Posts

Showing posts from March, 2023

ज्ञान बहुत मंहगा है ~ मेवालाल

Image
  where knowledge is free where head held high without fear. ~ ravindranath taigore यह पुस्तक करीब 460 + पेज की है। हार्ड बाउंड है। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है। कीमत है 1500। प्रकाशक ने पेपर बैक छपना बंद कर दिया है। इसमें लेखक ने ऐसी कोई स्वर्ण ज्ञान नहीं भरी है जिसको खरीद कर पाठक 3 हजार कमा सके। जरूरत मंद लोग जिनके पास ज्यादा पैसा नहीं है पर वे अगर इस पुस्तक को पढ़ना चाहते है तो खरीदने के पहले दो चार बार सोचेंगे पर इतना मंहगा खरीदेंगे नहीं। वैसे कीमत और पुस्तक के बीच कोई स्वस्थ संबंध नहीं दिखाई देता है। राजकमल प्रकाशन ने पुस्तक की कीमत तय करने में मनमानी दिखाई है।   ज्ञान की महंगाई विकास की गति ही है ।

बीएचयू लाइब्रेरी का यथार्थ दृश्य ~ मेवालाल

Image
यह बीएचयू साइबर लाइब्रेरी का यथार्थ दृश्य है।खाली जगह है पर पर्याप्त कुर्सी और मेज नही है... व्यवस्था में छेद को कैसे कोई सकारात्मक ले सकता है।

उदासी भरे दिनों में कविता ~ सुमित चौधरी

"उदासी भरे दिनों में" __________________   कितना कुछ कहना चाहता हूं तुमसे  कि कोई रंग नहीं चढ़ता मेरे ऊपर  कोई मुलायम बात नहीं भाती मुझे  न ही अब मेरा चेहरा मुझे सुहाता है|  कितने उदास हैं दिन  कि बुझ नहीं पाती है सच की लौ मेरे भीतर  मैं चाह कर भी नहीं बचा पाता अपने लोगों को  वे आहत हो जाते हैं, मेरे कटु वचनों से  और विमुख हो जाते हैं   इन उदासी भरे दिनों में|  मैं सच कह रहा हूं   "मैं किसी फिल्म का नायक नहीं  जो ढाई घंटे बाद खुश हो जाऊं"  और कहूं कि सब कुछ ठीक हो गया   जबकि 'मैं ठीक नहीं हूं' कितनी आधी-अधूरी बातें तुमसे कहकर पूरा करना चाहता हूं| सच है यह पर कह नहीं पाता |  यह उदासी का आलम  कितना निर्जीव बना दिया है मुझे  कि तुम्हारे साथ होने के बाद भी  तुम पर खीज जाता हूं|  और तुम शांत-चुप होकर  पूरी शालीनता से सुनती जाती हो   'मुझे माफ करना   इसमें तुम्हारा दोष नहीं  यह उदासी भरे दिन का मामला है  जिसमें तुम्हारा प्रेम भी   मुझे ऊर्जा नही...

अंतिम सलाम लघुकथा ~ नंदलाल भारती

आफिस बहुत देर खोल रहे हो नरेंद्रबाबू ? हां योगेशजी, अन्तिम संस्कार सेरेमनी में गया था। ये कैसी सेरेमनी थी भाई ? मौत का जश्न समझ लीजिए नरेंद्रबाबू बोले। मौत का भी जश्न होता है क्या ? अरे हां भाई, मैं क्या शहर के गणमान्य लोग भी शामिल थे। ये कौन से महापुरुष थे जिनकी डेथ सेरेमनी थी योगेशजी पूछे। समभाव-सर्वधर्म के नायक फादर वर्गीस अलेंगाडन। अच्छा ईसाई थे योगेशजी बोले। नहीं बस इतना ही नहीं धर्म से थे पर कर्म से उद्धारक, सर्वधर्म समभाव के पथगामी थे । प्रखर वक्ता, धर्म गुरु, समाज सुधारक, मोटिवेशनल स्पीकर, शिक्षा-दूत थे, कहूं कि वे धर्म से उपर उठ गये थे तो अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए योगेशजी नगेन्द्र बाबू बोले। ये क्या कह रहे हो योगेश बोले? डेथ सेरेमनी ईसाई विधि से हुई है पर उनकी वसीयत के अनुसार अग्नि दाह हुआ है। सच फादर वर्गीस अलेंगाडन फरिश्ता थे योगेश खुशी-खुशी बोले। कितना बड़ा संदेश फादर वर्गीस अलेंगाडन दुनिया को देकर ब्रह्मलीन हुए हैं। दफनाये जाते तो जमीन लगती, जमीन फंसी रहती, जलस्रोत खराब होता और बड़ी बात पर्यावरण बचाओ, जीवन बचाओ का संदेश देकर दुनिया से गये हैं। पर्यावरण और जीवन बचाओ,का...

