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Showing posts from July, 2023

अब कौन पहचानेगा ? कविता ~ गौतम कुमार

 अब कौन पहचानेगा?         अभ्रक     जस्ता     चूना-पत्थर     बुजुर्गों की तरह बरसों से शांत बैठे हैं     धरती के नीचे     बुजुर्गों की तरह ही पहचानते हैं     उस मुंडारी बच्चे के कोमल पैरों की थाप को     जो उतर चुकी है खनिज विशेष के पोरों में     जैसे जड़ें उतरती हैं      मिट्टी में     सपाट सी धरती पे     पनप उठते हैं इतने गहरे रिश्ते!     पत्तियाँ नहीं है वो     बल्कि जंगल के दस्तावेज़ हैं     आदिवासी स्पर्शों से हरी     पहचानती हैं संथाली उंगलियों को     सहज ही टूट जाती हैं हल्के से ज़ोर पे     फिर उग आती हैं निःस्वार्थ     वही नैसर्गिक हरापन लिए     किसी जंगली फूल से मेल खाती है     उस गोंड लड़की की मुस्कुराहट     दोनों एक दूसरे को ख़ूब पहचानते हैं     मुआवज़े की अधूरी रक़म के साथ     विस्थापित उस बच्चे को      उस लड़की क...

नामवर जी की स्मृति (कविता) ~ डॉ. प्रभाकर सिंह

 उनका बोलना भारतीय संगीत के मध्यम राग का धीरे धीरे बजना  सधा हुआ कदम जैसे परंपरा और आधुनिकता की संगत हाथों की थिरकन मानों निर्गुण सगुण की भक्ति कविता बातों में बतरस और बतरस  में आलोचना आंखो की चमक जैसे आकाश में ध्रुव निगाहों से आंक लेने का  गजब का हुनर विचार में विश्व दृष्टि विवेचन में भारतीय सौंदर्य उनके साथ होना अनगिनत किस्सो कहानियों कविताओं से भर जाना उनकी स्मृति का आना मानो साहित्य के कानन में  पंख पसारे मयूर को देखना                                  डॉ. प्रभाकर सिंह हिंदी विभाग बीएचयू 

जाति का उन्मूलन – डॉ. अंबेडकर से आगे (शोध पत्र) ~ मेवालाल

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समकालीन संवैधानिक काल में, संविधान जिसमें जाति के आधार पर भेदभाव और अस्पृश्यता का अंत कर दिया गया है। फिर भी दलितों का शोषण जाति और अस्पृश्यता के आधार पर हो रहा है। 1991 का आर्थिक उदारीकरण भी दलितों के लिए शून्य सिद्ध हुआ। दलित दलित ही रहा। यह जाति ही है जो शोषको को अभिप्रेरित (मोटिवेट) करती है। दूसरी ओर दलितों को अनाभिप्रेरित ( demotivate) करती है जिसके कारण आज भी दलितों में अकर्मणता तथा दास चित्तवृत्ति विद्यमान है। “जहां सार्वजनिक भावना, सार्वजनिक दानशीलता , सार्वजनिक जनमत, जिम्मेदारी, वफादारी, सदगुण, नैतिकता, सहानुभूति सब जाति तक सीमित है।¹ जहां मानवतावाद और आपसी प्रेम जाति तक सीमित हो। जहां द्विज और दलित पहले से ही एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह पाले हुए हो और दूर दूर रह रहे हो, जहां एक समुदाय विशेष के लोग सामाजिक सामंजस्य छोड़कर विभाजन का उपदेश दे रहे हो, समाज में जहां रोटी बेटी का संबंध मौजूद है वहां भी, जहां नहीं मौजूद है उस समाज में भी जाति के आधार पर शोषण हो रहा है। निसंदेह जाति के आधार पर शोषण हो रहा है पर यह निश्चित नहीं कि शोषण का आधार मात्र जाति ही उसमे अन्य कारक उपस्थित ...

हुक्मरान कविता ~ सुरेश जिनागल

 हुक्मरान उसने शब्दों के अर्थों को अपकर्षित कर  अपना व्याकरण बनाया है– उसके लिए लोकतंत्र एक चुटकुला है जिससे देश का मनोरंजन करता है  देश हत्याओं की जागीर है जहां लाशों की हड्डियों पर बैठकर वह ख़ुद हंसता है  बलात्कार आंसू बहाने का ज़रिया है जिससे अपना विरेचन करता है  भाषण उन्मादी भीड़ के लिए  सभ्यताओं को नंगा करने के उपदेश हैं उसके व्याकरण में जो मिसफिट हैं वे या तो बागी हैं या फिर अपनी मौत के इंतज़ार में हैं  सुरेश जिनागल, शोधार्थी बीएचयू 

प्रेसिडेंट रूल कविता ~ गौतम कुमार

 वह दोनों में      फूल-पत्तियाँ रखकर      घी-कपूर डालकर       आरती सजाता है      और उसे नदी की सुरम्य धारा में बहा देता है      वह खाता है बेर      खाता है आम      और इनकी गुठलियां फेंक देता है      निर्जन जंगलों में       मूक और जड़ पेड़ों के बीच      वह काम से लौटते वक़्त      रोज़ सड़क पे पीता है चाय      और उस खुली सड़क के किनारे पर      छोड़ देता है खाली कप      वह घर पहुँचते ही       उतारता है जूता      और उसे अपने कमरे के कोने में      हल्के से धकेल देता है      वह करता है बलात्कार      और उसी नदी में बहा देता है      जंगलों में फेंक देता है      सड़क के किनारे छोड़ देता है      घर के कोने में धकेल देता है      औरत का शरीर भर नहीं...

