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Showing posts from September, 2024

महामना मदनमोहन मालवीय और बाबा साहेब आंबेडकर के बीच का संवाद ~ सं. मेवालाल

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हिन्दू संहिता विधेयक पर 14 दिसंबर, 1950 से खंडवार चर्चा प्रारंभ हुई थी। काफी लंबी चर्चा के बाद कुछ खंडों का स्पष्टीकरण हुआ। कुछ सदस्यों के असहमति को प्रकट करते और हिन्दू संहिता विधेयक का सकारात्मक असर न देख बाबा साहेब ने 27 अक्टूबर, 1951 को इस्तीफा दे दिया था। इसी चर्चा के सिलसिले में महामना मदनमोहन मालवीय और बाबा साहेब आंबेडकर के बीच हुई संवाद को प्रस्तुत किया गया है। हिन्दू संहिता विधेयक में 6 खंड थे। हिन्दू धार्मिक कानून के तहत नहीं बल्कि  एक समान संवैधानिक कानून से  शासित होंगे। यह उस समय का सुधारवाद और भारत को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया थी।  भाग एक में यह बताया गया कि किसे हिंदू माना जाएगा और जाति व्यवस्था को खत्म कर दिया गया। गौरतलब है कि यह निर्धारित करता है कि हिंदू संहिता किसी भी व्यक्ति पर लागू होगी जो मुस्लिम,  पारसी  , ईसाई या यहूदी नहीं है, और जोर देकर कहा कि सभी हिंदुओं पर एक समान कानून के तहत शासन किया जाएगा। बिल का भाग दो विवाह से संबंधित था; भाग तीन दत्तक ग्रहण; भाग चार,  संरक्षकता  ; भाग पांच संयुक्त परिवार की संपत्ति पर नीति,  [ ...

दलित ब्राह्मण (कहानी) शरणकुमार लिंबाले

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मुझे याद आता है, जब मैं प्रायमरी स्कूल जाने की उम्र में था, तब हमारी पाठशाला में गणपति की स्थापना की जाती थी। हम बड़े आनन्द से श्री की प्रतिष्ठापना करते थे। नाचते थे, गुलाल उछालते थे। प्रतिदिन विधिवत् श्री की पूजा हुआ करती थी। दिन बड़े ठाठबाट से गुजर जाते थे। प्रतिमा का विसर्जन भी बड़ी शान से हुआ करता था। जब मैं उन दिनों की याद करता रहता हूँ तब मेरी बेटी मेरे बाहों में उगे सफेद बालों को तोड़ा करती है। पत्नी कहती, 'जाने दो, पूरा सिर ही पक गया है। सफेद बालों को उखाड़ देने से बुढ़ापा छिप तो नहीं जायेगा।' लेकिन बेटी बड़ी लगन से सफेद बालों को ढूंढती रहती है। मिलने पर उखाड़ देती है। मुझे इस बात की खुशी होती है कि बालों को उखाड़ने के लिए ही क्यों न हो, वह मेरे पास तो है। घर के बाहर चौराहे पर गणपति की स्थापना हो चुकी है।  चाहे गणपति हो, देवी हो, राम या कृष्ण हो, महादेव हो, हिन्दुओं के इन देवताओं के हाथों में हथियार अवश्य होता है। वे आक्रामक लगते हैं। मैं उनके हाथोंके हथियारों से डरता हूँ। गणपति के हाथ में भी शस्त्र है। वह हैं तो विघ्नहर्ता किन्तु जब आते हैं तो विघ्नों को लेकर ही आते है...