प्रवासी मजदूर कविता ~ अंकित दुबे

जितना पानी बचा, हिचकियां खा गईं  कुछ हुकूमत की ख़ामोशियां खा गईं।  दो बताशे थे वो, चीटियां खा गईं  फ़िर बची रोटियाँ, पटरियां खा गईं।  इस सियासत के आरोह -अवरोह में  हम तो हर पल ही चढ़ते-उतरते रहे।   तुमने राशन दिया काग़ज़ों पर हमें  और हम हैं कि सड़कों पे मरते रहे।   एड़ियां घिस गईं अब तो ईमान की   कितनी कीमत बची है मेरी जान की।  हादसों को तो पहले पहचाना नहीं   बाद करते हो पहचान सामान की।  अपनी बातों में इतना जो पूजा हमें  हमको शायद तुम पत्थर समझते रहे।  तुमने राशन दिया काग़ज़ों पर हमें  और हम हैं कि सड़कों पे मरते रहे।                                                             -अंकित दुबे, शोधार्थी बीएचयू

आत्मशक्ति कविता ~ अनुपम ठाकुर

 मैंने कभी कोई कमी नहीं की। सत्कार में, विचार में, व्यवहार में तत्परता से, कुशलता से , चतुरता से मैंने अपने हिस्से की ज़मीर को नमी नहीं की। अर्पण से , तर्पण से, समर्पण से इजहार में, प्यार में, य्यार में, कभी बंजर नहीं किया दिल को ज़मीं की। मैं हमेशा दौड़ता ही रहा रात में, बात में, साथ में मैं ढूंढता रहा  आँखों में, शाखों पे , ताखों पे मैं हमेशा जूझता रहा वर्तमान से , ज़ुबान से, बेईमान से @अनुपम ठाकुर      युवा कवि

रिटायरमेंट कहानी ~ नंदलाल भारती

माघ की ठिठुरन और हल्की बारिश ने पूरा वातावरण जैसे बर्फीला बना दिया था।लोग घरों में भी ठिठुर रहे थे।मजदूर वर्ग खेत खलिहान में डटा हुआ था, मजदूर को ठण्ड की फिक्र नहीं रोटी रोजी की होती है ।हवा की छुअन हड्डियां गला देने वाली थी ।ऐसी ठण्ड में मजदूर गेहूं की सिंचाई में, धान की सटकायी में लगा हुआ था यानी मजदूर वर्ग रोटी के लिए जंग लड़ रहा था। ऐसी ही शीत लहरी में नरेश नोकरी की तलाश मे अपने फूफा बाबू राम के साथ दिल्ली को कूच किया था। बाबू राम कोई अफसर थे नहीं, मेहनत मजदूरी का काम करते थे। शहर में उनके पास सिर छिपाने के लिए झुग्गी भी न थी।वे ग्रेजुएट नरेश को अपने साथ कैसे रख पाते।वे बड़े दयालु प्रवृत्ति के थे, नरेश को तकलीफ़ न हो इसलिए वे शहर में नजदीकी रिश्तेदार जो झुग्गी मालिक भी थे उनके के हवाले कर वे हरियाणा चले गए।  इधर नरेश को दिल्ली में न तो नौकरी मिल रही थी ना सकूं। हां उपर से खुराकी का खर्च रोज बढ़ रहा था। वजीरपुर आद्यौगिक क्षेत्र की टीन का डिब्बा बनाने वाली फैक्ट्री, लोहे की फैक्ट्री, टेलीविजन की फैक्ट्री, आजादपुर मंडी में सेबफल की पेटी बनाने का काम,आलपिन की फैक्ट्री में काम ...

तीसरी पर खेती कविता ~ नंदलाल भारती

  तीसरी पर खेती क्या लाभ ? बंधुआ मजदूर के शोषण का नया अवतार  लाचारी-बेचारी,खेत वहीं मालिक वहीं बंधुआ मजदूर का बदल गया नाम  तीसरी पर खेती करने वाला बंधुआ मजदूर था तब खटता सुबह-रात कोल्हू के बैल समान तब भी थी सैकड़ों छेद वाली बंडी, घुटने तक फटी लुंगी  अब भी तब मिलता था खरमेटाव में लोटा भर रस, मुट्ठी भर चबैना दिन भर की दो  और आधा दिन की  सेर भर अनाज की  तब थी मजदूरी  अब भी है मजबूरी  बड़ी उपज का नन्हा हिस्सा  तीसरी की खेती पूरे परिवार को काम क्या रात, क्या सुबह क्या शाम ? शोषण का पूरा इंतजाम  क्या नया क्या पुराना ज़माना ? खेतिहर मजदूर कल भी करता था आंसू से रोटी होती गिली और आज भी तब भी खेत मालिक डूबे होते  जश्न में और आज भी वही हाल मजदूर बेहाल मालिक का खेत में नहीं पड़ता पांव फोड़ता हाड़ मजदूर खेत का विहसता महल की छांव  मजदूर के माथे से झराझर पसीना, छिलते,पकते नंगे पांव उपज का एक भाग मजदूर के हिस्से तीन हिस्सा खेत मालिक के, ढो-ढो कर भरता मजदूर मालिक का गोदाम पूरा परिवार करें बेगारी भाग्य में खिस्से के हजार छेद उपर से बन डंसत...