दलित कविता ~ कार्तिकेय शुक्ल

 #दलित  __________________ मुझे शब्दों से लगाव था लेकिन शब्द मिट गए भाव भी विलुप्त हो गए और प्रेम तो बिक ही गया मेरे पास पैसे नहीं थे मैं अमीर बाप का बेटा न था मैं लूटा तो नहीं गया  लेकिन अछूता भी न रहा जहां सभी को  शब्दों ने शक्ति दी भावों ने अपनत्व  और प्रेम ने साहस  वहां मुझे इनमें से किसी ने भी नहीं दिया कुछ भी न चाह कर भी त्याज्यता का शिकार हो सामान्य से हो जाना पड़ा मुझे दलित               कार्तिकेय शुक्ल, शोधार्थी हैदराबाद विश्वविद्यालय

वसीयतनामा कहानी ~ नन्दलाल भारती

 वसीयतनामा सुबह मौन थी। सूरज की रोशनी पेड़ों के झुरमुटों से शनै शनै झर रही थी पर किसी को इस अद्भुत प्राकृतिक नजारे से कोई सरोकार न था क्योंकि  मुकुल के निष्प्राण शरीर को पुआल बिछा कर लेटा दिया गया था। सब की नजरें मुकुल के मृत शरीर पर टिकी थी। कुछ लोग जहां तहां खड़े या बैठे बस मुकुल के सम्मान में कसीदे पढ़ रहे थे। कसीदे पढ़ने वाले वे लोग भी थे जिन्हें मुकुल की आदमियत भरे सदाचार में खोट नज़र आती थी वे लोग मुकुल के विरोध में जैसे तलवारें खींचे रहते थे पर मुकुल को बारे बहुत निक -निक बताया रहे थे। मुकुल के मरने पर कसीदे पढ़े जा रहे थे। यही लोग मुकुल के विरोधी थे, उनकी जबान से एक मीठे बोल सुनने को नहीं मिले थे वहीं लोग मुकुल की मौत पर प्रशंसा और दरियादिली के पुल बांध रहे थे।काश ये लोग अपनी जबान से मुकुल के जीवन में दो मीठे शब्द बोल दिये हो तो मुकुल सुन भी लिये होते। मुकुल के निष्प्राण हो चुके शरीर के इर्द-गिर्द शहद चुपड़ी जबान से लोग अमृत वाणी की उल्टियां कर कर खुद को मुकुल का शुभचिंतक बनने की कोशिश कर रहे थे। मानवतावादी मुकुल सामाजिक,शैक्षणिक रूप से पूरी तरह सम्पन्न और प्रतिष्ठि...

गज़ल ~ सत्यम भारती

  ग़ज़ल- 01 बिखर रहा विश्वास आजकल आम-जनों की आस आजकल  गांवों के सपने सलीब पर शहरों में उल्लास आजकल   बहू रोज डिस्को जाती है  वृद्धाश्रम में सास आजकल  जनता के हिस्से बस जुमले,  प्रतिनिधि का मधुमास आजकल  दिल्ली खून-पसीना पीती नहीं बुझ रही प्यास आजकल कविगण मिल कोरस गाते हैं कविता है परिहास आजकल देख मंच की हालत 'सत्यम' गदहों में उल्लास आजकल ग़ज़ल-02 तोड़कर अब पाँव की हर बेड़ियाँ  चाँद को छूने लगी हैं बेटियाँ ढूँढता फिरता है वो भी खामियाँ कर रहा है रात दिन जो गलतियाँ  आजकल महफूज दिखती हैं कहाँ रक्स करती शाख की वो तितलियाँ चार दिन के बाद ही मांगे बहू मालकिन हूँ दे दो घर की चाबियाँ   वक़्त से पहले सयानी हो गयीं जाल में फँसती कहाँ हैं मछलियाँ ग़ज़ल-03 प्यार और तकरार तुम्हीं से फिर-फिर है मनुहार तुम्हीं से पतझड़ मन का दूर करे जो  गुलशन और बहार तुम्हीं से तुम तक ही मेरी कविताएँ  ग़ज़लों का विस्तार तुम्हीं से सारी दुनियाँ तुममें दिखती मेरा है संसार तुम्हीं से   सपने, ख़ुशबू, बादल, जुगनू सबका कारोबार तुम्हीं से ग़ज़ल-04 क़द...