मिट्टी के कच्चे घर (कविता कोश) ओम प्रकाश वाल्मीकि

  मिट्टी के कच्चे घर होते हैं पारदर्शी जान लेते हैं आस पड़ौस का सुख-दुःख आसानी से । मिट्ट के कच्चे घर जहाँ समय लठैत की बलात्कारी मुद्रा में दरवाजे पर झाँकता है। मिट्टी के कच्चे घर बिना रोशनदान बरसों करते हैं इंतजार सूर्य की भूली-भटकी किरण का या फिर ढह जाते हैं चुपचाप किसी बरसाती रात में । मिट्टी के कच्चे घरों से • कोई गली बाहर नहीं निकलती खत्म हो जाती है एक अंधे मोड़ पर  जहां न कोई साइन बोर्ड है न कोई नारा लिखा है  न चिपका है कोई पोस्टर किसी दीवार पर जबकि, कच्चे घर नहीं रोकते एक दूसरे को करीब आने से खड़े रहते है सटकर  जूलूस में खड़ी भीड़ की तरह  ~ ओम प्रकाश वाल्मीकि बस्स ! बहुत हो चुका, पृष्ट 22.23

बाहर आएंगे एक दिन (कविता) ओम प्रकाश वाल्मीकि

  बाहर आयेंगे एक दिन नहीं मिला दूध उसे सफेद-काली गाय का नहीं खाया उसने दही और मक्खन कभी नहीं सोया गद्देदार बिस्तर पर । लगातार लड़ा है वह बेहया मौसम से । पाला है भूखे बच्चों को बहला-फुसला कर इस इन्तजार में कि एक रोज बीत जायेंगे ये सन्ताप भरे दिन । टूटकर बिखर जायेंगे आदिम भेड़ियों के दाँत । काले पृष्ठों पर अदृश्य लहू की गन्ध पहचान लेंगे एक दिन उसके भूखे-प्यासे बच्चे । नहीं निहारेंगे दूर खड़े होकर लहलहाती फसलें जिसे उगाने में रक्त पिया है पुरखों का इस धरती ने। नहीं भरेंगे उनकी कोठियाँ और गोदाम अनाज के बोरों से । ये भूखे-प्यासे बच्चे बाहर आयेंगे एक दिन बन्द अँधेरी कोठरियों से कच्ची माटी की गन्ध साँसों में भरकर !                  ओम प्रकाश वाल्मीकि, बस्स! बहुत हो चुका,  पृष्ट ,20.21

सच खबरों से बाहर है (कविता) ~ महर्षि नवेन्दु

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 अंधेरे के परदे से कान सटाए पृथ्वी दूसरी ओर से उठते आने वाले दिन का शोर सुन रही है सुबह के खबरों में  पढ़े जाने के वास्ते फिर से कुछ नए हादसे बुन रही है  रात का  एक बज रहा है  आसपास नींद में बेसुध पड़ी दुनिया कूड़े के ढेर में  बदल गई है  जिसके एक छोर पर पड़ा मैं अधजली सिगरेट की तरह सुलग रहा हूं  किसी विध्वंसकारी  क्षण की प्रतीक्षा में  सबके साथ जल उठने का संयमित इरादा लिए क्योंकि जंगल को पूरी तरह साफ करने का सिर्फ आग ही सबसे सही और कारगर उपाय है। इतने सालों से नौकरी का मामूलीपन अभिशाप की तरह झेलते हुए  मैं निरंतर अपनी समझ का आकाश बड़ा कर रहा हूं  और इस व्यवस्था के जालिमपन के खिलाफ बहुमत की तरफ से खुद को  सवाल की तरह खड़ा कर रहा हूं। खबरे उड़ा कर  लाने वाली हवा पर पूरी तरह  सरकारी कब्जा है इन दिनों  और यही वजह है कि बहस में  असल मुद्दे से  सबका ध्यान हट रहा है  देश के भीतर जबकि आजकल जनता के साथ बहुत कुछ अघटनीय  घट रहा है। इनसेट वन बी से मिले चित्र के अनुसार पता नहीं चल रहा कि  कितने ब...