अपना माटी कविता ~ नंदलाल भारती

गांव आज भी है रहेगा भी आज का गांव वो गांव नहीं घर के सामने नीम का पेड़ गोबर माटी से लीपापोता चबूतरा  छांव में खटिया और धान की पुआल से बने मोंढो पर दुनियादारी के ज्ञान बांटते लोग जाड़े का दिन तो था जन्नत कौड़ा तापने का सुख बुजुर्गो की बतकही विसर जाते थे दुःख बचपन का भी असीम आनंद मां गरम कर देती बासी खाना कौड़े की आग पर  बासी खाना हो जाता था सोंधा खुश हो जाता था बच्चा कोड़े को घेरे लोग गर्म होकर करते थे नरम-नरम बातें, बड़े -बड़े मसले सलट जाते थे कौड़ा तापते सात-जन्म तक के रिश्ते तय हो जाते थे  समय क्या बदला ? सब कुछ बदल गया  गांव भी गांव की फिजा में शहरीपन समा गया  सुबह गुड़ दाना खाकर,  ठण्डा पानी पीकर ढकार मारने  हुक्का गुड़गुड़ाने वाले  चाय पी- पीकर खट्टी डकार मारने लगे है नीम की दातून गांव से शहर की ओर चल पड़ी है नीम का चबूतरा ना रहा और ना वो तम्बू जैसी नीम भी  ना मोंढे पर बैठ कर दुःख दर्द बांटने वाले लोग बूढ़े मकान में लटके तालों को जंग चाट रहे  गांव की प्रकृति को शहर गांव से अब शहर की ओर दौड़ की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है लोग फूट रहे...

गांव की धरोहर कविता ~ नंदलाल भारती

  गांव में कभी विशाल बरगद और महुआ के पेड़  हुआ करते थे, बरगद तो बारादरी जैसे बारात समा जाती थी छांव में एक जमाना था जब बरगद की छांव रहट चला करती थी रहट से सींचती थी फसलें बरगद की छांव सुस्ताया करते थे भेड़ बकरियां चुगा करती थी हरी हरी नन्ही -नन्ही चाहे खेतो में काम करने वालों के लिए बरगद के पेड़ हुआ करते थे जन्नत खैर रहट क्या पुराने संसाधन कबाड़ में बिक गए बरगद महुआ के पेड़ों के कोई सबूत नहीं है अब कुओं के अवशेष तो बचे हैं अबैध कब्जे में हैं किसी न किसी दबंग के जमीन गांव समाज की  हुआ करती थी, रहट,पुर और कोलाहाड़ की कुछ नहीं बचा है अब सरकारी कागजों में निशान हो शायद वास्तव में सब अतिक्रमण की भेंट चढ़ चढ़े हैं गांव की पहचान खो रहे है पोखरी तालाब अतिक्रमण के शिकार हो गये हैं सार्वजनिक मिल्कियत अब निजी हो चुकी है या हो रही है, कब्रिस्तान तक अतिक्रमण की चपेट में हैं सोचो क्या बचेगा ? अब गांव में बरगद के पेड़ की तरह गांव समाज की मिल्कियत के, पोखरी, तालाब,कुये सब  चोरी हो जायेंगे एक दिन गांव की लूट जायेगी पहचान सरकारी नक्शे में शायद शेष रहे निशान गांव के जिम्मेदारों से विन...

बीएचयू में ~ मेवालाल

Image
  जब प्रशासन मर जाय तो जिम्मेदारी आम आदमी या नीचे तबके के लोग ही उठाते है। जिनका समाज में मूल्य कम होता है पर समाज की नीव वही होते है।बीएचयू में होली के अवसर पर पूरे हफ्ते मेस बंद हो जाता है जिस हफ्ते में एक भी त्योहार होता है। मेस के साथ कैंटीन भी बंद हो जाती है। कुछ विद्यार्थी घर नहीं जाते है। वे जीवन वृत्ति बनाने में लगे रहते है। वे लोग भी नहीं जाते जिनका घर दूर होता है या घर पहुंचने पर पर्याप्त साधन नहीं मौजूद रहते। प्रशासन भोजन के लिए विद्यार्थी को उनके किस्मत पर छोड़ देता है। ऐसा नहीं है कि जो नहीं जा रहे उन सबके लिए एक मेस चलेगा। सिर्फ जिस दिन त्योहार रहेगा उसी दिन छुट्टी रहेगी।  पूरे कैंपस में मात्र विश्वेश्वरैया छात्रावास का मेस खुला हुआ है। सारे विद्यार्थी वही खाने जाते है। हम लोगो को काफी संघर्ष या इंतजार के बाद खाना मिल पाता है। वहां के स्टाफ काफी ओवरलोडेड होते है। फिर भी वे श्रम करते है। सबको सेवा देते है। ऊंचे सेवको के जैसा नहीं है कि हस्ताक्षर करते करते थक जाय। मुंह से जुबान न निकले और एटीट्यूड में रहे। दो कदम चलने के बाद कह दे कि बहुत थक गया हूं रुको कुछ देर।...