सोचना काफी नहीं होता कविता ~ नन्दलाल भारती

 सोचना काफी नहीं होता  बरखुरदार बस अच्छा, सोचना ही काफी नहीं होता  त्याग करना पड़ता है,श्रम करना पड़ता है  पसीना बहाना पड़ता है, कुछ शौक भी छोड़ना पड़ता है बहुत कुछ सहना और करना पड़ता है अच्छा करने के लिए......  तपना पड़ता है बरखुरदार घर परिवार में समाज में और देशहित में भी तभी निखरता है आदमी सोने की तरह ताप सहकर........ बस सोचना काफी नहीं होता है करना पड़ता है कई बार त्याग करना पड़ता है जाति-धर्म वंश के गुमान का मोह भी छोड़ना पड़ता है समानता के लिए......... ऐसे लोग ही कुन्दन होते हैं सोचने के साथ कुछ अच्छा करना पड़ता है अच्छा करते हुए बूढ़ा होना तभी अच्छा लगता है, अच्छा करना दूसरों की मुस्कान के लिए सुख देता है बरखुरदार.......... सब जानते हैं  मौत प्रतिपल शिकंजा कस रही है चाहे कितनों कर लो भक्ति-अंधभक्ति  व्रत उपवास मौत नित आ रही है पास और पास बरखुरदार जिंदगी के पल को  आत्मीयता से  जीना पड़ता है....... नेक नीयत से जीते हुए आगे बढ़ना धरती का बड़ा सुख है  बरखुरदार आ जाओ कुछ अच्छा करें , समतावादी समाज और देश के लिए कुछ नेक इरादे से करना कि...

जीने दो कविता नन्दलाल भारती

 जीने दो  स्वर्ग से सुन्दर अपनी जहां में मुझे भी जीना है, हमें भी जिन्दगी के मायने सीना है, याद रखो बरखुरदार ये जहां कौड़ियों की वसीयत, नहीं है तुम्हारी जिन्दगी तो एक सफर है चाहे तुम्हारी हो या हमारी कौन से मोड़ पर सांस साथ छोड़ दें ना तुम्हें ना मुझे है जानकारी इन्तिजा मान लो, खुदा के बंदे छोड़ दो ना इंसाफी के धंधे फेंक दो खंजर मत बनो बंजर तल्ख आवरण उतार दो इत्मीनान से जीओ और अपनी जहां को जीने दो। नन्दलाल भारती

अभिमन्यु की मौत कविता ~ नन्दलाल भारती

अभिमन्यु की मौत। सब्र की खेती उम्मीदों पर पाथर पानी  बस यही है, हाशिए के आदमी के जीवन की कहानी  सूखने लगे अभ उम्मीदों के सोते  वज्रपात......कल होगा कैसा ? सदियों पुराना खौफ डरा रहा डर डर कर जीने में  आज हो रहा विरान जहर पीकर कैसे जीये अदना  कैसे सींचे जीवन सपना भेद भरे जहां में, बड़े दर्द पाये हैं दर्द में जीना आंसू पीना नसीब बन गया है।। तकलीफों के दंगल में, तालीम से मंगल की उम्मीद  वह भी छली गई श्रेष्ठता के दंगल में छल बल के सहारे  अदना कोई क्या आजमायें जोर जीने और आगे बढ़ने का जनून बेचैन पर मौन गिर गिर कर उठता श्रम के सहारे। नहीं मिलता भरे जहां में कोई आंसू का मोल समझने वाला श्रम सपनों की आशा खड़ी भौंहें,कुचल जाती ऐसा है भेदभाव भरा जहां प्यारे स्वहित में पराई आंखों के सपने जाते हैं मारे‌। ईसा-बुध्द, महावीर और भी पूज्य हुए इंसान कारण वही जो आज भी है जवान भेदभाव,दुःख दरिद्रता, जीवदया परपीड़ा से उपजे दर्द को खुद का माना किये काम महान दुनिया कहती उन्हें भगवान। वक्त का ढर्रा वहीं,बस बदल गया है इंसान कमजोर के दमन में ढूंढ रहा स्वहित, आज इंसान दबंग के हाथों...

सोनचिरैया कविता ~ नन्दलाल भारती

सोनचिरैया लूट रही उम्मीदें,  टूट रहे सपने मर रही आत्मा की आवाज  जाति-पाति में बंटा बूढ़ा संसार, दुनिया को राह दिखाने वाला ढो रहा भ्रष्टाचार -अत्याचार सत्य भयभीत यहां आतंकित वंचित इंसान दुश्मन देश का बना जातिवाद भ्रष्टाचार सुधार की ना कोशिशें पुरजोर कुचलो को कुचलने की साजिशें, अग्नि पथ पर निकल पड़ो भय मिटाने को जातिवाद -भ्रष्टाचार, वक्त की नब्ज को  अब तो समझो जातिभेद तज दो भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र कर दो राष्ट्रधर्म को सुर दो बाकी हैं सम्भावनायें बूढ़े भारत यानि सोन चिरैया को नव रंग दो........ नव रंग दो।    ~ नन्दलाल भारती