धरती की गति (कविता) ~ मलखान सिंह

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बरदाश्त की भी हद होती है हम, उसी दिन जान सके थे जिस दिन कि हमने यह जाना था कि- हमारी हर बरदाश्त हमारी ही मज़बूरी है। तुम्हारी आँखों में। चालाक भेड़िये ! आदमी का माँस अच्छा लगता है तुम्हें यह हमारे पुरखों ने कहा था और हम हँस पड़े थे कि आदमी का माँस आदमी ही क्यों खाने लगा ? लेकिन आज अपनी आँतें तुम्हारे दाँतों के बीच देख हम रो भी नहीं पा रहे हैं। हमारी बँधी मुट्ठियाँ देख बंदूकें तान ली हैं तुमने वही बंदूक ! जिसके सूत-सूत पर हमारी उँगलियों के निशान अंकित हैं। वही बंदूक - जिसके रेशे- रेशे में हमारे पसीने की महक गुंथी है। उफ, कितना बड़ा अनर्थ कर डाला हमने कि अपने ही हाथों अपनी ही मौत का निर्माण करते रहे और खुश होते रहे तुम्हारे कुटिल आश्वासन पर कि यह सब हम सबके कल्याण के लिए ही तो है। दूसरों की मेहनत पर कब्जा जमाने वाले साँप तुम्हारे पैर नहीं होते। तुम्हारी हवेली की ढहती हुई बुनियादें यही सब तो कह रही हैं खुलके। मदान्ध हो तुम तभी तो नहीं समझते कि गर्जन- चाहे बंदूक की हो या बादल की धरती की गति को नहीं बदल पाती।                    ~ मलखान सिंह, सु...

भाजपा का अनाभिजात्यवाद

 पीएम मोदी ने 15 अगस्त 2024 को लिए किले से देश के ऐसे एक लाख युवाओं से आह्वान किया कि वे राजनीति में आए जिनके परिवार से , रिश्तेदार से कोई राजनीति में न हो।  बिल्कुल फ्रेश ब्लड से।  ऐसे लोग आएंगे तो नई सोच नई समृद्धि और नई ताकत के साथ आएंगे। इस देश का लोकतंत्र मजबूत होगा। चाहे वे किसी भी पार्टी में जाय। यह देख कर कहा जा सकता है सामाजिक स्थिति व्यक्ति के समझ एवं ज्ञान में अधिक सहायक होती है। मोदी के घर परिवार से कोई रिश्तेदार राजनीति में नहीं है। आज वे प्रधानमंत्री है वे हर वर्ग से होकर गुजरे है।  इसके विपरीत यदि कोई उच्च वर्ग का है तो निम्न वर्ग के बारे में उसका ज्ञान मात्र किताबी होगा। अनुभविक नहीं होगा।

संत वाजिद (दादूपंथी) के अरिल्ल पद

वाजिदजी संत दादू दयाल के एक सौ बावन शिष्यों में से अन्यतम थे । ये जाति के पठान थे। इनके विषय में कहा जाता है कि एक बार जब ये किसी हरिणी का शिकार कर रहे थे, इनके हृदय में करुणा का भाव जागृत हो उठा और इनके जीवन में काया-पलट हो गई। इन्होंने उसी समय अपने तीर एवं कमान तोड़कर फेंक दिये और घर लौटकर शीघ्र किसी सद्गुरु की खोज में निकल पड़े। ऐसे ही अवसर पर इन्हें संत दादूदयाल के साथ सत्संग करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये उनसे पूर्ण प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गए। इनके जन्म-स्थान अथवा जीवन-काल की तिथियों का न तो कोई पता चलता है, न इनकी सभी रचनाएँ ही अभी तक उपलब्ध हैं। इनका जीवन-काल विक्रम की १७वीं शताब्दी में ठहराया जा सकता है। यह भी संभव है कि ये १८वीं के प्रारंभ काल में भी रहे हों। इनके जीवन में घोर परिवर्तन लाने का कारण इनके कठोर शिकारी हृदय का अकस्मात् कोमल बन जाना कदाचित् इनके अंत समय तक कायम रहा। इनकी रचनाओं में इस बात के अनेक उदाहरण मिलते हैं जो इनकी दया, दान- शीलता, सहानुभूति आदि के भावों में व्यक्त हुए हैं। इन्हें संघर्ष एवं भेदभाव के जीवनके प्रति कुछ भी आकर्षण नहीं और ये सर्वसाधारण के ज...

