार्थ शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं है। सब कुछ स्वाद देखकर बनाया गया है ना की स्वास्थ देखकर। इसने शारीरिक ताकत को नष्ट किया। और व्यस्तता ने अपने लिए लोगो को समय निकालने का मौका नहीं दिया। स्मार्टफोन ने मानव से दूर , एक मानव के लिए एक अलग आभासी दुनिया बनाई। इस आभासी दुनिया से व्यक्ति दूर नहीं होना चाहता।  ऐसे मे...