छत की तलाश (कविता) ~ मलखान सिंह

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 इस अपरिचित बस्ती में घूमते मेरे पांव थक गए हैं  अफसोस एक भी छत  सर ढकने को तैयार नहीं। हिन्दू दरवाजा खुलते ही  कौम पूछता है और – नाक भौं सिकोड़ गैर सा सलूक करता है। नमाजी दरवाजा  बुतपरस्त समझ आंगन तक जाने वाले रास्तों पर  कुंडी चढ़ाता है। हर आला दरवाजे पर  पहरा खड़ा है और  मेरे खुद के लोगों पर  न घर है, न मरघट। अब केवल यही सोच रहा हूं मैं  कि सामने बंद दरवाजे पर  दस्तक नहीं ठोकर दूंगा। दिवाले चूल से उखाड़  जमीं पर बिछा दूंगा। चौरस जमीं पर  मकां ऐसा बनाऊंगा हर होठ पर बंधुत्व का संगीत होगा मेहनतकश हाथ में – सब तंत्र होगा मंच होगा बाजुओं में  दिग्विजय का जोश होगा। विश्व का आंगन हमारा घर बनेगा। हर अपरिचित पांव भी अपना लगेगा।          ~ मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण, रश्मि प्रकाशन लखनऊ 

मैं आदमी नहीं हूं (कविता) 1 ~मलखान सिंह

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 मैं नहीं हूं स्साब  जानवर हूं दो पाया जानवर जिसकी पीठ नंगी है कंधों पर... मैला है  गट्ठर है मवेशी का ठठठर है  हाथों में... रांपी सुतारी है  कन्नी बसूली है सांचा है या मछली पकड़ने का फांसा है  बगल में... मूंज है–मुंगरी है तसला है–खुरपी है  छेनी है –हथौड़ी है  झाड़ू है–रंदा है या बूट पॉलिश का धंधा है। खाने को जूठन है। पोखर का पानी है फूस का बिछौना है  चेहरे पर – मरघट का रोना है  आंखों में भय मुंह में लगाम गर्दन का रस्सा  जिसे हम तोड़ते हैं  मुंह फटता है और बंधे रहने पर  दम घुटता है।           मलखान सिंह, सुनो ब्राह्मण, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ

प्रेम को परिभाषित करना कठिन है (लेख) ~ कार्तिकेय शुक्ल

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 प्रेम को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना कि ब्रह्मांड की माप लेना। हम जानते हैं कि वह बहुत बड़ा है शायद अनंत। लेकिन वास्तव में कितना बड़ा ये कहना मुश्किल है। हम उसकी उपस्थिति का अनुमान तो लगा सकते हैं लेकिन उसकी चौहद्दी या फैलाव पर ठीक - ठीक कुछ नहीं कह सकते। उसे एक ज्यामितीय या दूसरे गणितीय अथवा वैज्ञानिक पैमाने के सहारे जता तो सकते हैं। लेकिन सही मायने में उसकी सीमा का निर्धारण नहीं कर सकते। जैसे कि हम शून्य लिख सकते हैं या चाहें तो देख सकते हैं लेकिन छू नहीं सकते। अर्थात् जिसका होना प्रमाणित है किंतु उसका सही फ़ॉर्म नहीं पता है फिर भी अभी तक के ज्ञान के आधार पर ही हम उसे अपने हिसाब से अंकित करते आ रहे हैं। जबकि ये होने की पूरी संभावना है कि आगे कभी उसका फ़ॉर्म बदल भी  जाए।  प्रेम भी ठीक ब्रह्मांड और शून्य के जैसे ही अनंत और नगण्य के बीच का एक मसला है। हमें किसी से प्रेम है। इसे हम उसे बता कर या एहसास दिला कर जता सकते हैं। हमारी इस अवस्था को देख कर कुछेक दूसरे लोगों को भी ये लगने लगे कि हमें किसी से प्रेम है लेकिन जैसे कि वे ये नहीं बता सकते कि सही मायने में कितना ...